Saturday, June 5, 2010

अब राम रसोई नहीं रही त्योहारों की धुरी

यूं तो भारतीय समाज उत्सवों का समाज है और यहां आए दिन कोई न कोई उत्सव होता है, लेकिन जुलाई माह के साथ ही त्योहारों का सिलसिला-सा शुरू हो जाता है। तीज, रक्षाबंधन, जन्माष्टमी, नवरात्रि, करवाचौथ, धनतेरस, दीवाली, भाई दूज..। और चूंकि उत्सवधर्मिता भारतीय मूल में है, इसलिए हर त्योहार को यहां पूरी श्रद्धा और उमंग के साथ मनाया जाता है। घरों को रंगोली बना कर सजाया जाता है, घर में तरह-तरह के पकवान बनते हैं, पूजा-अर्चना होती है और घर में बधाई देने वालों की वजह से मेला-सा लगा रहता है। घर की महिलाओं को तो इन त्योहारों पर सांस लेने तक की फुर्सत नहीं मिलती। त्योहारों से पहले ही व्यंजनों के बनाने का सिलसिला शुरू हो जाता है और उसके बाद घर को सजाना-संवारना और आने वाले मेहमानों की खातिरदारी करना। जरा गुजरी सदी के छठे-सातवें दशक को याद कीजिए और याद कीजिए उस दौरान मनाये जाने वाले त्योहारों को। आपको याद आएगा कि किस तरह जन्माष्टमी के दिन घर की रसोई से पंजीरी, खीर मखाने की खीर, नारियल, चिरौंजी, गोंद की बर्फी और कूटू के आटे की पकौड़ियों की खुशबू उड़ा करती थी और बच्चे पूरे दिन बनते हुए पकवानों को देख ललचाते रहते थे। ये पकवान बच्चों को रात के बारह बजे मिला करते थे। यही नहीं, घर के या पास-पड़ोस के छोटे बच्चों को कृष्ण और उसकी गोपियों के रूप में सजाना भी उस दौर का प्रिय शगल था। परिवार रसोई के इर्दगिर्द घूमता और खुश दिखाई पड़ता था, लेकिन यह उस दौर की बात है! आखिर वे कौन से ठोस कारण हैं, जिनके चलते अब रसोई त्योहारों की धुरी नहीं रह गयी?
नया दौर और नये मूल्य
यह नया दौर है। एक ऐसा दौर, जहां आए दिन टैक्नोलॉजी बदल रही है, बाजार का विस्तार हो रहा है और लगभग हर चीज रेडीमेड उपलब्ध है-वह भी आपकी पसंद के अनुसार। ऐसे में त्योहारों की धुरी परपंरागत राम रसोई नहीं रह गयी है। 30 वर्षीया नीलम का कहना है कि ‘आखिर त्योहारों पर सभी को एन्ज्वॉय करने का हक होना चाहिए। और यदि कुछ सदस्य दिन भर रसोई में ही घुसे रहेंगे तो त्योहारों का आनंद कैसे उठाएंगे?’ वह कहती हैं, ‘जन्माष्टमी पर बाजार में हर तरह की मिठाई उपलब्ध है, फिर क्यों हम लोग दिन भर मेहनत करते रहें? बल्कि हम तो त्योहारों के मौके पर खाना भी बाहर ही पसंद करते हैं।’ यकीनन बहुत से लोग अब त्योहारों पर बाहर रेस्तरांओं में खाना पसंद करते हैं। रेस्तरांओं में त्योहारों पर वीकएंड्स से भी ज्यादा भीड़ नजर आती है।
बदली हैं प्राथमिकताएं
पिछले दो दशकों में लोगों की प्राथमिकताएं बहुत ज्यादा बदल गई हैं। सब बिजी हो गए हैं। उन्हें यह भी पसंद नहीं कि त्योहार रसोई के ही इर्द-गिर्द सिमट जाएं। ऐसा नहीं है कि वे त्योहारों को मनाना नहीं चाहते। वे बाकायदा त्योहारों का आनंद उठाना चाहते हैं, लेकिन रसोई में बैठ कर नहीं। त्योहारों पर एकदूसरे से मिलना-जुलना, गिफ्ट्स बांटना, शॉपिंग करना अब अनिवार्य हो चला है। त्योहार अब संपर्क, संबंध बनाने के माध्यम हो चले हैं। गिफ्ट्स खरीदने में भले ही हजारों स्वाहा हो जाएं, पकवान बनाने में जरूर महंगाई का रोना सुनाई देता है।
एकल परिवार ने बदला मिजाज
