Wednesday, June 16, 2010

थैंक यू मोबाइल! तुमने हमें आजादी दी


पिछले कुछ सालों में ऐसी महिलाओं की संख्या तेजी से बढ़ी है, जो मोबाइल का इस्तेमाल कर रही हैं। और तमाम अध्ययन यह साबित कर रहे हैं कि महिलाओं की पहुंच में मोबाइल आने से महिला सशक्तिकरण को एक नई दिशा मिली है। यदि मोबाइल महिला सशक्तिकरण की गति को बढ़ा रहा है तो क्यों नहीं सरकार को इस दिशा में सोचना चाहिए कि महिलाओं को मुफ्त में या सस्ती कीमतों पर मोबाइल उपलब्ध कराया जाए। एक छोटा सा उपकरण कैसे महिलाओं को विकास के अवसर उपलब्ध करा रहा है। एक रिपोर्ट
वीना (35 वर्षीया) पूर्वी दिल्ली के एक स्लम एरिया में रहती है। वह पास ही बने डीडीए फ्लैट्स में लोगों के घरों में काम करके अपना परिवार चलाती है। आज उसके पास कई घर हैं। वह एक घर से लगभग 500 रुपये लेती है। घर में काम करते समय वह आत्मविश्वास से लबरेज होती है। दिलचस्प रूप से पोछा लगाते समय जब उसका मोबाइल बजता है तो उसकी खुशी देखते ही बनती है। पिछले दो सालों से वह मोबाइल का इस्तेमाल कर रही है। वह कहती है, अब मुझे घर तलाश करने के लिए इधर-उधर भटकना नहीं पड़ता। मैं जिन घरों में काम करती हूं, उनके पास मेरा मोबाइल नंबर है। जब भी किसी को मुझे काम पर लगाना होता है, वह मुझे फोन कर लेता है। वह कहती है, मोबाइल ने मेरे काम पर भी असर डाला है।
वीना ऐसी अकेली महिला नहीं है। दिल्ली में ही तमाम ऐसी महिलाएं और लड़कियां हैं, जो मोबाइल के दम पर अपनी रोजी-रोटी कमा रही हैं। मामला चाहे ट्यूशन पढ़ाने का हो या पीको करने का, मोबाइल ने महिलाओं के काम को गति दी है और उन्हें आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाने में अहम भूमिका निभाई है।
कुछ समय पहले स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी द्वारा किए गए एक सर्वे की रिपोर्ट बताती है कि मोबाइल फोन्स महिलाओं को स्वायत्त बनाने और उन्हें सोशल सर्विस उपलब्ध कराने में अहम भूमिका निभा रहे हैं। भारत में काम कर रहे गैर-सरकारी संगठन जागोरी और ए लिटिल वर्ल्ड खास तौर पर इस बात को रेखांकित करते हैं कि मोबाइल तकनालॉजी महिलाओं को आर्थिक आजादी देने और उन्हें घरेलू हिंसा से लड़ने में एक हथियार की तरह काम कर रही है।
बढ़ रही हैं महिला उपभोक्ता
एक सर्वे की रिपोर्ट यह भी बताती है कि आज भारत में जितने शौचालय हैं, उनसे कहीं ज्यादा मोबाइल फोन्स हैं। मोबाइल उपभोक्ताओं की संख्या में पिछले सात सालों में बड़ी तेजी से वृद्धि हुई है। मार्च 2003 तक भारत में केवल एक करोड़ 30 लाख मोबाइल उपभोक्ता थे, जिनकी संख्या 2009 में बढ़कर 44 करोड़ हो गई। जिस गति से मोबाइल कंपनियां अपने पैर पसार रही हैं, उससे 2012 तक इनकी संख्या बढ़कर 74 करोड़ तक करने का लक्ष्य है। हालांकि सही-सही ऐसे आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं कि इनमें से महिला उपभोक्ताओं की संख्या कितनी है या होगी, लेकिन मोबाइल कंपनियों के आंकड़े बताते हैं कि महिला उपभोक्ताओं की संख्या लगभग तीस प्रतिशत है। एक अन्य अध्ययन बताता है कि पुरुषों और महिलाओं का अनुपात 12:5 का है। यानी यदि 12 पुरुषों के पास मोबाइल है तो पांच महिलाओं के पास मोबाइल हैं। ट्राई के आंकड़े बताते हैं कि सन् 2012 तक ग्रामीण इलाकों में 20 करोड़ टेलिफोन कनेक्शंस हो जाएंगे। इनमें 30 फीसदी महिला उपभोक्ता होंगी। जाहिर है आने वाले समय में मोबाइल कंपनियों का सहज टारगेट महिलाएं ही होंगी।
आर्थिक आजादी
संभवत: पिछले ढाई दशक में महिलाओं ने इतनी आर्थिक आजादी का सुख नहीं भोगा, जितनी आजादी उन्हें पिछले सात सालों में मोबाइल फोन उपभोक्ता बन कर मिली है। छोटे शहरों और ग्रामीण क्षेत्रों तक में महिलाएं मोबाइल फोन्स के जरिये इस आजादी को एंज्वॉय कर रही हैं। घरेलू उद्योग धंधों में लगी महिलाओं ने इसी मोबाइल के जरिये सीधी ग्राहक तक अपनी पहुंच बनायी है। कच्छ (गुजरात) के एक स्व-सहायता समूह चुनरी की शिल्पा कहती हैं, मोबाइल होने से अब यह पता करना बेहद आसान हो गया कि कौन-सा शिल्प मेला कहां लग रहा है। जैसे ही हमें इसकी सूचना मिलती है, हम मेले में जाने की तैयारी कर लेते हैं। वह कहती हैं, पहले हमारे मुनाफे का बहुत बड़ा हिस्सा बिचौलिये खा जाया करते थे, क्योंकि खरीदारों का शिल्पकारों से सीधा संपर्क नहीं था। लेकिन अब ऐसा नहीं है। अब हम हर प्रदर्शनी में अपना विजिटिंग कार्ड छोड़ देते हैं और ग्राहक सीधा हम से संपर्क करता है। शिल्पकार ही नहीं, तमाम छोटे-छोटे कामों से जुड़ी महिलाएं आज मोबाइल के जरिये अपने काम को बढ़ाने में लगी हैं।
घरेलू हिंसा से लड़ने में सहायक
