Saturday, May 21, 2011

बहुत हार्ड था हार्ड कौर का जीवन

सुधांशु गुप्त



कानपुर के निम्न मध्यवर्गीय परिवार में जन्मीं तरण कौर ढिल्लन की जिंदगी का सफर आसान नहीं था। सिख विरोधी दंगों में उन्होंने अपने पिता को खोया और घर का ब्यूटी पार्लर भी जला दिया। इसके बाद कानपुर से लुधियाना और फिर लंदन तक का सफर किसी के लिए भी प्रेरणास्रोत का काम कर सकता है।

सपने उन्हीं के पूरे होते हैं जिनके सपनों में जान होती है, पंखों से कुछ नहीं होता हौसलों में उड़ान होती है।
यकीनन देश की पहली रैपर और हिप हॉप सिंगर हार्ड कौर की सफलता की अब तक की दास्तान हौसलों की ही दास्तान है। आज जब लोग उनके गाये गीत- ‘मूव योर बॉडी बेबी’ या फिर ‘मैं नशे में टल्ली हो गयी...’ जैसे गीत सुनते हैं तो उन्हें इस बात का जरा भी अंदाजा नहीं होता कि हार्ड कौर की इस मदमस्त कर देने वाली आवाज के पीछे कितना दर्द और कितना संघर्ष छिपा है। हार्ड कौर का जन्म कानपुर में 1979 में हुआ। उनका बचपन आम निम्न मध्यवर्गीय परिवारों की लड़कियों की तरह ही बीत रहा था। उनका नाम था तरण कौर ढिल्लन। उनकी मां घर के आर्थिक हालात को बेहतर बनाने के लिए कानपुर में ही एक ब्यूटी पार्लर चलाया करती थीं। तभी नवंबर 1984 के वे शुरुआती दिन
आये, जिन्होंने एकबारगी इस घर की खुशियों को डस लिया। सिख विरोधी दंगों ने तरण के पिता की बलि ले ली। यही नहीं, उनका ब्यूटी पार्लर भी आग के हवाले कर दिया गया। तरण की मां अपनी बेटी और बेटे को लेकर लुधियाना आ गयीं, अपने मायके। समय फिर रफ्ता-रफ्ता बीतने लगा। 1991 में तरण की मां ने एक अप्रवासी भारतीय से शादी कर ली और बर्मिंघम, लंदन चली गयीं। तरण की मां ने वहां भी ब्यूटी पार्लर खोल लिया, ताकि बेटी की पढ़ाई-लिखाई ठीक ढंग से हो सके। इस बीच तरण के मन में सिंगर बनने का कोई साफ-साफ सपना नहीं था। बस उसके मन में अपनी एक आंटी की वह तस्वीर समाई हुई थी, जिसमें वे परंपरागत साड़ी पहने हारमोनियम बजा रही हैं। उनके इसी सपने ने शायद एक सिंगर का रूप लिया। लेकिन तरण ने पाया कि लंदन में भी उनके लिए रास्ते आसान नहीं हैं। लोग उन पर फब्तियां कसते।

किशोरावस्था तक पहुंचते-पहुंचते तरण ने सिंगर बनने का निश्चय कर लिया। वह कड़ी मेहनत करतीं। उन्होंने लंदन स्कूल ऑफ म्यूजिक में दाखिला ले लिया। 1995 में तरण कौर ने स्टेज परफॉर्मेंस देनी शुरू कर दी। उन्होंने रूस, इस्रायल, फ्रांस और कोपनहेगन की यात्राएं कीं। उन्हें दर्शक और सम्मान दोनों मिले। उनका ‘ग्लॉसी’ एलबम आया, जिसे दर्शकों ने काफी पसंद किया। इसके बाद लंदन से बॉलीवुड तक का उनका सफर बहुत मुश्किल नहीं रहा। वह अहसान लॉय से मिलीं। अहसान के जरिये उनकी मुलाकात ‘जॉनी गद्दार’ के निर्देशक श्रीराम से हुई। इसी फिल्म में उन्होंने पहला गीत गया - मूव योर बॉडी बेबी। इस गीत ने उन्हें भारत में भी लोकप्रिय कर दिया। इसके बाद उन्होंने हाल-ए-दिल, किस्मत कनेक्शन, अगली और पगली, बचना ऐ हसीनों और ‘सिंह इज किंग’ के लिए गीत गाये। लेकिन उनका नाम तरण से हार्ड कौर कैसे हो गया, यह अभी भी रहस्य ही है। संभवत: जीवन के ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर चलते हुए और जीवन की कड़वी सच्चाइयों को झेलते-झेलते वह इतनी हार्ड हो गयीं कि उन्होंने अपना नाम ही हार्ड कौर कर लिया। हार्ड कौर का मानना है कि जब तक आपमें प्रतिभा और जुनून है, तब तक आपको अपने सपनों का पीछा करना चाहिए। और अपने सपने का पीछा करते-करते ही हार्ड कौर यहां तक पहुंची हैं।

विवेका और माडलिंग की दुनिया के अंधेरे

विवेका की आत्महत्या ने एक बार फिर फैशन और ग्लैमर की चकाचौंध की पीछे के अंधेरे को सुर्खियों में ला दिया है। आखिर क्यों करनी पड़ती हैं मॉडल्स को आत्महत्या। सुधांशु की रिपोर्ट।

पिछले दिनों सुपरमॉडल विवेका बाबाजी ने 37 वर्ष की उम्र में आत्महत्या करके एक बार फिर यह संकेत दिये कि ग्लैमर और फैशन की दुनिया में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। ग्लैमर और फैशन की इसी दुनिया पर माुर भंडारकर ने ‘फैशन’ फिल्म बनाई थी, जिसने मॉडलिंग की दुनिया के अंधेरों को भी तेज रोशनी में दिखाया। फिल्म में दिखाया गया था कि किस तरह टॉप मॉडल कंगना रानाउत बुलंदियों पर पहुंचने के बावजूद आत्महत्या करने के लिए मजबूर हो जाती है, किस तरह प्रियंका चोपड़ा एक छोटे से शहर से निकलर सुपरमॉडल बनती है और फिर किस तरह वह सफलता की सीढ़ियों से फिसलकर नीचे आ जाती है। फिल्म में उन दबावों को भी बहुत बारीकी से दिखाया गया था, जिनके चलते मॉडल निराशा और कुंठाओं का शिकार हो जाती है। रिश्तों का बनना बिगड़ना (या सफलता पाने के लिए इस्तेमाल करना), एक रोज सफलता को पाना और दूसरे रोज फिर संघर्ष करना, लगातार खुद को सुंदर बनाए रखने का दबाव और गला काट प्रतियोगिता कई ऐसे कारण हैं, जो टॉप मॉडल्स को भी आत्महत्या के मुहाने पर ले जाते हैं।


विवेका अकेली ऐसी मॉड्ल नहीं हैं। इससे पहले 2004 में पूर्व मिस इंडिया नफीसा जोसेफ ने भी आत्महत्या का ही रास्ता चुना था और 2006 में मॉडल और टीवी आर्टिस्ट कुलजीत रांधावा को यही रास्ता चुनना पड़ा था। सन 2007 में भी मीडिया, फैशन और ग्लैमर की दुनिया सकते में आ गयी थी, जब गीतांजलि नागपाल नामक एक मॉडल को दिल्ली की सड़कों पर भीख मांगते पाया गया था। बाद में इसी प्रकरण को मधुर भंडारकर ने फैशन फिल्म में भी चित्रित किया।