यह भी सच है कि पिछले दो दशकों में भारत में एकल परिवारों की अवधारणा ने मजबूती से अपने पैर जमाए हैं। इसका परिणाम यह हुआ कि घर में पति-पत्नी के अलावा एक या दो जन और होते हैं। ऐसे में मिठाइयां या अन्य चीजें बनाने का कोई औचित्य दिखाई नहीं पड़ता। पहले के दौर में संयुक्त परिवार हुआ करते थे और घर की सारी महिलाएं मिल कर गुजिया, पंजीरी, नमक पारे, शक्कर पारे और अन्य पकवान घर पर ही बना लिया करती थीं। घर में क्योंकि ज्यादा जन थे, इसलिए बनाने और खाने-खिलाने में मजा आता था। अलग-अलग महिला सदस्य के सुपुर्द अलग-अलग काम सौंप दिए जाते थे और हंसी-मजाक के बीच कब पकवानों के घान कढ़ाई से उतर तश्तरी तक आ जाते थे, पता ही नहीं चलता था। त्योहारों पर पक्के खाने का रिवाज था। आज की हैल्थ कॉन्शस पीढ़ी को वह पारंपरिक खाना भी रास नहीं आता। आज एकल परिवारों में घर में पकवान बनाना खटराग सा लगता है। अकेले न यह काम करना रास आता है, न अकेले बैठ कर खाना ही अच्छा लगता है। इसलिए कदम खुद-ब-खुद बाजार की ओर बढ़ जाते हैं। हैमबर्गर, पित्जा, चाऊमीन, मोमोज, डिमसम्स खाने की शौकीन बच्चा पार्टी भी रसोई में बनती मिठाइयों की गंध से अब नहीं बौराती। नयी तकनालॉजी ने बदली रसोई की शक्ल
अगर गौर से देखा जाए तो पिछले दो-तीन दशकों में तमाम ऐसे उपकरण बाजार में आए हैं, जिन्होंने महिलाओं के रसोई के काम को आसान बनाया है। माइक्रोवेव, जूसर-मिक्सर-ग्राइंडर, फूड प्रोसेसर, सैंडविच मेकर, टोस्टर, रोटी मेकर और ना जाने क्या-क्या। इन तमाम उपकरणों ने जहां महिलाओं को रसोई में कड़ी मेहनत करने से बचाया है, वहीं उन्हें इस बात का मौका भी मुहैया कराया है कि वे रसोई से बाहर की दुनिया में भी काम कर सकें। यही वजह है कि जब त्योहारों पर महिलाएं रसोई में काम करती भी हैं तो उन्हें वहां लगातार नहीं बने रहना पड़ता। सब काम उपकरण करते हैं और त्योहार होने के बावजूद बेचारी रसोई कई बार उदास-सी नजर आती है। शहरों की भागमभाग
पिछले कुछ वर्षो में महिलाएं बड़ी संख्या में घर से बाहर निकली हैं-काम के लिए, आर्थिक आजादी के लिए। नेहा टंडन को उस वक्त नौकरी की जरूरत महसूस हुई, जब उनका बेटा 14 साल का हो गया। वह कहती हैं, ‘अब बच्चे बड़े हो गये हैं। मैं पढ़ी-लिखी हूं। अब मुझे काम मिल गया तो मैं इससे खुश हूं।’ जाहिर है घर से दफ्तर और दफ्तर से घर करती महिलाएं जन्माष्टमी की एक छुट्टी में रसोई का कितना हुनर दिखा पाएंगी।
महंगाई मार गई
महंगाई ने भी रसोई का दम निकाल दिया है। त्योहारों के पकवानों में इस्तेमाल होने वाली सामग्री के दाम आसमान छू रहे हैं। जो सचमुच राम रसोई की महत्ता जानते भी हैं वे भी चिरौंजी, मखाने, खाने वाली गोंद, गोला, बादाम, मावा, देसी घी के दाम सुन पस्त से हो जाते हैं। जितने में पकवानों का सामान आएगा, उतने में तो घर का राशन आ जाएगा। मंदिर के आगे के दीये भी अब देसी घी से नहीं जलते, उनमें भी सरसों के तेल की लौ टिमटिमाती है।
जाहिर है इन और इन जैसे तमाम दूसरे कारणों ने रसोई को त्योहारों की धुरी नहीं रहने दिया है और उसकी जगह अब बाजार ने ले ली है।
सुधांशु गुप्त

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