मोबाइल किस तरह घरेलू हिंसा से लड़ने में मदद कर रहा है, इस बात की कल्पना मोबाइल होने से पहले नहीं की जा सकती था। दक्षिणी दिल्ली के मसूदपुर गांव की रहने वाली 30 वर्षीया मीना बताती हैं, मेरे पति मेरी रोज पिटाई किया करते थे। मैं जिस घर में काम करती हूं, एक रोज उसकी मालकिन ने मुझ पर तरस खाकर एक पुराना मोबाइल मुझे दे दिया। उसने मुझे कहा कि यदि वह कभी भी किसी समस्या में हो तो उसे फोन कर दूं। और मैंने ऐसा ही किया। मोबाइल आने से ऐसा नहीं है कि मेरी समस्याएं पूरी तरह खत्म हो गयी हैं, लेकिन इतना तय है कि कम अवश्य हुई हैं। अनेक रिपोर्ट्स यह भी बताती हैं कि घरेलू हिंसा से संबंधित हेल्पलाइन्स पर आने वाली फोन कॉल्स में से 50 फीसदी से अधिक मोबाइल के जरिये आ रही हैं। यानी महिलाएं घरेलू हिंसा से लड़ने में मोबाइल का भरपूर इस्तेमाल कर रही हैं।
बढ़ता आत्मविश्वास और संपर्क
अब जरा कल्पना कीजिए जब मोबाइल फोन्स नहीं थे तो महिलाएं घर से बाहर के कितने लोगों से संपर्क करती होंगी? जाहिर है उनके दायरे में आने वाले लोगों की संख्या नितांत सीमित थी। लेकिन मोबाइल ने समाज में उनकी कनेक्टिविटी बढ़ाई है और इसी बात ने उनमें आत्मविश्वास भी पैदा किया है। अब महिलाएं मोबाइल पर अपने रिश्तेदारों, अपनी महिला मित्रों के अलावा पुरुषों तक से बात करने की अभ्यस्त हो रही हैं। मोबाइल का एक और फायदा यह भी है कि उसका प्रयोग करने के लिए किसी भी तरह के ज्ञान की जरूरत नहीं पड़ती। यानी आप अपनी जुबान में ही सहज भाव से बात कर सकती हैं। आज ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाएं नेशनल ओल्ड एज पेंशन स्कीम और नेशनल रूरल एम्प्लॉयमेंट गारंटी स्कीम लागू करवाने में मोबाइल का इस्तेमाल कर रही हैं। महिलाओं के पक्ष में एक मनोवैज्ञानिक तथ्य यह भी जाता है कि मोबाइल पर बात करते समय व्यक्ति सामने नहीं होता, इसलिए महिलाएं ज्यादा आत्मविश्वास से बात कर पाती हैं।
छेड़छाड़ रोकने में भी सहायक
राजधानी दिल्ली में ही महिलाओं के साथ होने वाले अपराध निरंतर बढ़ रहे हैं। ऐसे में युवा लड़कियों के पास मोबाइल होना ही मां-बाप को कुछ हद तक निश्चित करता है। रात में वापस घर लौटने वाली लड़कियां पूरे रास्ते मोबाइल के जरिये अपने परिजनों के संपर्क में बनी रहती हैं। किसी भी अनिष्ट की आशंका होते ही वे घरवालों को सूचित कर सकती हैं। कई बार इस तरह की घटनाएं भी देखने में आई हैं, जब कोई मनचला किसी लड़की को छेड़ रहा है और लड़की ने मोबाइल से तुरंत पुलिस बुला ली। समय पर लड़की की मदद हो गई और वह किसी भी बदतमीजी का शिकार होने से बच गई।
अकेलेपन का भी है साथी
छोटे शहरों और महानगरों में कई बार ऐसी स्थितियां आती हैं, जब वृद्ध महिला को अकेले रहना पड़ता है। उनका बेटा बेशक पास के ही किसी अन्य मकान में रह रहा हो, लेकिन मां नितांत अकेली होती है। ऐसे में मोबाइल का ही सहारा होता है। जब तक दिन में बेटे और बहू का एक-दो बार फोन न आ जाए तब तक मां को चैन नहीं पड़ता। बेटा भी इस बात से निश्चिंत रहता है कि उसे बार-बार मां के बारे में चिंता नहीं करनी पड़ती। लिहाजा मोबाइल दोनों के बीच सेतु का काम करता है। यही नहीं, वृद्ध महिलाएं जो अपने दूर रहने वाले परिजनों के पास जा पाने में खुद को असमर्थ पाती हैं, वे फोन के जरिये ही उनसे संपर्क बनाये रखती हैं। यानी कहा जा सकता है कि मोबाइल जिस तरह युवा लड़कियों के अकेलेपन को दूर करता है, उसी तरह वृद्ध महिलाओं का भी अकेलेपन का साथी है।
जाहिर है मोबाइल क्रांति ने देश की इस आधी आबादी को सशक्तिकरण की राह दिखाई है। ऐसे में सरकार की ओर से इस तरह की कोई पहल अवश्य होनी चाहिए, जिसमें महिलाओं को सस्ती कीमतों पर या मुफ्त में मोबाइल फोन्स मिल सकें। मोबाइल कंपनियों को भी इस दिशा में सोचना चाहिए, खासतौर पर तब जब आने वाले समय में मोबाइल कंपनियों का सबसे बड़ा टारगेट महिलाएं ही हैं। अगर ऐसा होता है तो सही अर्थो में मोबाइल क्रांति ग्रामीण महिलाओं तक पहुंच पायेगी और महिलाएं विकास की सड़क पर तेजी से दौड़ पायेंगी।
प्रस्तुति
: सुधांशु

तलाक कानून में संशोधन पर लगी मुहर, आसान हुई अलग होने की राह


कैबिनेट ने पिछले दिनों तलाक के इच्छुक लोगों की राह आसान करते हुए तलाक के लिए पहले से मौजूद नौ आधारों में एक और आधार जोड़ दिया है। लिहाजा अब तलाक चाहने वालों को केवल यह साबित करना होगा कि वे वर्षों से अपने साथी से अलग रह रहे हैं और उनका एक-दूसरे से कोई संबंध नहीं रह गया है। ऐसा भी माना जा रहा है कि अब तलाक मिलने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा। कुछ कानूनविदों का यह भी मानना है कि इससे बेशक जबरदस्ती के रिश्तों को ढोना नहीं पड़ेगा और इसका पति-पत्नी दोनों को ही फायदा होगा। सुधांशु गुप्त की रिपोर्ट।