आखिर वे कौन से दबाव हैं जो मॉड्ल्स को कमजोर कर देते हैं? मनोचिकित्सक संजय चुग का कहना है, डिप्रेशन जीवन में किसी भी व्यक्ति को किसी भी समय अपने प्रभाव में ले सकता है। वह कहते हैं, संभवत: इस प्रोफेशन में जबरदस्त तनाव और इस पेशे की मांग किसी भी व्यक्ति को भावनात्मक रूप से कमजोर कर सकती है, इतनी कमजोर कि वह सारे रास्ते बंद करके आत्महत्या का रास्ता चुन लेता है। एक और वजह यह भी है कि महिला मॉडल्स को लगातार अपनी बॉडी को फिट और आकर्षक बनाये रखना होता है, जिससे उनके ऊपर दबाव बढ़ता रहता है। इस दबाव को ना झेल पाना और ग्लैमर की दुनिया में खुद को अकेल महसूस करना भी इनकी आत्महत्या के कारण हो सकते हैं। कई बार ऐसा भी होता है कि सफलता की सीढ़ियां चढ़ते हुए आप कुछ बुरे अनुभवों से रूबरू होते हैं, जिससे आपको सदमा लगता है और टॉप पर होते भी अकेलापन महसूस करते हैं। यह अकेलापन भी आपको आत्महत्या की ओर ले जा सकता है। हालांकि ऐसा कोई तय रास्ता नहीं है, जिसे अपनाकर आप इस पेशे के दबावों से मुक्त हो सकें, लेकिन फिर भी यदि महिला मॉडल भीतरी संतोष, बहुत ज्यादा पाने की हवस और रेस में शामिल ना होना जैसी चीजें अपनाएं तो संभवत: वे इस अकेलेपन से बच सकती हैं। ठीक उसी तरह जिस तरह मुगधा गोडसे फिल्म ‘फैशन’ में खुद को बचाये रख पायी थीं।

छोटे परदे पर लौटी धक-धक गर्ल-माधुरी दीक्षित

माधुरी का रुपहले परदे से प्रेम खत्म नहीं हुआ है। बार-बार लगता है कि शायद यह उनकी आखिरी पारी हो, लेकिन वह फिर-फिर वापसी करती हैं। बॉलीवुड में लंबे समय तक अपने जलवे बिखेरने के बाद भी माधुरी का आकर्षण बना हुआ है तो इसकी वजह है उनकी मुस्कान और मध्यवर्गीय किरदारों को बड़े परदे पर जीवंत करना। एक रिपोर्ट -सुधांशु गुप्त

वर्ष 2011 को अगर माधुरी दीक्षित का साल कहा जाए तो गलत नहीं होगा। इस साल 3 जनवरी से माधुरी एक बार फिर लोगों के घरों और दिलों पर राज करने के लिए आ गयी हैं। सोनी एंटरटेनमेंट के ‘झलक दिखला जा’ में माधुरी जज की भूमिका में दिखाई दे रही हैं। एक लंबे समय तक बॉलीवुड में राज करने वाली माधुरी के लिए भारत लौटने का बहाना इस बार छोटा परदा बना है।

1999 में अमेरिकी डॉक्टर नेने से विवाह करके माधुरी बाकायदा अमेरिका में बस गयी थीं, लेकिन पहले उनकी फिल्में आती रहीं और फिर भारत की मिट्टी उन्हें खुद यहां खींचती रहीं। शादी के बाद भी हालांकि माधुरी की कई फिल्में रिलीज हुईं-आरजू, पुकार, गजगामिनी, लज्जा और हम तुम्हारे हैं सनम। लेकिन इनमें से कोई भी फिल्म हिट साबित नहीं हुई। एकबारगी लगा कि माधुरी दीक्षित की फिल्मी पारी का यहीं अंत हो गया है। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। 2002 में संजय लीला भंसाली की देवदास में माधुरी चंद्रमुखी के रूप में वापस लौटीं और उन्हें दर्शकों का प्यार एक बार फिर मिला। यह अकारण नहीं था कि शरतचंद्र चट्टोपाध्याय के लिखे उपन्यास पर बनी देवदास में पारो के लिए माधुर दीक्षित ही सबसे उपयुक्त अभिनेत्री हो सकती थीं। खासकर इसलिए भी क्योंकि माधुरी को सिनेमा की दुनिया में ‘नेक्स्ट डोर गर्ल’ कहा जाता रहा है।

माधुरी का जन्म एक मराठी ब्राह्मण परिवार में हुआ। देखने भालने में एक साधारण-सी लगने वाली माधुरी का बचपन आम लड़कियों की ही तरह था। कथक डांस का बाकायदा आठ साल प्रशिक्षण लेने के बाद माधुरी ने बॉलीवुड की ओर रुख किया। हालांकि उनका सपना माइक्रोबायोलॉजिस्ट बनने का था। लेकिन नियति ने उनके लिए रुपहले परदे पर एक भूमिका तय कर रखी थी। इसकी एक वजह शायद यह थी कि माधुरी की मुस्कान और फोटोजेनिक होना देखने वालों को पसंद आता था। लिहाजा 1984 में ‘अबोध’ फिल्म से उन्होंने अपने करियर की शुरुआत की। फिल्म नहीं चली, लेकिन माधुरी को फिल्में लगातार मिलती रहीं। यूं देखा जाए तो उन्हें बॉलीवुड में कोई बहुत ज्यादा संघर्ष नहीं करना पड़ा। अबोध के बाद दयावान और वर्दी जैसी फिल्में करने के बाद 1988 में तेजाब के साथ ही माधुरी भी हिट हो गयीं। इस फिल्म उन पर पिक्चराइज गाना ‘एक दो तीन...चार पांच छह सात आठ नो दस ग्यारह’ सुपर डुपर हिट हुआ और बॉलीवु़ड को एक बड़ी अभिनेत्री मिल गयी। इसके बाद माधुरी ने एक के बाद कई हिट फिल्में दीं। इनमें राम लखन, परिंदे, त्रिदेव, प्रहार, दिल जैसी फिल्में शामिल थीं। 1993 में आई खलनायक और 1994 में आई हम आपके हैं कौन को बड़ी सफलता मिली। हम आपके हैं कौन ने तो सफलता और कमाई के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिये।

माधुरी के लंबे फिल्मी करियर की खास बात यह रही कि उन्होंने हमेशा एक मध्यवर्गीय लड़की के किरदार को ही परदे पर साकार किया। मशहूर पेंटर मकबूल फिदा हुसैन ने माधुरी के भीतर स्त्री के सभी रूप देखे और उनकी दीवानगी इस हद तक बढ़ गयी कि उन्होंने गजगामिनी फिल्म का निर्माण किया। फिल्म बेशक नहीं चली, लेकिन माधुरी की मुस्कान बराबर चलती रही। श्री नेने से शादी करने के बाद ऐसा लग रहा था कि माधुरी के लिए बड़े परदे पर वापसी मुश्किल होगी। लेकिन 2007 में उन्होंने ‘आजा नच ले’ के जरिये बड़े परदे पर वापसी की। और अब एक बार फिर माधुरी छोटे परदे के जरिये हमारे बीच हैं। देखना है कि अपने समय की इस धक-धक गर्ल को दर्शक पसंद करते हैं या नहीं।

बॉलीवुड की बिल्लो रानी-बिपाशा बसु

बॉलीवुड में बिपाशा बसु की एंट्री ‘सेक्सी गर्ल’के रूप में हुई थी। उस समय तक बॉलीवुड हीरोइनें खुद को सेक्सी कहलवाना ज्यादा पसंद नहीं करती थी। लेकिन गुजरे कुछ सालों में सेक्सी का टैग हासिल करना एक उपलधि-सी हो गया है। हर से ग्लैमरस दिखने वाली बिपाशा  की दुनिया भीतर कैसी है और कैसे हैं उसके सपने? सुधांशु की रिपोर्ट:

वह जिंदगी अपनी शर्तों पर जीती हैं...बॉलीवुड उन्हें सेक्सी गर्ल के रूप में जानता है...अक्सर वह यह कहती पायी जाती हैं कि यदि वे लड़का होतीं तो जिंदगी ज्यादा बेहतर होती...सेक्स अपील की उनकी अपनी ही परिभाषा है...उनका मानना है कि वे कभी वल्गर या चीप कपड़े नहीं पहनेंगी...उनके लिए लड़की साड़ी में सासे ज्यादा सेक्सी लगती है...वह अपनी जिस्मानी छवि से बाहर आना चाहती हैं। इन सारी क्वालिटीज से जो तस्वीरानती है-वह है बिपाशा बसु की।बिपाशा बसु जिन्हें बॉलीवुड  में सेक्सी शद के अर्थादलने का श्रेय जाता है।

बिपाशा का जन्म एकांगाली हिंदू परिवार में नयी दिल्ली में 7 जनवरी 1979 को हुआ। वह तीनाहनों में बीच की हैं। बिपाशा कई बार अपने इंटरव्यूज में कह चुकी हैं कि उनके माता-पिता उनकी जगहोटा चाहते थे। लिहाजा उनके मन के किसी कोने में इस बात की पीड़ा अवश्य रहती है कि उनके मां-बाप ने भी उनके जन्म को बहुत खुशी से नहीं लिया। शायद इसीलिए बिपाशा कई बार कह चुकी हैं कि वे यदि लड़का होती तो ऐसी भूमिकाएं भी कर सकती थीं, जो लड़की होने के कारण उन्हें छोड़नी पड़ती है।बचपन का एक और ऐसा प्रसंग है, जो उन्हें कई बार सालता रहता है। बचपन में रंग काला होने की वजह से बिपाशा की सहेलियां अक्सर उन्हें कुरूप कहा करती थीं। अपने इन्हीं दुखों से उबरने के लिए बिपाशा अपना ध्यान पढ़ाई-लिखाई में लगाती थीं। पता नहीं का उनके जेहन में डॉक्टर बनने का सपना आकार ले बैठा। इस बीच वह अपने परिवार के साथ दिल्ली से कोलकाता शिफ्ट कर चुकी थीं। जा वह 17 साल की हुईं तो नियति उन्हें मॉडलिंग की तरफ ले गयी। फोर्ड सुपर मॉडल ऑफ दि वल्र्ड का खिताब जीत कर उन्होंने यह साबित किया कि वहादसूरत नहीं हैं। पढ़ाई के प्रति उनके सरोकार फिर भी बने रहे। हां, इस खिताब ने उनके डॉक्टर बनने के सपने को जरूर तोड़ दिया। आ वह चार्टर्ड एकाउंटेंट बनना चाहती थी। नियति ने एक बार फिर उनका रास्ता रोक लिया और उनकी दिशा बॉलीवुड की ओर मुड़ गयी। 2001 में ‘अजनबी’ से उन्होंने डेयू किया। इसके बाद एक के बाद एक कई फिल्में रिलीज हुईं, जिन्होंने बेशकाहुत अच्छा बिजनेस नहीं किया, लेकिन बिपाशा को सबने नोटिस किया। इसके बाद आई ‘जिस्म’ में उन्होंने सोनिया खन्ना का किरदार बिंदास अंदाज में निभाया। फिल्म अच्छी चली और साथ ही चल निकली बिपाशा बसु। इसके बाद उन्होंने एक के बाद एक कई हिट फिल्में दीं। इनमें फुटपाथ, मदहोशी,बरसात, फिर हेराफेरी, कोरपोरेट, ओंकारा और रेस जैसी फिल्में शामिल हैं।

ओंकारा में जा उन्होंने आयटम गर्ल के रूप में ‘बीड़ी जलाइले पिया, जिगर में बड़ी आग है’ और ‘बिल्लो रानी...’ जैसे गीत गाये तो यह उनके जिस्म फिल्म की भूमिका का ही विस्तार था। हालांकि बिपाशा बार-बार कहती हैं कि वह जिस्म की छवि से बाहर निकलना चाहती हैं, लेकिन फिल्म निर्माता उन्हें कोई भी भूमिका दें, उन्हें बोल्ड रूप में ही दिखाना चाहते हैं। बिपाशा को सेक्स अपील और सेक्सी दिखने से कोई ऐतराज नहीं है। वह कहती हैं, जब मैंने बॉलीवुड में प्रवेश किया था तो सेक्सी दिखना और सेक्सी का टैग लगना अच्छी बात नहीं माना जाता था। लेकिन आज अधिकांश हीरोइनें परदे पर कपड़े उतारने के लिए बेचैन रहती हैं। लेकिन मैं ऐसा नहीं करूंगी। मैं कभी वल्गर कपड़े नहीं पहनूंगी और चीप सीन्स नहीं करूंगी। बिपाशा का मानना है कि लड़की भीगी हुई साड़ी में सासे ज्यादा सेक्सी लगती है। द्रौपदी की भूमिका निभाने की इच्छा रखने वाली बिपाशा जीवन में बेहद पारदर्शी हैं। वह अलग तरह की भूमिकाएं करना चाहती हैं, यों उन्हें जो भूमिकाएं कर रही हैं, उनसे भी कोई गुरेज नहीं है।

Sunday, May 15, 2011

ताकि जॉब्स पर रहे नजर







अब शादी नहीं है मंजिल

- सुधांशु गुप्त
लड़कियां अब इस बात से चिंतित नहीं हैं कि उनकी उम्र तीस को टच करने वाली है, और उनकी शादी नहीं हुई। यह ट्रैंड महानगरों, छोटे शहरों, कस्बों से होता हुआ ग्रामीण इलाकों तक पहुंच रहा है। लड़कियों के लिए अब उनका करियर पहली प्राथमिकता है। और शादी से पहले वे आर्थिक रूप से स्वतंत्र होना चाहती हैं। समाज और लड़कियों की सोच में आए इस बदलाव पर सुधांशु की एक रिपोर्ट

हेमा गोयल 3 फरवरी को 26 साल की हो जाएंगी। उन्होंने आईपी यूनिवर्सिटी से एमबीए किया है। अब वह एक प्राइवेट कंपनी में कंपनी सेक्रेटरी का कोर्स कर रही हैं, साथ ही वह एक प्राइवेट कंपनी में ही नौकरी भी करती हैं। वह अपनी लाइफ को पूरी तरह एंजॉय करती हैं और करना चाहती हैं। शादी की उन्हें अभी भी कोई जल्दी नहीं है। वह कहती हैं, पहले मेरा करियर है। एक बार मैं अच्छी तरह सैटल हो जाऊं, उसके बाद शादी भी करेंगे। शादी के लिए पेरेंट्स या सामाजिक दबाव के बारे में भी हेमा का नजरिया एकदम साफ है। वह कहती हैं, सामाजिक दबाव का मेरे लिए कोई अर्थ नहीं है और मेरे पेरेंट्स भी इस बात को समझते हैं, इसलिए वे भी मुझ पर कोई दबाव नहीं डालते।

स्वाति माटा 24 साल की हैं। प्राइवेट कंपनी में नौकरी कर रही हैं। एचआर में उन्होंने एमए किया है। वह कहती हैं, मैं अपने ऑफिस में शादीशुदा लड़कियों से बातचीत में पाती हूं कि शादी के बाद लड़की के पास अपने लिए कुछ नहीं होता। उन्हें सास-सुसर की, पति की देखभाल करनी होती है। इसलिए मैं शादी से पहले की जिंदगी को भरपूर जीना चाहती हूं। पहले पढ़ाई, नौकरी और उसके बाद कुछ साल मस्ती। इसके बाद शादी के बारे में सोचूंगी।

हेमा या स्वाति राजधानी दिल्ली में रहने वाली अकेली ऐसी लड़कियां नहीं हैं। नेहा रावत, श्वेता, सारिका तमाम ऐसी लड़कियां आपको अपने आसपास मिल जाएंगी। इनकी उम्र 25-30 के बीच है। म्यूजिक सुनना, मैसेजिंग करना, पार्टियां देना बेशक इनके लिए पैशन हो, लेकिन इस पैशन के पीछे इनका करियर है। इन सभी का मानना है कि शादी कोई गोल नहीं हो सकता।