नवीन कोहली और नीलू का विवाह 1975 में हुआ था। विवाह के बाद इनके तीन बच्चे हुए। नवीन तीन फैक्ट्रियों के मालिक हैं। 1994 में नवीन ने कानपुर की फैमिली कोर्ट में नीलू पर मानसिक, शारीरिक, आर्थिक उत्पीड़न के आरोप लगाते हुए तलाक का मामला दर्ज कर दिया। नवीन ने अपनी पत्नी पर खराब व्यवहार, झगड़ालू होने और किसी अन्य पुरुष से उसके रिश्ते होने के भी आरोप लगाये। जाहिर है पत्नी ने इन सब आरोपों का खंडन किया और कमोबेश ऐसे ही आरोप पति पर लगाये। अदालत ने यह महसूस किया कि दोनों के बीच रिश्ते को बचाने की सारी कोशिशें नाकाम हो चुकी हैं, इसलिए इन दोनों को अलग रहने की इजाजत दे दी जाए। लिहाजा अदालत ने इन दोनों के विवाह को भंग करते हुए नवीन से अदालत में 25 लाख रुपये जमा कराने के लिए कहा। नवीन ने दो दिन में यह राशि जमा करा दी। लेकिन कहानी यहीं खत्म नहीं हुई। नीलू ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में अपील की। बाद में यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा। यह एक ऐसा मामला था, जिसमें दोनों के रिश्ते खत्म हो चुके थे, लेकिन इसके बावजूद एक पक्ष दूसरे को परेशान करने के लिए, तलाक को मंजूर करने के लिए राजी नहीं था। भारत में ऐसे कई मामले होते हैं।
नवीन बनाम नीलू के अलावा जॉर्डन डाइंगडेह बनाम एसएस चोपड़ा और समर घोष बनाम जया घोष जैसे मामलों को आधार बना कर पिछले दिनों कैबिनेट ने 'इर्रिटीवेबल ब्रेकडाउन ऑफ मैरिज' यानी संबंधों में ऐसा बिगाड़, जिसमें समझौजे की कोई उम्मीद ना रह गयी हो, पर मुहर लगा दी। इस तरह तलाक के 9 मौजूद आधारों में एक और आधार जुड़ने का रास्ता साफ हो गया। अब तक तलाक के जो 9 आधार हैं, वे हैं: व्याभिचार, क्रूरता, परित्याग, धर्म परविर्तन, पागलपन, कुष्ठरोग, छूत की बीमारी वाले यौन रोग, संन्यास और सात साल से जीवित होने की खबर न होना।
भारत दुनिया के उन देशों में है, जहां आज भी तलाक दर बहुत कम है। अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशों में जहां लगभग 50 फीसदी तलाक होते हैं, वहीं भारत में प्रति 1000 वैवाहिक संबंधों में से महज 11 पति-पत्नी का रिश्ता ही तलाक की परिणति तक पहुंचता है। यानी आज भी भारतीय समाज का दांपत्य में यकीन बना हुआ है। हालांकि भारत में भी तलाक के मामले लगातार बढ़ रहे हैं। तलाक के इस नये आधार का जोड़ा जाना तलाक की प्रक्रिया को आसान बनाने का ही रास्ता दिखाई देता है।
सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ अधिवक्ता रचना श्रीवास्तव कहती हैं, यह सच है कि कानून में संशोधन होने के बाद तलाक के मुकदमे बढ़ेंगे। खासकर इसलिए भी, क्योंकि उस स्थिति में तलाक महज डेढ़ साल में ही मिल जाएगा। उनका मानना है, लोग थोड़े से मतभेदों और पारिवारिक कटुताओं को ही इस रूप में पेश करेंगे, मानो उनके बीच समझौते की उम्मीद खत्म हो गयी हो। संशोधन से महिलाओं के फायदे पर रचना कहती हैं, इससे केवल इतना होगा कि तलाक के मामले बढ़ सकते हैं और महानगरों की महिलाओं को तलाक के लिए ज्यादा परेशान नहीं होना पड़ेगा। हां, छोटे शहरों में रहने वाली महिलाओं को इसमें अवश्य दिक्कत हो सकती हैं।
वह बताती हैं, छोटे शहरों में पुरुष यह आसानी से साबित कर सकता है कि उसका अपनी पत्नी से पिछले काफी समय से कोई रिश्ता नहीं है और वे दोनों रिश्ते के उस मोड़ तक पहुंच चुके हैं, जहां से दोबारा संबंध नहीं बनाये जा सकते। ऐसे में पुरुषों को तलाक मिलना ज्यादा आसान हो जाएगा। वरिष्ठ अधिवक्ता अरविंद जैन इस पूरे मसले को अलग नजर से देखते हैं।
उनका मानना है कि बेशक इस संशोधन के बाद तलाक मिलना आसान हो जाएगा, लेकिन तलाक का मामला फाइल करने के बाद उस प्रावधान का क्या होगा, जिसके तहत पति-पत्नी को छह माह तक अलग रहने के लिए कहा जाता है। वह कहते हैं, तलाक कानून में अभी भी बहुत झोल हैं, इसलिए जरूरी है कि तलाक की इस पूरी व्यवस्था पर ही दोबारा से विचार किया जाना चाहिए, ताकि वकील अपने क्लाइंट को साफ-साफ बता सकें कि मामला क्या है और उसमें क्या-क्या संभावनाएं हैं।
इसके बावजूद अधिकांश कानूनविदों ने इस संशोधन का स्वागत ही किया है और महिला संगठन भी इसमें कोई खामी नहीं देख रहे हैं। वुमन पावर कनेक्ट की रंजना कुमारी कहती हैं, इस तरह के संशोधनों का स्वागत किया जाना चाहिए। इससे पति-पत्नी दोनों को ही कोर्ट के बेवजह चक्कर लगाने से मुक्ति मिलेगी। बहरहाल यह तो समय ही बतायेगा कि इस संशोधन का वास्तव में क्या असर पड़ेगा, लेकिन इतना तय लगता है कि इससे तलाक के मामलों वृद्धि अवश्य हो सकती है।
इटली में तलाक मेला
इटली दुनिया के उन शहरों में है, जहां कुछ साल पहले तक तलाक के मामले गिने-चुने ही देखने में आते थे। लेकिन पिछले कुछ सालों में वहां वैवाहिक संबंधों में काफी बदलाव आए हैं, जिसके परिणामस्वरूप वहां भी अमेरिका और ब्रिटेन की तर्ज पर तलाक के मामले बढ़ रहे हैं। आंकड़े बताते हैं कि इटली में भी अब लगभग एक चौथाई वैवाहिक संबंधों का अंत तलाक के रूप में होता है। इसी के मद्देनजर ही इटली में पिछले दिनों पहले तलाक मेले का आयोजन किया गया। आयोजक फ्रांको जेनेटी कहते हैं, इटली के परंपरागत निवासी तलाक के आदी नहीं रहे हैं, क्योंकि हमारे समाज में तलाक को नकारात्मक माना जाता है। लिहाजा इस मेले के जरिये हमारा मकसद तलाकशुदा लोगों में आत्मविश्वास और नयी ऊर्जा पैदा करना था, ताकि वे पूरे उत्साह से नया जीवन शुरू कर सकें। गौरतलब है कि ऑस्ट्रिया में दो साल पहले लगे तलाक मेले से प्रेरित होकर ही इटली में इस मेले का आयोजन किया गया। इसमें विभिन्न डेटिंग एजेंसियां भी मौजूद रहीं और उन्होंने तलाकशुदा लोगों को नये प्रेम संबंध विकसित करने के लिए अपनी सेवाएं दीं। साथ ही तलाक की पीड़ा से गुजर चुके या गुजर रहे लोगों को मानसिक सुकून देने के लिए स्पा थैरेपी और कला थैरेपी की भी व्यवस्था इस मेले में थी।