पहले का परिदृश्य

दो तीन दशक पहले के भारतीय समाज पर नजर डालते हैं। वह ऐसा समाज था, जहां 20 साल उम्र टच करते ही मां-बाप उसकी शादी की चिंता में पतले होने लगते थे। पड़ोसी भी लगातार उन पर यह कहकर दबाव बनाते थे कि लड़की की उम्र हो रही है, कहीं ऐसा ना हो कि उम्र निकल जाए और फिर आपको पछताना पड़े। वास्तव में वह ऐसा दौर था, जब लड़की को विदा करना मां-बाप का एकमात्र लक्ष्य हुआ करता था। इस पूरे सीन में यह कतई महत्त्वपूर्ण नहीं था कि लड़की पढ़ रही है या नहीं, वह नौकरी करना चाहती है या नहीं, उसके अपने भी कुछ सपने हैं या नहीं। बस, मां-बाप और समाज का यही सपना होता था कि लड़की की जल्द से जल्द शादी कर दी जाए। लेकिन गुजरे दो-तीन दशकों में यह स्थिति काफी हद तक बदली है और लड़कियों की शादी उम्र आगे बढ़ गयी है।

शिक्षा के लिए जिद

जहां मां-बाप इस बात के प्रति जागरूक हुए कि अपनी बेटियों को शिक्षित बनाना है, वहीं लड़कियां भी अपनी एजुकेशन को लेकर सजग हुईं। एजुकेशन ने ही लड़कियों के लिए बाहर की खिड़कियां खोलीं और उन्हें यह समझ में आया कि शादी शिक्षा के बाद की बात है। दिलचस्प बात है कि शिक्षित समाज में लड़कियों की शादी की उम्र हमेशा ज्यादा पाई जाती है। यानी महिलाओं में साक्षरता बढ़ी तो शादी की उम्र भी थोड़ा आगे खिसक गयी। वैश्वीकरण और उदारीकरण ने लड़कियों के लिए भी तमाम तरह के ऐसे कोर्स पैदा किये, जिन्हें करके वे नौकरियां पा सकें। लिहाजा लड़कियों के भीतर आर्थिक रूप से स्वतंत्र होने का सपना पैदा हुआ। और इस सपने को पूरा करने के लिए समय और उम्र की दरकार थी, जिसने शादी को प्राथमिकता में पीछे धकेल दिया।

बढ़ता शहरीकरण

शहरीकरण ने भी लड़कियों की शादी की उम्र को आगे खिसकाने में एक अहम भूमिका निभाई। बढ़ते शहरीकरण ने लड़कों के लिए भी शिक्षा के ज्यादा अवसर मुहैया कराए। और इन गुजरे दो-तीन दशकों में ही लड़कों की सोच भी बदली। ‘सुंदर, सुशील और स्वस्थ’ लड़की का उनका कॉन्सेप्ट ‘वर्किंग और इंटेलिजेंट’ लड़की के कॉन्सेप्ट में बदल गया। अब लड़के पढ़ी-लिखी और नौकरीपेशा लड़कियां चाहने लगे। और जब लड़कियां भी पढ़ने-लिखने लगीं तो वे भी यह सोचने लगीं कि उनके वुड बी ज्यादा पढ़े-लिखे हों। यानी युवा वर्ग में एक ऐसे पोजिटिव कॉम्पिटीशन की भावना पैदा हुई, जिसने लड़कों और लड़कियों दोनों को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया।

पारिवारिक ढांचे में बदलाव

संयुक्त परिवार की अवधारणा, कम से कम शहरों में तो खत्म हुई। इसकी जगह एकल परिवार ने ले ली। संयुक्त परिवारों में बड़े बुजुर्गों की सलाह पर अमूमन लड़कियों की शादी करने का प्रचलन रहा है। ऐसे में बच्चों के मां-बाप से ज्यादा उनके दादा-दादी की चला करती थी। एकल परिवारों में मां-बाप ही अपने बच्चों के भविष्य का फैसला करते हैं। बदलते समाज के साथ, मां-बाप ने भी यह पाया कि पहले लड़कियों का करियर बनाओ, उसके बाद उनकी शादी करो। हेमा कहती हैं, मैं आर्थिक रूप से इतनी स्वतंत्र होकर शादी करना चाहती हूं, ताकि शादी के बाद अगर किसी तरह की खराब स्थिति आए तो मुझे मां-बाप पर निर्भर ना रहना पड़े। मैं खुद उसे हैंडल कर सकूं।

चाहिए मनचाहा वर

पहले लड़कियों की अपनी कोई पसंद नहीं होती थी। वे मां-बाप की ही मर्जी से शादी कर लिया करती थीं। अब उनकी अपनी पसंद है। यानी अब वे भी लड़कों को मना कर रही हैं।

वे चाहती हैं कि उनके सपनों का राजकुमार, उन्हीं के अनुकूल हो। साथ ही लड़कियां यह भी चाहती हैं कि वे शादी से पहले की अपनी जिंदगी को अच्छी तरह एंजॉय कर लें। वे पढ़ाई पूरी करती हैं, नौकरी तलाशती हैं, नौकरी में स्थायित्व तलाशती हैं और नौकरी के बाद एक-दो साल अपने फ्रैंड सर्कल के साथ मस्ती मारना चाहती हैं। लिहाजा उम्र अब उनके लिए मैटर नहीं करती।

क्या है दुनिया में शादी की उम्र

पूरी दुनिया में शादी के लिए लड़कों की औसत उम्र 28.7 और लड़कियों की 26.8 है। आइये देखते हैं अलग-अलग देशों में यह उम्र क्या है?

देश लड़के लड़कियां
अमेरिका 27 25
इंग्लैंड 29.8 27.7
भारत 23.9 19.3
ऑस्ट्रेलिया 30.6 26.1
दक्षिण अफ्रीका 28.9 27.1
पाकिस्तान 22.8 19.7
मिस्र 27.9 22.2

30 की उम्र कोई मायने नहीं रखती

काम मैटर करता है उम्र नहीं

बॉलीवुड में अब तो यह एक आम ट्रैंड होता जा रहा है। सुष्मिता सेन (35), बिपाशा बसु (32), करीना कपूर (30) क्रॉस कर चुकी हैं या करने वाली हैं, लेकिन इनमें से किसी का भी अभी शादी का कोई इरादा नहीं है।

बिपाशा का तो यहां तक कहना है कि वे इस उम्र में खुद को ज्यादा सेक्सी और समझदार मानती हैं। हालांकि बिपाशा पिछले कई सालों से जॉन के साथ हैं, लेकिन शादी करने का उनका भी अभी कोई इरादा नहीं है।

वास्तव में भारतीय समाज पर, खासतौर पर मध्यवर्ग पर सबसे ज्यादा असर बॉलीवुड का ही पड़ता है। और बॉलीवुड में अब यह साफ दिखाई दे रहा है कि वहां नायिकाओं की उम्र से ना तो उनके करियर में कोई दिक्कत आती है और ना ही उनके विवाह में। पूर्व मिस वर्ल्ड ऐश्वर्या राय ने भी काफी देर से शादी की और अब वे 37 वर्ष की उम्र में भी भरपूर काम कर रही हैं। यही नहीं, बल्कि उन्हें हॉलीवुड तक की फिल्में मिल रही हैं। काजोल भी शादी के बाद फिल्में कर रही हैं-बेशक कम और दिलचस्प रूप से दर्शक उन्हें पसंद भी कर रहे हैं। बॉलीवुड के अभिनेताओं को भी अब शादी की कोई जल्दी दिखाई नहीं देती। दबंग सलमान खान 44 के हो चुके हैं, जॉन अब्राहम भी 35 छू रहे हैं, लेकिन इन्हें शादी की कोई जल्दी नहीं है। यही ट्रैंड अब भारतीय युवाओं में भी देखने को मिल रहा है। यही नहीं, ऐसा भी बॉलीवुड में पहली बार हो रहा है कि बड़ी उम्र की नायिकाओं के साथ छोटी उम्र के नायक काम कर रहे हैं। यानी नायिका छोटी हो यह मिथ टूट रहा है।