धारावाहिक भी बन रहे हैं तलाक की वजह
आज पति-पत्नी के बीच तलाक के कारणों में छोटा परदा भी जुड़ता जा रहा है। कई मामले ऐसे देखने में आए हैं, जिनमें टीवी ज्यादा देखने या पति द्वारा पत्नी को मनपसंद धारावाहिक ना देखने के कारण दोनों को तलाक के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाना पड़ा। पिछले दिनों महाराष्ट्र की एक अदालत ने एक पत्नी को धारावाहिक ना देखने देने को उत्पीड़न मानते हुए उसकी तलाक की अपील पर मुहर लगा दी। यह घटना पुणे शहर की है, जहां की स्थानीय अदालत के न्यायाधीश एमजी कुलकर्णी ने कहा कि फरवरी 2005 में पति-पत्नी के बीच झगड़े का कारण पत्नी का हिंदी धारावाहिक देखना था। पति अपनी पत्नी को उसके पसंदीदा धारावाहिक नहीं देखने देता था। इस दंपती की शादी आठ साल पहले हुई थी और पत्नी एकाउंटेंट और पति सॉफ्टवेयर इंजीनियर है। हालांकि पति ने अदालत के तलाक के फैसले के खिलाफ हाईकोर्ट में अपील की है और इसकी अगली सुनवाई 23 नवंबर को होनी है।
डेढ़ वर्ष में तलाक की डिक्री होगी हाथ में
यदि सब कुछ ठीक-ठाक चला तो तलाक लेने में अब ज्यादा समय नहीं लगेगा। तलाक के नए आधार ‘रिश्तों में ऐसी टूट, जिसे ठीक करना संभव न हो’ के कानून में शामिल होने के बाद यदि तलाक की अर्जी वापस लेने के छह माह के न्यूनतम इंतजार और एक साल सेपरेशन पीरियड (अलग रहने की अवधि) को मिला दें तो डेढ़ वर्ष में तलाक की डिक्री आपके हाथ में होगी। आइए देखते हैं कि तलाक लेने के लिए कानून की क्या जरूरतें हैं।
तलाक लेने से पूर्व दोनों पार्टियों को हिन्दू मैरिज एक्ट, 1955 की धारा-10 के तहत एक साल तक एक दूसरे से अलग रहने के सबूत देने होंगे। उन्हें यह दिखाना होगा कि इस दौरान उनके बीच कोई शरीरिक संबंध नहीं बना है। न्यायालय जब इससे संतुष्ट हो जाएगा तो उन्हें डिक्री आफ सेपरेशन (अलग रहने की डिक्री) दी जाएगी। इस डिक्री के बाद तलाक की अर्जी दाखिल करने की अनुमति दी जाएगी।
यह अर्जी हिन्दू मैरिज एक्ट, 1955 की धारा 13- बी में दिए गए तलाक के आधार पर दायर की जाएगी, जिसमें नया आधार भी शामिल होगा। अर्जी दाखिल होने के बाद कोर्ट छह माह से लेकर अधिकतम 18 माह तक इंतजार करता है और पार्टियों को आपसी सुलह को मौका देता है। यदि इस अवधि में पार्टियां तलाक की अर्जी वापस नहीं लेतीं तो संबद्ध अदालत उचित जांच के बाद तलाक की डिक्री दे देती है। एक साल सेपरेशन, छह माह से डेढ़ साल अर्जी वापस लेने का इंतजार और अदालत की कार्यवाई में लगने वाले कुछ महीनों को मिला लें तो लगभग दो साल में पति-पत्नी एक-दूसरे से मुक्त होकर अपनी जिदंगी जीने लायक बन सकते हैं।

सुधांशु गुप्त

Sunday, June 6, 2010

आईपीएल का क ख ग कांटा लगा


पांच साल पहले की बात है। ग्यारह मार्च 2005। भारत और पाकिस्तान के बीच चंडीगढ़ में टेस्ट मैच चल रहा था। टेस्ट मैच के बीच ही पत्रकारों को यह सूचना मिली कि लंच में एक प्रेस कांफ्रेंस है, जिसे ललित मोदी संबोधित करेंगे। पत्रकारों का दल सोचने लगा कि आखिर यह मोदी हैं कौन?
मोदी ब्लैक सूट, सलीके से बनाए हुए बाल और ब्रांडेड चश्मा पहन कर जब प्रेस कांफ्रेंस में आए तो वह काफी नर्वस लग रहे थे। आधे घंटे की इस प्रेस कांफ्रेंस में मोदी ने यह कहा, भारत में क्रिकेट दो बिलियन डॉलर की सालाना मार्केट है। उन्होंने कहा कि हमारे क्रिकेटरों को उतना ही पैसा मिलना चाहिए, जितना अंतरराष्ट्रीय फुटबॉल खिलाड़ियों को मिलता है।
पता नहीं किसी ने मोदी की इस बात को गंभीरता से लिया था या नहीं, लेकिन संयोग से इसके कुछ ही माह बाद डालमिया की विदाई हो गई और बीसीसीआई में शरद पवार सत्ता का केंद्र बन गये। और तीन साल में ही बोर्ड का सालाना रिवेन्यू एक बिलियन डॉलर दिखा रहा था, लेकिन पूरी फिल्म अभी बाकी थी। वर्ष 2008 में जब इंडियन क्रिकेट लीग की शुरुआत हुई तो इसे काउंटर करने के लिए मोदी ने इंडियन प्रीमियर लीग की अपनी अवधारणा सामने रख दी। बोर्ड से हरी झंडी मिलने के बाद काम शुरू हो गया।
क्या है आईपीएलयह निजी स्वामित्व वाली आठ टीमों (सीजन 4 में दस टीमों) की एक लीग है, जो ट्वेंटी 20 मैच खेलती है। इस लीग को चलाने की जिम्मेदारी आईपीएल की है। आईपीएल एक स्वायत्त निकाय है, जो बोर्ड ऑफ कंट्रोल फोर क्रिकेट इन इंडिया के तहत अलग बजट में काम करती है। इसकी गवर्निंग काउंसिल में चेयरमैन ललित मोदी, वाइस चेयरमैन निरंजन शाह, प्रमुख पूर्व क्रिकेटर सुनील गावस्कर, रवि शास्त्री, मंसूर अली खान पटौदी, शशांक मनोहर, एच. श्रीनिवासन, एम. पी. पांडे, संजय जगदले, चिरायु अमीन, अरुण जेटली के अलावा बोर्ड द्वारा नियुक्त सदस्य राजीव शुक्ला, आई.एस. बिंद्रा और फारुक अब्दुल्ला शामिल हैं।