गुल पनाग टर्निग 30

गुल पनाग की एक फिल्म रिलीज होने वाली है-टर्निंग 30। इस फिल्म में फिल्मकार अलंकृता श्रीवास्तव ने लड़कियों के संदर्भ में 30 वर्ष की होने के मुद्दे को बड़ी गंभीरता से पोट्रे किया है। संयोग से पूर्व ब्यूटी क्वीन गुल पनाग भी अपनी तीस की उम्र के आसपास पहुंच चुकी हैं। उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनकी शादी की उम्र (जो पता नहीं किसने तय की है) निकल रही है। वे अपना काम सही तरीके से करना चाहती हैं। वह कहती हैं, यह सच है कि तीस की उम्र में आपकी स्किन का ग्लो कम होने लगता है और सेल्फ एसेसमेंट का प्रोसेस शुरू हो जाता है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि आप तुरंत शादी कर लें। हालांकि यह भी सच है कि जो लड़कियां जल्दी शादी करके जीवन में स्थायित्व पा जाती हैं, वे कभी टर्निग 30 के साइके के बारे में नहीं सोचतीं। वह कहती हैं, 30 साल मेरे लिए एक आंकड़ा भर है।

हिंदुस्तान जॉब्सः ताकि जॉब्स पर रहे नज़र

- सुधांशु गुप्त
मंदी का दौर पूरी तरह गुजर चुका है। बाजार में अब नौकरियों की बाढ़-सी आई हुई है। बैंकिंग, आईटी, मेडिकल, टीचिंग क्षेत्रों में भरपूर नौकरियां निकल रही हैं। अब सवाल यह है कि आप किस तरह अपनी पसंद और एजुकेशन के अनुसार अपने करियर को उड़ान दे सकते हैं। कैसे आप यह जानें कि किस तरह की जॉब्स कहां निकल रही हैं और कैसे आप उन तक पहुंच सकते हैं?

हिंदुस्तान जॉब्स, रोजगार की आपकी इसी तलाश को पूरा करता है। हिंदुस्तान जॉब्स का 15 मई का अंक आपके लिए ला रहा है, आपकी रुचियों के अनुसार भरपूर नौकरियां। प्रोफेसर, डॉक्टर, इंजीनियर, तकनीशियन, मैनेजर, वैज्ञानिकों के लिए तो हिंदुस्तान जॉब्स में नौकरियां हैं ही, ऐसे युवाओं के लिए भी नौकरियां हैं, जिन्होंने महज 12वीं कक्षा तक की पढ़ाई की है। यानी हिंदुस्तान जॉब्स हर तरह के शहरी, ग्रामीण, छोटे शहरों में रहने वाले युवाओं को नौकरियों के अवसर मुहैया कराने का वादा करता है।

मसलन नॉर्थ मालाबार ग्रामीण बैंक को चाहिए 100 अधिकारी, आईआईटी, इंदौर में 88 पदों पर होनी हैं भर्तियां, कर्मचारी राज्य बीमा अस्पताल में रखे जाने हैं 90 सीनियर रेजिडेंट डॉक्टर और विशेषज्ञ, कोल इंडिया लिमिटेड में होगी 1000 से ज्यादा मैनेजमेंट ट्रेनीज की भर्ती जैसे जॉब्स के अवसर इस बार के अंक में आपको मिलेंगे। इसके अलावा भारत तिब्बत सीमा पुलिस बल में लगभग 700 हेड कांस्टेबल और कांस्टेबलों की नौकरियां भी हैं। भारतीय वायु सेना और भारतीय नौसेना में नौकरियों के अवसर भी आप हिंदुस्तान जॉब्स के इसी अंक में पाएंगे।

सुनने में थोड़ा अजीब लगता है, लेकिन सच है। भारतीय वायु सेना ने ही रोजगार को लोगों तक पहुंचाने का एक नायाब तरीका निकाला है। वह13-18 जून के बीच 12वीं पास युवाओं को रैली के जरिये नौकरियां देगी। पश्चिम बंगाल के अलग-अलग जिलों में ये रोजगार रैली निकाली जाएगी। इसमें शामिल होने के लिए 12वीं पास की योग्यता के अलावा और भी कुछ जरूरी चीजें हैं, जो उम्मीदवारों को चाहिए। उसके लिए आपको देखना होगा हिंदुस्तान जॉब्स।

नौकरियों के अवसरों की सूचना देने का यह सिलसिला यहीं तक सीमित नहीं है। हिंदुस्तान जॉब्स में ही जॉब्स गाइड के जरिए आप देश में निकली तमाम नौकरियों की सूचनाओं तक अपनी पहुंच बना सकेंगे। सूचनाओं की यही उपलब्धता आपके उस मंजिल तक पहुंचने के सपने का साकार करने में मील का पत्थर साबित होगी।

कुल मिला कर, आपको रहना होगा सतर्क और रखनी होगी पैनी निगाह रोजगार के हर अवसरों पर। और, आपकी इस मुश्किल को आसान करने के लिए ही आपके पास है रोजगार जॉब्स।