आईपीएल का आगाजललित मोदी आईपीएल के चेयरमैन और कमिश्नर बन गए। आठ टीमों-मुंबई इंडियंस, कोलकाता नाइट राइडर्स, डेक्कन चार्जर्स, दिल्ली डेयरडविल्स, किंग्स इलेवन पंजाब, रॉयल चैलेंजर्स बेंगलुरू, राजस्थान रॉयल्स और चेन्नई सुपर किंग्स-की फ्रेंचाइजी बेची गईं और खिलाड़ियों की खरीद-फरोख्त हुई। कुछ ही माह में यह अरबों डॉलर का कारोबार बन गया और खिलाड़ी अरबपति हो गए।
आईपीएल का पहला सीजन खासा सफल रहा। इसी सीजन में ललित मोदी और बीसीसीआई को भी यह समझ में आ गया कि उन्हें आईपीएल के रूप में दूध देने वाली एक और गाय मिल गई है, लेकिन आईपीएल 2 शुरू होने से पहले ही सरकार ने सुरक्षा के मद्देनजर इसे भारत में कराए जाने से इंकार कर दिया। ललित मोदी ने फिर भी हार नहीं मानी। उन्होंने पंद्रह दिनों के भीतर ही पूरे आयोजन को दक्षिण अफ्रीका में शिफ्ट कर दिया। वहां भी यह आयोजन पूरी तरह से सफल रहा। आईपीएल के इन दो सत्रों में मोदी ने दिखाया कि क्रिकेट को दुनिया के किसी भी कोने में बेचा जा सकता है और यह सबसे ज्यादा महंगा बिकने वाला खेल है। यही नहीं, मोदी ने क्रिकेट में से क्रिकेट को निकालकर उसमें ग्लैमर, पार्टीज, चीयरगर्ल्स, डांस का तड़का लगाया। दो घंटे के इन मैचों में खचाखच भरे स्टेडियम, पवेलियन में बैठे सिलेब्रेटीज यह साबित करने के लिए पर्याप्त थे कि मोदी का यह वेंचर पूरी तरह सफल रहा है।
आईपीएल का बिजनेस ऑपरेंडी क्या है?ललित मोदी ने सीजन 3 तक आते आते कमाई दोगुनी कर दी। उन्होंने सिनेमा हॉल्स और बार में स्क्रीनिंग के अधिकार 330 करोड़ रुपये में बेचे। इसी तरह इंटरनेट अधिकार, मैच के बाद होने वाली पार्टियां स्पांसर कराईं, कलर्स के साथ करार किया, मोबाइल राइट्स बेचे और ग्राउंट स्पांसरशिप बेची।
सबसे ज्यादा चमत्कारिक काम उन्होंने तब किया जब स्टेडियम स्क्रीन पर ही ओवरों के बीच में विज्ञापन का समय भी बेच दिया। गौरतलब है कि आईपीएल के पास सेटमेक्स पर 150 सेकेंड का एयरटाइम होता है और ये विज्ञापन टीवी पर भी कवर होते हैं। यानी 6 लाख रुपये प्रति दस सेकेंड की दर से 90 लाख रुपये प्रति मैच। कुल साठ मैचों के 54 करोड़ रुपये।
इसी तरह उन्होंने स्ट्रेटेजिक टाइम आउट के लिए ऑन ग्राउंड स्पांसरशिप और एक नया प्रायोजक तलाश लिया। एक अनुमान के मुताबिक आज आईपीएल इंडस्ट्री लगभग चार अरब डॉलर के आसपास पहुंच चुका है। इसके बावजूद ललित मोदी को इस बात का अफसोस है कि सबसे ज्यादा रन बनाने वाले और सबसे ज्यादा विकेट लेने वाले को दी जाने वाली नारंगी और बैंगनी रंग की कैप पर विज्ञापनों के अधिकार नहीं बेच पाए।
टीमों की कमाई का क्या है जरिया सभी टीमों को लीग द्वारा प्रसारण और तमाम तरह के राइट्स बेचने से जो आय होगी उसमें एक हिस्सेदारी मिल रही है। साथ ही टीमें व्यक्तिगत रूप से स्पांसर तलाश कर सकती हैं। मिसाल के तौर पर सीजन 1 में ब्रांडों की कुल संख्या चालीस थी, जो सीजन 2 में 69 और सीजन तीन में बढ़कर 80 हो गई। गौरतलब है कि पिछले सीजन में कोलकाता नाइटराइडर्स सबसे पिछड़े स्थान पर रही थी और इसके बावजूद यह कहा गया था कि उसने सबसे ज्यादा कमाई की थी। उसकी एक वजह यही थी कि उसके पास सबसे ज्यादा प्रायोजक थे। यानी पूरा खेल प्रायोजकों पर ही निर्भर करता है। खिलाड़ियों द्वारा पहने जाने वाली ड्रेसेस से लेकर हर चीज स्पांसर की जा सकती है।
सट्टेबाजी से हो सकती है दोहरी कमाईकहा जाता है कि क्रिकेट अनिश्चितताओं का खेल है, लेकिन मैच फिक्सिंग और सट्टेबाजी ने इस बात को बारबार गलत साबित किया है। आईपीएल 3 समाप्त होते-होते यह बात फिर सामने आई है कि आईपीएल के सभी मैच फिक्स थे।
एक अखबार ने आईटी (इनकम टैक्स) की रिपोर्ट के हवाले से दावा किया कि आईपीएल की अधिकांश मैच फिक्स थे और फिक्सिंग में वरिष्ठ खिलाड़ियों से लेकर खुद ललित मोदी तक शामिल हैं। (शुक्र है सचिन, गांगुली और द्रविड़ इन आरोपों से बरी माने गए हैं) मैच फिक्सिंग की बात एक क्षण के लिए भूल भी जाएं तो सट्टेबाजी से तो कोई भी इनकार नहीं कर सकता।
एक अनुमान के मुताबिक आईपीएल के हर मैच में 300-500 करोड़ रुपये का सट्टा लगता है। कुल 60 मैचों में आप सोच सकते हैं कि कितने का सट्टा लगा होगा। जब टीमों का स्वामित्व निजी हाथों में है तो मैच का परिणाम पहले तय करना कोई मुश्किल नहीं है-खासतौर पर तब जबकि किसी भी टीम को एक मैच हारने का जीतने के मुकाबले कहीं ज्यादा पैसा मिलता हो। हालांकि आईपीएल में मैच फिक्सिंग के आरोप अभी साबित होने हैं, लेकिन आशंकाओं को तो बल मिला ही है।
मोदी की उल्टी गिनती शुरूललित मोदी की उल्टी गिनती उसी दिन से शुरू हो गई थी, जब उन्होंने आईपीएल के सीजन 2 को साउथ अफ्रीका ले जाने का फैसला किया था। केंद्र को यह बात समझ नहीं आ रही थी कि आखिर आईपीएल को कराया जाना इतना जरूरी क्यों था? तभी से सरकार में बैठे कुछ मंत्री ललित मोदी को घेरने की फिराक में थे। और मोदी ने खुद ही उन्हें यह मौका दिया।
ग्यारह अप्रैल को प्रात: 3:16 बजे ललित मोदी ट्विटर पर आईपीएल की नई टीम कोच्चि के शेयरहोल्डर्स के नाम बता रहे थे। इसी में उन्होंने सुनंदा पुष्कर का नाम भी उजागर कर दिया, जिनके बारे में कहा जा रहा है कि उन्हें मुफ्त में कोच्चि टीम में 19 फीसदी की हिस्सेदारी मिली है, (जिसे उन्होंने बाद में वापस करने की बात कही है)।
यह साफ है कि पूर्व मंत्री शशि थरूर को कोच्चि टीम के मालिक रांदेवू स्पोर्ट्स वर्ल्ड लि़ का मेंटर बताया जाता है। साथ ही सुनंदा की थरूर से आत्मीयता भी किसी से छिपी नहीं है। ललित मोदी का सुनंदा के नाम का ऑनलाइन खुलासा करना विवादों की शुरुआत था।
रांदेवू से जुड़े सूत्रों का आरोप है कि मोदी ने सुनंदा का नाम सार्वजनिक करके अनुबंध की शर्तों को तोड़ा है। यह भी आरोप है कि मोदी आईपीएल को कोच्चि के बजाय अहमदाबाद ले जाना चाहते थे, क्योंकि मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से उनके रिश्ते बताये जाते हैं। बहरहाल, ललित मोदी के ट्विटर ने आग में घी का काम किया। पहले शशि थरूर को मंत्रिमंडल से इस्तीफा देना पड़ा और उसके बाद से एक के बाद बड़े नाम इसमें शामिल होते जा रहे हैं।
ललित मोदी पर क्या हैं आरोपललित मोदी पर वर्तमान परिदृश्य में जो आरोप हैं, उनमें प्रमुख हैं तीन फ्रैंचाइजी में उनकी नाम-बेनामी हिस्सेदारी होना। आईपीएल मैच फिक्सिंग में शामिल होना। अपने कई रिश्तेदारों को फायदा पहुंचाना। इससे पहले भी ललित मोदी पर कई किस्म के गंभीर आरोप हैं।
मसलन, उन्होंने नागौर में गैर कानूनी ढंग से जमीन खरीदी और नागौर जिला क्रिकेट संघ के सदस्य बने। वसुंधरा राजे सरकार ने एक आईएएस अधिकारी संजय दीक्षित के जरिए राजस्थान खेल कानून इस तरह से बदलवाया कि वे जिसे चाहें जितवा सकें। इसके बाद ही किशोर रूंगटा को आरसीए के अध्यक्ष के चुनाव में हराना आसान हो गया था।
एसएमएस स्टेडियम की क्रिकेट अकादमी में उन्होंने होटल बनवा दिया। शादी समारोह और पार्टियां हुईं, 2007 में आईपीएल मैच के दौरान तिरंगे पर शराब रखवाई। ललित मोदी की मदद से वसुंधरा राजे ने लंदन की फ्रीमोट स्ट्रीट में 500 करोड़ रुपये का घर खरीदा। हालांकि इनमें से अभी कोई भी आरोप साबित नहीं हुआ है, लेकिन मोदी ने इनका खंडन भी नहीं किया है।
पटेल और पवार भी घेरे मेंकेंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार और नागरिक उड्डयन मंत्री प्रफुल्ल पटेल पर भी उंगलियां उठी हैं। शरद पवार की बेटी सुप्रिया सुले के पति सदानंद सुले की एक फ्रैंचाइजी में हिस्सेदारी बताई जा रही है। कहा जा रहा कि पवार से बेहतर रिश्तों के चलते ही मोदी ने उनकी मदद की।
हालांकि सुप्रिया सुले ने साफ कहा है कि उनका और उनके परिवार के किसी भी रिश्तेदार का किसी फ्रैंचाइजी से कोई लेना देना नहीं है। पवार को मोदी का सबसे बड़ा सपोर्टर माना जाता है। पूर्णा पटेल पर आरोप हैं कि उन्होंने आईपीएल से जुड़ी जानकारियां अपने पिता प्रफुल्ल पटेल को मेल कीं। पूर्णा आईपीएल की हॉस्पिटेबिलिटी मैनेजर हैं।
इसके अलावा, उन पर आरोप यह भी है कि वह एयर इंडिया की दिल्ली-मुंबई फ्लाइट को जयपुर ले गईं ताकि आईपीएल खिलाड़ियों को वहां से पिक किया जा सके। जाहिर है उन्होंने भी आरोपों को गलत बताया है। उन्होंने कहा कि जो भी डाक्यूमेंट्स मेल किए वह बॉस के कहने पर ही भेजे थे।
सड़क से संसद तक उठ रहे हैं सवालगलियों और चौराहों तक पर आईपीएल मैचों के दौरान होने वाली सट्टेबाजी की गूंज अब संसद तक पहुंच गई है। आयकर विभाग की जांच रिपोर्ट से यह तथ्य सामने आ रहे हैं कि आईपीएल ने सट्टेबाजी को बाकायदा संस्थागत रूप दिया।
संसद में भी विपक्ष ने इस मसले पर हंगामा मचाया और दो मंत्रियों के नाम इस मामले से जुड़े होने पर उनके इस्तीफे की मांग की। कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार के फोन टैपिंग को लेकर भी जबरदस्त हंगामा हुआ। भाकपा नेता गुरुदास दासगुप्ता ने इस कांड को भारतीय इतिहास का सबसे बड़ा घोटाला बताया है। सूत्र तो यहां तक दावा करते हैं कि इस कांड का असर यूपीए सरकार तक की बलि ले सकता है। लेकिन लगभग 60 हजार करोड़ रुपये के इस कारोबार में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हेराफेरी, आर्थिक अपराध, धोखाधड़ी और बेइमानियों की पहली परत खुलने से जब इतना हंगामा हो रहा है तो यह आसानी से सोचा जा सकता है कि जब इस सारे खेल के पीछे के खिलाड़ी सामने आएंगे तो क्या स्थिति होगी? साथ ही इससे कुछ सवाल भी उठते हैं।
पहला यह कि तीन साल तक यह सब कुछ चलता रहा, तब सरकार क्या कर रही थी? दूसरे, फ्रेंचाइजी नीलामी की शर्ते क्यों बदली गईं, इससे किसको फायदा पहुंचाया गया? तीसरे, प्रसारण अधिकार देने में किसने कितनी कमीशन खाई?