Saturday, May 14, 2011

जमाना टीवी शॉपिंग का है

सुधांशु गुप्त
बाजार से इनसान का रिश्ता लगभग उतना ही पुराना है, जितना भूख से इनसान का रिश्ता। सदियों से बाजार इनसान की जरूरात की चीजें इनसान को पहुंचाने का काम करता रहा है। और इनसान के लिए भी बाजार अपनी जरूरत की चीजों को बेचने वाली एक शक्ति के रूप में ही मौजूद रहा। लेकिन वक्त, समाज और तकनालॉजी एक ओर जहां बाजार का बेहद विस्तार किया, वहीं इनसान के भूख से रिश्ते में भी अहम बदलाव पैदा किये। आज इनसान केवल वही सामान नहीं खरीदता जो उसकी जरूरत का है, बल्कि बाजार के दबाव में वह तमाम ऐसी चीजें भी खरीदता है, जो उसका जरूरत की नहीं हैं या तात्कालिक जरूरत की नहीं हैं। कम से कम पिछले डेढ़ दो दशकों में, भारत में बाजार का इतना तेजी से विकास हुआ है कि आज बाजार की उपेक्षा करना संभव नहीं है। यह बाजार की ही ताकत का परिणाम है कि उसने शॉपिंग को इनसान की जीवन शैली का एक जरूरी हिस्सा बना दिया है। आज शॉपिंग इनसान के लिए लगभग वैसे ही जरूरी हो गयी है, जिस तरह घूमना-फिरना उसकी जरूरत है। डेढ़-दो दशक पहले का शॉपिंग का परिदृश्य देखें तो हमें छोटे शहरों, कस्बों और गांवों में लगने वाले साप्ताहिक बाजार दिखाई पड़ेंगे, जिनका इंतजार निम्न मध्यवर्ग और निम्न वर्ग के लोग बेसब्री से किया करते थे। सोम, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि और इतवार बाजार प्रतिदिन लगा करते थे और हर दिन के बाजार की अलग प्रकृŸिा होती थी। ऐसा नहीं है कि ये बाजार लगने एकदम बंद हो गये हैं। हां, इनके आकर्षण में जरूर कमी आई है। अब इन बाजारों की जगह बड़े और भव्य शॉपिंग मॉल लेते जा रहे हैं, जहां खरीदारी के सामान के साथ ही मनोरंजन का भी सारा सामान उपलब्ध होता है। बेशक यहां चीजें तुलनात्मक रूप से महंगी होती हैं, लेकिन इसके बावजूद भारतीय मध्यवर्ग को मॉल्स की अवधारणा पसंद आयी। लेकिन दिलचस्प बात है कि मॉल्स में खरीदारी के आंकड़े कभी भी बहुत सकारात्मक नहीं रहे। लोग वहां जाते तो हैं, लेकिन शॉपिंग उनकी प्राथमिकता नहीं होती। वहां वे तफरीह के लिए जाना ज्यादा पसंद करते हैं।
लेकिन शॉपिंग का एक खास फंडा यह था कि उसके इनसान को तैयार होकर बाजार तक जाना पड़ता था। बाजार इस पर लगातार सोच रहा था। वह सोच रहा था कि कि तरह इनसान के बैडरूम तक पहुंचा जाए। यानी किस तरह व्यक्ति अपने घर से बाहर निकले बगैर ही शॉपिंग कर सके। और इस अवधारणा को अमली जामा पहनाया टेलिफोन और इंटरनेट ने। इनके आने से शुरू हुआ टेली-शॉपिंग और ऑनलाइन शॉपिंग का सिलसिला। अब लोगों के लिए यह जरूरी नहीं रह गया कि वे शॉपिंग करने के लिए तैयार होकर बाहर जाएं। अब वे टेलीफोन पर या ऑनलाइन ही चीजों का ऑर्डर करने लगे। पर इसमें एक दिक्कत आई और अब भी आ रही है। इस तरह की शॉपिंग में माल बेचने वाला और माल दोनों अदृश्य थे। तो उपभोक्ता इस तरह की शॉपिंग पर बहुत ज्यादा भरोसा नहीं कर पाये। एक दिक्कत यह भी थी कि आज भी बड़ी संख्या में भारतीय जनसंख्या नेट सेवी नहीं है। तो शॉपिंग की यह अवधारणाएं भी, चलते रहने के बावजूद बहुत ज्यादा सफल नहीं हो पाईं। इस बीच टेलीविजन की पहुंच बेहद बढ़ चुकी थी। लगभग हर घर में टीवी पहुंच चुका था। और आम दर्शक टीवी पर भरोसा करने लगा था। तो बाजार ने इसी टेलीविजन के जरिये लोगों के घर तक पहुंचने की सोची और बाजार में एक नयी अवधारणा आई-टीवी शॉपिंग। इसके मूल में यही था कि व्यक्ति जब चाहे शॉपिंग कर सके। टीवी शॉपिंग की इसी अवधारणा ने लगभग 14 माह पहले होम शॉप-18 नामक 24 घंटे के चैनल को जन्म दिया। इसमें तमाम तरह के उत्पादों को लेकर इनोवेटिव किस्म के प्रोग्राम बनाये गये, ताकि उपभोक्ताओं को उत्पादों के बारे में महीन से महीन जानकारी दी जा सके। होम शॉप-18 के मुख्य कार्यकारी संदीप मल्होत्रा कहते हैं, हमारा मकसद था लोगों में शॉपिंग की हैबिट विकसित करना और उन्हें सिखाना कि आत्मविश्वास के साथ शॉपिंग कैसे की जा सकती है। संदी मल्होत्रा बताते हैं, चैनल शुरू करते समय हमारे जेहन में यही था कि हमारे पास छोटे शहरों से ज्यादा ऑर्डर आएंगे क्योंकि वहां ब्रांडेड प्रोडक्ट्स की उपलब्धता नहीं होती। लेकिन आश्चर्यजनक रूप से हमारे पास भारत के तमाम बड़े शहरों से ऑर्डर आ रहे हैं।
टीवी शॉपिंग का क्रेज भारत में कितनी तेजी से फैल रहा है, इसका अंदाजा होम शॉप-18 द्वारा उपलब्ध कराये गये आंकड़ों से लगाया जा सकता है। जब यह चैनल शुरू हुआ तो इनकी प्रतिदिन सेल पांच लाख रुपए थी, जो आज बढ़कर एक करोड़ रुपए प्रतिदिन हो गयी है। पहले इनके पास पांच सौ कॉल प्रतिदिन आती थीं, आज 20, हजार कॉल प्रतिदिन आ रही हैं। पहले इनके पास महज पांच ब्रांडेड आयटम थे, आज 19 हजार ब्रांडेड आयटम हैं। पहले भारत के 450 शहरों के लोग टीवी के जरिये शॉपिंग कर रहे थे, आज 2700 शहरों के लोग टीवी शॉपिंग में रुचि ले रहे हैं। यानी टीवी शॉपिंग मंे लोगों की रुचि लगातार बढ़ रही है। सवाल उठता है क्यों ? संदीप मल्होत्रा इसके ये कारण बताते हैंः हम मैन्यूफैक्चरर से प्रोडक्ट लेकर सीधा ग्राहकों तक पहुंचाते हैं। यानी मैन्यूफैक्चरर और उपभोक्ता के बीच के सारे मिडिलमैन खत्म। इससे उपभोक्ताओं को सस्ता माल मिलता है। दूसरा कारण, टीवी ही एकमात्र ऐसा जरिया है, जहां ग्राहक खरीदे जाने वाले प्रोडक्ट का डेमोन्स्ट्ेशन देख सकते हैं। हम अपने शोज में हर प्रोडक्ट के सारे फीचर बताते हैं, जो सामान्य शॉपकीपर तक नहीं बताते। एक तरह से हम लोगों में कंज्यूमर अवेरनेस भी पैदा कर रहे हैं। शायद यही वजह है कि लोग इस पर भरोसा करने लगे हैं। संदीप मल्होत्रा एक और खास बात की ओर इशार करते हैं। वह कहते हैं, भारतीय महिलाएं अमूमन जूलरी को पहन कर देखने के बाद ही खरीदती रही हैं। लेकिन टीवी शॉपिंग ने पहली बार यह संभव कर दिखाया है कि महिलाएं टीवी पर देख कर जूलरी खरीद रही हैं।
अगर होम शॉप-18 के दावों और आंकड़ों को सही माना जाए तो कहा जा सकता है कि भविष्य टीवी शॉपिंग का है। इसकी एक और वजह यह भी है कि टीवी के जरिये बाजार आपके अपने घर मंे घुस आया है, आप जब चाहें यहां से सामान खरीद सकते हैं। जहां तक इस तरह की शॉपिंग पर भरोसे की बात है तो वह भी देर-सवेर हो ही जाएगा और तब बाजार और इनसान का रिश्ता निश्चित ही एक नया रूप ले लेगा।

काश जिंदगी के कुछ साल दोबारा जीने को मिल जाते

सुधांशु गुप्त
लगभग दस साल पहले मैंने कंप्यूटर पर काम सीखना शुरू किया था। दो-तीन दिन के अभ्यास के बाद मैं अपनी स्टोरी खुद कंप्यूटर पर टाइप करना सीख गया। साथ ही मैं काफी सारी कमांड से भी वाकिफ हो चुका था। एक दिन मैंने एक स्टोरी की और किसी गलत कमांड देने से वह स्टोरी उड़ गयी। मैं एकदम घबरा गया। लेकिन मेरे एक मित्र ने मुझे बताया कि कट्ोल जैड (एक कमांड) करने से गायब हो गयी स्टोरी वापस आ जाती है। उसने कंप्यूटर पर यह कमांड दी और वह स्टोरी वापस आ गयी। यकीन जानिए मुझे बेहद खुशी हुई। मुझे लगा कि यही एक ऐसी कमांड है, जिससे खो गयी, गुजर गयी चीजों को वापस लाया जा सकता है। तब से मुझे कंप्यूर कंप्यूटर की यही कमांड सबसे ज्यादा प्रिय है। इस कमांड के बारे में मैं अक्सर सोचता हूं कि काश, जिंदगी में भी कोई ऐसी कमांड होती, जिससे गुजर गये डेढ़ दो दशकों को वापस लाया जा सकता। इसलिए कि इन गुजरे दशकों में बहुत कुछ ऐसा हुआ, जो तब हमारे लिए मौजूद नहीं था। दूसरे शब्दों में कहें तो कह सकते हैं कि इन गुजरे दशकों में जिस तेजी से दुिनया में तकनीकी विकास हुए उसका हम अपने विकास में इस्तेमाल नहीं कर पाये। और दिलचस्प बात है कि मैं ही नहीं, चालीस से ऊपर की उम्र के अधिकांश लोगों को यही लगता है कि या तो उनका जन्म डेढ़ दो दशकों बाद हुआ होता या फिर यह सारा विकास उस समय हो गया होता, जब हम किशोर थे, युवा थे।
सुधीर मिश्रा की उम्र 45 साल है और वह मीडिया से जुड़े है। वह अक्सर दुखी से होते हुए कहते हैं, यार हम लोग बड़े गलत समय पर पैदा हुए। काश हम लोग दस बीस साल बाद पैदा होते, तो जिंदगी में बहुत कुछ देख सकते थे। जब हम बड़े और युवा हो रहे थे, तो ना कंप्यूटर था, ना मोबाइल, ना, टेलीविजन का ही इतना विस्तार हुआ था और ना ही उस समय का समाज इतना उदार था। सुधीर मिश्रा अकेले ऐसे शख्स नहीं है। चालीस से ऊपर की उम्र के अधिकांश ऐसे लोग आपको मिल जाएंगे, जिनकी तकलीफ यही है।
वास्तव में ये ठहर सी गयी उम्र के लोग युवाओं की तरह जिंदगी जीना चाहते हैं। इन्हें लगता है कि ये भी अपनी प्रेयसी को एसएमएस भेजें, बिंदास भाव से उनके साथ मैट्ो स्टेशन पर घूमें, मॉल जाएं, सिनेमा देखें और वह सब कुछ करें जो वे अपनी उम्र में करना चाहते थे, लेकिन सुविधाएं ना होने के कारण, माहौल ना होने के कारण नहीं कर पाये।
बात सिर्फ जिंदगी को एन्ज्वॉय करने की ही नहीं है। 48 वर्षीय जगमोहन उनियाल कहते हैं, मैं उस समय बेहद अच्छा गाना गाता था। लेकिन मुझे कोई ऐसा माध्यम नहीं दिखाई पड़ता था, जहां सिंगिंग की मेरी प्रतिभा आकार ले सके। इसलिए बाथरूम में गाते-गाते ही मैं बुढ़ापे की ओर अग्रसर हो गया। काश उस समय भी इतने टेलेंट हंट प्रोग्राम होते तो मैं भी आज अच्छा सिंगर होता।
आखिर पिछले डेढ़ दशकों में हमारी दुनिया कितनी बदल गयी है, जिनका लाभ 40 की उम्र से ऊपर की पीढ़ी नहीं उठा पाई? 90 के दशक से शुरू हुआ उदारवाद आज वैश्विक रूप ले चुका है। आज चीजों को वैश्विक अंदाज में सोचने की प्रक्रिया चल रही है। कंप्यूटर, मोबाइल, बहुराष्ट्ीय कंपनियां, निजी चैनल, मॉल्स की छोटे शहरों में भी बाढ़ सी आ गयी है।
यही नहीं, इस दौरान हमारे मूल्य भी इतनी तेजी से बदले हैं कि हम खुद इस बदलाव पर चकित हैं। पहले जहां प्रेम के इजहार में सालों लग जाते थे, वहीं अब लड़के और लड़कियां भी बिना वक्त गंवाएं प्रेम की स्वीकारोक्ति कर लेते हैं। जब तक रिश्ता चला ठीक, वरना दूसरा घर देखो। प्रेम की जो काल्पनिक दुनिया थी वह अब ठोस जमीन अख्तियार कर चुकी है। लिहाजा 40 से ऊपर के लोगों को लगता है कि क्यों ना वे इस दौर में पैदा हुए?
लेकिन क्या सचमुच पुराने दौर मंे, अपनी उसी उम्र के साथ लौटना संभव है, जो गुजर चुकी है? समाजशास्त्री कहते हैं कि वक्त कभी लौट कर नहीं आता, लेकिन हर दौर में हर व्यक्ति को यह लगता है कि काश, उसका कुछ गुजरा हुआ समय वापस आ जाए, ताकि वह उसे और बेहतर ढंग से जी सके। और यह भी सच है कि किसी भी समाज में तकनालॉजी के स्तर पर ही नहीं, बल्कि हर स्तर पर बदलाव और विकास होता रहता है। यह बदलाव भविष्य की पीढ़ियों के लिए होता है। और वृद्धावस्था की ओर कदम बढ़ा रहे लोगों को यही लगता है कि वे कुछ और युवा होते तो इस विकास का बेहतर ढंग से इस्तेमाल कर सकते थे। इसलिए बेहतर यही है कि अपनी वर्तमान उम्र को अपने वर्तमान स्वरूप में ही जिया जाए। क्योंकि यदि आप यही सोचते रहेंगे कि आप कुछ साल पहले पैदा होते या कुछ और युवा होते, तो यकीन जानिए कि आप उम्र के दस साल और गुजर जाने के बाद इस बात का भी अफसोस करते दिखाई पड़ेंगे कि आपने समाज में हुए इन बदलावों का सही इस्तेमाल नहीं किया। क्योंकि चालीस से पचास के बीच की उम्र भी आपको कुछ भी सीखने से नहीं रोकती और अपने आसपास आपको तमाम ऐसे लोग मिल जाएंगे, इसी उम्र में नयी तकनीक से वाकिफ हो रहे हैं और बाजार में अच्छा काम कर रहे हैं।
आप भी खुद को फिट रख सकते हैं, म्यूजिक और डांस मंे रुचि ले सकते हैं और अपना मेकओवर कराकर खुद को युवा (बेशक बाहरी स्तर पर रही सही) बनाए रख सकते हैं। और जहां तक रूमानियत का सवाल है तो आप अपने बच्चों और अन्य युवाओं को देखकर इस बात पर खुश हो सकते हैं कि जो आपको अपनी उम्र में नहीं मिला वह नयी पीढ़ी को मिल रहा है।
आज मुझे कंप्यूटर पर काम करते हुए दस साल हो गये हैं और अब मैं समझ गया हूं कि कंट्ोल जैड कमांड का इस्तेमाल केवल तभी हो सकता है, जब तक आप कोई और कमांड ना दें। और हम सब जानते हैं कि जिंदगी में हम गुजरे हुए सालों के बाद भी बहुत सारी कमांड दे चुके हैं।...तो गुजरा हुआ जमाना आता नहीं दोबारा। कंप्यूटर भी यही सिखाता है कि यदि कोई स्टोरी उड़ गयी है, तो आप उसे दोबारा लिख लें। और जिंदगी भी यही सिखाती है कि पुरानी इबारतों के मोह में ना पड़कर हमें अपनी जिंदगी की स्लेट पर नयी इबारत लिखनी चाहिए।