चौथे, क्या यह सारा खेल केवल ललित मोदी के इशारे पर ही चलता रह सकता था? पांचवे, इस खेल के असली खिलाड़ी और कौन-कौन हैं? क्या कभी उन्हें सचमुच सजा मिल भी पाएगी? या केवल ललित मोदी को आईपीएल के चेयरमैन पद से हटाकर इस कांड की भी लीपापोती कर दी जाएगी? क्या क्रिकेट गरिमापूर्ण मूल स्वरूप में लौट पाएगा? ऐसे ही तमाम सवालों के जवाब फिलवक्त तो भविष्य के गर्भ में ही छिपे हैं, देखना है कितने सवालों के सही जवाब जनता तक पहुंच पाते हैं।

सुधांशु गुप्त

लड़कियों सा पहनावा लड़कों को भाया

बड़े और छोटे शहरों में, कस्बों में आज तमाम युवा लड़के आपको ऐसे दिखेंगे, जिनके बारे में दूर से देखकर यह अंदाजा लगाना मुश्किल हो जाता है कि वह लड़का है या लड़की। उसने लड़कियों की तरह कैप्री पहनी होगी और ऊपर उसी अंदाज का कथित टॉप। कानों में बालियां होंगी और सिर पर छोटी सी चोटी। मनोविज्ञान की भाषा में बेशक इसे क्रॉस ड्रेसिंग कहते हों, लेकिन आज के युवाओं का यही स्टाइल है। सुधांशु गुप्त की रिपोर्ट।
लड़कों की कितनी बातें/आदतें लड़कियों ने अपना ली हैं और लड़कियों की लड़कों ने। पहनावे से ही कुछ पता चलता था उनके ‘ही’ और ‘शी’ होने का। पर युवा अब ड्रेसेज में भी कोई भेदभाव नहीं करना चाहते हैं। लड़कों को प्रयोग के तौर पर लड़कियों द्वारा पहने जाने वाले परिधान पसंद आने लगे हैं।
क्या है क्रॉस ड्रेसिंग
क्रॉस ड्रेसिंग का अर्थ है, जब कोई व्यक्ति (अमूमन पुरुष) अपोजिट सेक्स द्वारा पहने जाने वाले परिधानों को पसंद करता है और उन्हें पहनने लगता है। माना ये जाता है कि जिस तरह अपोजिट सेक्स एक दूसरे के प्रति आकर्षित होते हैं, उसी तरह दोनों एक दूसरे के परिधानों के प्रति भी आकर्षित होते हैं। कभी-कभी यह आकर्षण इतना अधिक बढ़ जाता है कि व्यक्ति अपोजिट सेक्स के परिधानों को ही अंतिम रूप से चुन लेता है।
क्रॉस ड्रेसिंग के इतिहास की बात करें तो कुछ बातें सामने आती हैं। पहली, अक्सर मांएं अपने नवजात बेटे को लड़कियों की ड्रेसेज पहनाती और उसी तरह सजाती हैं। बालपन तक तो यह ठीक रहता है, लेकिन बच्चों के बड़े होने के बाद कई बार उसके अवचेतन में लड़कियों की ड्रेसेज के प्रति आकर्षण बना रहता है। लिहाजा वह बड़ा होने के बाद भी उस आकर्षण से पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाता। बॉलीवुड पर नजर डालें तो फिल्म निर्माण के शुरुआती काल में लड़कियां फिल्मों में आना पसंद नहीं करती थीं, तब पुरुष ही नायिकाओं की भूमिकाएं निभाते थे। कुछ वर्षों पहले तक रामलीलाओं में भी अक्सर सीता की भूमिका लड़के ही करते थे। लंबे समय तक ऐसा करते रहने से व्यक्ति लड़कियों की ड्रेसेज के प्रति आकर्षित हो सकता है। लड़कियों की ड्रेसेज के प्रति आकर्षित होने का एक कारण हार्मोनल डिसबैलेंस भी है। ऐसे व्यक्तियों में लड़कियों के हार्मोन्स होते हैं। वे न केवल लड़कियों के कपड़े पहनना पसंद करते हैं, बल्कि उनका व्यवहार भी लड़कियों की तरह का ही हो जाता है।
तीन तरह के होते हैं क्रॉस ड्रेसर
पहली ऐसे लोगों की श्रेणी है, जो किसी हार्मोनल असंतुलन के कारण लड़कियों के परिधानों की ओर आकर्षित होते हैं। बाद में इन लोगों में शारीरिक बदलाव आने लगते हैं और ये अपना जेंडर बदलवा लेते हैं। ऐसे लोगों में बॉबी डार्लिग जैसे लोग हैं। दूसरा, ऐसे लोग, जो अभिनय करते समय स्त्री रूप में दिखाई पड़ते हैं, जैसे फिल्मों में, विज्ञापनों में या फिर रंगमंच पर। इनके साथ कोई हार्मोनल समस्या नहीं होती। तीसरे ऐसे लोग हैं, जिन्होंने क्रॉस ड्रेसिंग को स्टाइल ही बना लिया है। इनमें आज का युवा शामिल है। ये लोग प्रयोग के लिए और फैशन के लिए ही क्रॉस ड्रेसिंग का इस्तेमाल करते हैं। ऐसे युवा केवल लड़कियों के परिधानों के प्रति ही आकर्षित नहीं होते, बल्कि उन्हीं की तरह कानों को छिदवाना, लंबी चोटी रखना भी इन्हें खूब सुहाता है। लेकिन ये लोग किसी भी तरह से स्त्रीयोचित नहीं होते।
फैशन की दुनिया में मिलते हैं खूब क्रॉस ड्रेसर
फैशन की राजधानी पेरिस भी इस बात की गवाह रही है कि लड़कियों की ड्रेसेज डिजाइन करते-करते पुरुष फैशन डिजाइनर अक्सर लड़कियों की ड्रेसेज के प्रति भी आकर्षित हो जाते हैं। एक धारणा यह भी है कि ये डिजाइनर जानबूझकर भी लड़कियों की ड्रेसेज को पहनने लगते हैं, ताकि लड़कियों से बेहतर ढंग से मिक्सअप हो सकें। भारत में भी अब यह ट्रेंड कमोबेश दिखाई पड़ने लगा है। बिग बॉस-3 में शामिल हुए रोहित वर्मा अंतरराष्ट्रीय स्तर के फैशन डिजायनर हैं, लेकिन वे खुद भी महिलाओं जैसी ड्रेसेज ही पहनते हैं।
बाजार की जरूरतें