इस जीवन शैली में,कहां है किताब के लिए जगह

-सुधांशु गुप्त
हर शहर की अपनी गति होती है। छोटे शहर की कम, मझले शहर की उससे थोड़ी ज्यादा और महानगर की बहुत तेज। और हर जगह सब कुछ शहर की गति के अनुसार ही चलता है-जीवन भी। राजधानी दिल्ली एक बड़ा महानगर है। यहां हर चीज की एक स्पीड है। अगर आप उससे कम गति से चलेंगे तो आप शहर में बने नहीं रह पायेंगे। लिहाजा हर इंसान अपने शहर की गति से ही चलने के लिए अभिशप्त होता है। दिल्लीवासी भी अब इस गति के इतने आदी हो चुके हैं कि उसमें किसी तरह का अवरोध उन्हें पसंद नहीं आता। लोग सुबह सोकर उठते हैं तो उनके पास, उनके अवचेतन में पूरे दिन के काम की सूची होती है-एक अलिखित सूची। जिसे वे मशीनी अंदाज में पूरा करते हैं। पहले मॉर्निंग वॉक, अखबार पढ़ना (अक्सर देखना), नित्यकर्म से निवृŸा होना और फिर इसी भागमभाग में ऑफिस के लिए रवाना होना। ऑफिस में तो ऑफिस है ही। इसके बाद उसी तरह घर वापसी...फिर टेलीविजन पर देर रात तक आर्टिफिशयल सच का सामना। और इन सब कामों को करते हुए आपका मोबाइल है, जो हर समय बज-बज कर मानो आपके अस्तित्व के होने का प्रमाण देता रहता है। आप चाहकर भी मोबाइल की उपेक्षा नहीं कर सकते ! अब बताइये इस जीवन शैली में किताबों के लिए स्पेस है कहां?
लेकिन शायद इसी स्पेस को तलाशने के लिए और पाठकों के रीडिंग हैबिट करने के लिए (कम से कम कहा तो यही जाता है) दिल्ली के प्रगति मैदान में पुस्तक मेले का आयोजन हो रहा है। यह पंद्रहवां पुस्तक मेला बताता है कि दिल्ली सरकार पिछले पंद्रह सालों से हर साल इस मेले का आयोजन करा रही है। मेले के उद्घाटन की औपचारिकता को पूरा करने के लिए कारपोरेट और अल्पसंख्यक मामलों के राज्यमंत्र सलमान खुर्शीद पहुंचे और उन्होंने किताबों और पुस्तक मेलों के बारे में ढेर सारी अच्छी-अच्छी बातें बताईं। उन्होंने कहा कि कि इस तरह के मेलों का आयोजन समाज के बौद्धिक विकास के लिए जरूरी है। उन्होंने यह भी कहा कि किताबें ही बच्चों की सोच और उनका नजरिया तय करती हैं और उन्हें जीवन में आगे बढ़ाने की दिशा तय करती है।
शनिवार (29 सितंबर) पुस्तक मेले का पहला दिन था और लोग रता-रता वहां पहुंच रहे थे। एक आशंका यह भी थी कि शनिवार होने की वजह से वहां भीड़ ज्यादा होगी। लेकिन टिकट खिड़की एकदम खाली थी। कोई इक्का दुक्का व्यक्ति ही टिकट लेता नजर आया। शायद राजधानी में किसी भी चीज के लिए टिकट विंडो के बाहर लगने वाली लाइनों में यही एक ऐसी टिकट विंडो थीं, जहां काफी-काफी देर बात इक्का दुक्का लोग आ रहे थे। इस तरह यह टिकट लेने वालों के लिए काफी राहत की बात थी।
हॉल नंबर 8 से 12 ए तक किताबों की एक ऐसी विशाल दुनिया यहां बिखरी पड़ी थी कि देखने वाला देखता ही रहा जाए। उŸार पूर्वी राज्यों की थीम पर आधारित इस पुस्तक मेले में अमेरिका, चीन, पाकिस्तान, यूएई और ईरान के प्रकाशक भी शामिल थे। यहां विदेशी और भारतीय प्रकाशकों के स्टॉल्स पर घूमते हुए और किताबों पर एक नजर डालते हुए यह साफ महसूस हो रहा था कि किताबों की दुनिया में कंटेंट के स्तर पर ही नहीं, बल्कि प्रकाशन की गुणवŸाा और तकनीक के स्तर पर बेतहाशा बदलाव आए हैं और अब किताबें पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा आकर्षक और खूबसूरत ढंग से छप रही हैं। मेले में यूं तो हर उम्र के लोग दिखाई दिये लेकिन अधिसंख्या में युवाओं को देखकर अच्छा लगा और यह और भी अच्छा लगा कि लोग (खासकर युवा) जे कृष्णामूर्ति फाउंडेशन के स्टॉल पर भी अच्छी खासी संख्या में नजर आए। गौरतलब है कि भारत के जे कृष्णमूर्ति एक ऐसे दार्शनिक हैं, जिन्होंने जीवन और मृत्यु से जुड़े सवालों पर लोगों से संवाद कायम किया है और इन सवालों के उŸार तलाशने की कोशिश की है। तो क्या आज का युवा भी इन्हीं प्रश्नों से जूझ रहा है ?
साहित्यिक कृतियों के अलावा जिस तरह की पुस्तकों के स्टॉल्स पर लोग अधिसंख्या में दिखाई दिए उनमें पर्सेनेलिटी डेवलपमेंट, करियर, राजनीति, हिंदी साहित्य का इतिहास, एस्ट्ोलॉजी, बायोग्राफीस और बच्चों के लिए पुस्तकें थीं। और उन स्थानों पर तो भीड़ होना लाजिमी ही था, जिनके द्वारा छापी गईं किताबें किन्हीं भी कारणों से विवादास्पद हो गईं हैं। इनमें राजपाल एंड संस द्वारा प्रकाशित-जिन्ना भारत पाक विभाजन के आईने मंे प्रमुख रही। जसवंत सिंह द्वारा लिखित इस किताब को लोग आश्चर्य से देख रहे थे और यह जानने की कोशिश कर रहे थे कि क्या कोई किताब जसवंत सिंह जैसे व्यक्ति को पार्टी से निकलवा सकती है।
युवाओं खासकर लड़कियों के पसंदीदा लेखक के रूप में चेतन भगत का नाम एक फिर सामने आया, क्योंकि लड़कियां उनकी पहले से ही प्रचारित और पसंदीदा उपन्यासों-थ्री मिस्टेक्स ऑफ माई लाइफ, वन नाइट एट कॉल सेंटर और पाइव पाइंट समथिंग के प्रति आकर्षित दिखाई दे रही थीं। दिलचस्प बात यह दिखाई दी कि युवाओं में भी प्रेमचंद के प्रति खासा आकर्षण है और यही बात यह सोचने लिए प्रेरित कर रही थी कि क्या हम हिंदी में प्रेमचंद के बाद कोई ऐसा साहित्यकार नहीं तैयार कर पाये जो हमारे आज के दौर को पोटर््े करे और युवाओं का प्रिय लेखक बन सके।
यह पुस्तक मेला छह सितंबर तक चलेगा और थोड़ी बहुत चहल पहन बनी ही रहेगी। उसके बाद फिर हम सब अपने-अपने शहर की गति के हिसाब से जीवन चलाने लगेंगे। और मूल प्रश्न वहीं खड़ा होगा कि हमारी इस जीवन शैली ने किताबों के लिए स्पेस कहां छोड़ा है?

Sunday, May 8, 2011

महिला प्रधान धारावाहिक बदल रहे हैं समाज की सोच


वैलकम विंटर थोड़ा सा रूमानी हो जाए


छोटे परदे पर बदल गया है खलनायिकाओं का चेहरा


आहत होते अतिथि


खुद वर चुनने की आजादी स्वंयवर


सुरक्षा, सशक्तिकरण और महिलाएं


ये भी है सुरक्षा का तरीका


शादियों का मौसम और बदलते रूझान


अब राम रसोई नहीं रही त्योहारों की धुरी


रक्षाबंधन यूं भी तो हो सकता है


मैं अभिनय में जीवन डालने की कोशिश करता हूं:पंकज झा


फिल्मों की नई संहिता


फिल्म प्रमोशन के नए फंडे


ग्लोबल है अम्माजी का चरित्र


जब पति करें पत्नी से बलात्कार


खतरों की नई खिलाड़ी मंदिरा


मंदी,मंद न होने दें जीवन की रफ्तार


मां दा लाडला संवर गया









मैड है बच्चे मैड के लिए


शर्म क्यों मगर हमें नहीं आती