जैसे-जैसे बाजार का विस्तार हो रहा है, बाजार अपने लिए खुद नये रास्ते तलाश रहा है। पहले पुरुष और महिलाओं के परिधान एकदम अलग हुआ करते थे। लेकिन बाजार ने ही यह सोचा कि क्यों न ऐसे परिधान तैयार किये जाएं, जो दोनों के लिए उपयुक्त हों। इसी के चलते जीन्स, टी शर्ट जैसे परिधान बाजार में आए और युवाओं ने इन्हें खूब पसंद किया। फ्री साइज भी इस श्रेणी में बाजार की देन था। यह बाजार ही है जिसने इस भेद को खत्म करने में अहम भूमिका निभाई कि कुछ परिधान लड़कियों के लिए हैं और कुछ लड़कों के लिए। मजेदार बात है कि फैशन शोज में अब डिजाइनर इस तरह के डिजाइन पेश कर रहे हैं। पिछले दिनों हुए एक फैशन शो में लड़कों के लिए बाकायदा कैप्री और टॉप, स्कर्ट और टॉप जैसी ड्रेसेज पेश की गयीं। हो सकता है आम युवाओं में इस तरह की ड्रेसेज का चलन अभी बहुत ज्यादा न हो, लेकिन आने वाले समय में कम से कम ड्रेसेज के मामले में आपको लैंगिक असमानता देखने को नहीं मिलेगी।
बॉलीवुड में क्रॉस ड्रेसिंग
बॉलीवुड में क्रॉस ड्रेसिंग का लंबा इतिहास रहा है। पहले जहां पुरुष महिलाओं के किरदार निभाते थे, वहीं अब बॉलीवुड के तमाम बड़े नायक कुछेक दृश्यों में महिलाओं के रूप में आना पसंद करते हैं। बिग बी अमिताभ बच्चन से लेकर आमिर खान तक किसी न किसी फिल्म में महिला वेशभूषा में अवश्य दिखाई दिये। दिलचस्प रूप से कमल हसन ने तो चाची 420 फिल्म में पूरी तरह महिला का किरदार निभाया और दर्शकों ने उसे बेपनाह पसंद भी किया। इसी तरह गोविंदा ने आंटी नंबर वन में महिला रूप धरा। इसके अलावा भी तमाम अभिनेता हैं, जो कभी न कभी महिला रूप में परदे पर दिखाई दिये। आमिर खान ने पिछले दिनों एक विज्ञापन किया था, जिसमें वे आधे पुरुष और आधे स्त्री बने थे। इस विज्ञापन को भी दर्शकों द्वारा बेहद पसंद किया गया। बड़े परदे के अलावा छोटे परदे पर भी क्रॉस ड्रेसिंग का ट्रेंड जोर पकड़ रहा है। छोटे परदे पर दिखाये जा रहे कॉमेडी सर्कस में भाग लेने वाले अधिकांश कलाकार अक्सर महिला रूपों में ही दिखाई पड़ते हैं। बेशक इनका मकसद हास्य पैदा करना हो, लेकिन ये भी क्रॉस ड्रेसिंग को ही रिफ्लैक्ट करते हैं। सुधांशु गुप्त

7 खुशहाल शादी के सूत्र

कहते हैं कि रियल वर्ल्ड में परफेक्ट शादी देखने को नहीं मिलती। हां, खुशहाल शादी या हैप्पी मैरिज अवश्य देखने को मिलती है। यह भी तथ्य है कि विवाह के दिन लड़का और लड़की दोनों के मन में साथ रहने को लेकर ढेरों सपने और उम्मीदें होती हैं, लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता है, वैवाहिक रिश्ते में कड़वाहट पैदा होने लगती है। कैसे आप अपनी मैरिज को हैप्पी मैरिज में बदल सकते हैं, बता रहे हैं सुधांशु गुप्त
दुनिया में वैवाहिक रिश्ते से ज्यादा प्यारा दोस्ताना और चार्मिग रिश्ता और कोई नहीं हो सकता। मार्टिन लूथर
यकीनन दो व्यक्तियों के बीच का यह रिश्ता एक आध्यात्मिक यात्रा से शुरू होता है। यह एक ऐसा रिश्ता है, जो दोनों पक्षों को उम्र भर जोड़े रखता है। परिवार की शुरुआत भी इसी रिश्ते से होती है। वैवाहिक संस्था में हमारा यकीन ही है कि हम शादी के मौके पर अपनी क्षमताओं से अधिक पैसा, ऊर्जा और समय खर्च करते हैं। जाहिर है ऐसे में हर व्यक्ति की यही उम्मीद होती है कि की जा रही शादी खुशहाल शादी साबित हो, लेकिन तमाम कारणों से आज इस वैवाहिक रिश्ते की बुनियाद कुछ हिलती- सी दिखाई दे रही है। कम से कम बाहर से तो ऐसा ही लगता है। और अगर ऐसा नहीं भी है तो इसमें कोई दो राय नहीं कि कई बार छोटी-छोटी बातें इस खूबसूरत रिश्ते को बोझ में बदल देती हैं। मनोचिकित्सक और मैरिज काउंसलर डॉ. गीता माहेश्वरी से बातचीत और उनके द्वारा लिखी किताब (दि हैप्पी मैरिज मंत्र) के आधार पर हम यहां सात ऐसे सूत्र दे रहे हैं, जो आपकी शादी को खुशहाल शादी में बदल सकते हैं। दिलचस्प बात है कि ये मंत्र किसी जाति, धर्म और संप्रदाय से बंधे नहीं हैं। ये मंत्र किन्हीं भी दो व्यक्तियों के विवाह को खुशहाल बनाने में मददगार साबित होंगे।
1. अपने पार्टनर को स्वीकार करें
अमूमन लड़कियां इस विचार के साथ शादी करती हैं कि ‘वह बदल जाएगा’ और यह सोच कर कि ‘वह बदलने से तो रही’। दुर्भाग्य से दोनों ही गलत हैं। हमें यह याद रखना चाहिए कि हर व्यक्ति अपने आप में अलग है। हर व्यक्ति अपने व्यक्तित्व की कुछ खास बातों, अतीत के अपने अनुभवों, अपनी शिक्षा, संस्कृति और पर्यावरण का कुल योग होता है। इसलिए अपने पार्टनर को बदलने की बजाय अपने और उसके मतभेदों को समझों और एंजॉय करें। याद रखें कि दुनिया में आप केवल एक व्यक्ति (खुद) को ही बदल सकते हैं। आपने एक दूसरे के साथ विवाह जीवन का आनंद उठाने के लिए किया है, अपने इस गोल पर हमेशा नजर रखें।
टिप्स
सही और गलत की अपनी धारणाएं एक दूसरे पर आरोपित न करें। अपने पार्टनर की बुरी आदतों को छुड़ाने में उसकी मदद करें।अपने पार्टनर की जरूरतों का सम्मान करें।
2. एक दूसरे को स्पेस दें
आपका पार्टनर और विवाह आपको वह सब कुछ नहीं दे सकता, जो एक व्यक्ति के रूप में आपको चाहिए। एक साथ बहुत सा समय गुजारना जीवन को बोरिंग बना देता है। याद रखिए कि एक साथ होने के बावजूद आप दोनों अलग-अलग रुचियों के दो अलग-अलग व्यक्ति हैं, इसलिए आप दोनों को ग्रो करने के लिए स्पेस चाहिए, इसलिए अपने पार्टनर को लेकर ओबसेस मत होइये। याद रखिए कि उसकी आपसे विवाह करने से पहले भी एक लाइफ थी। उसे पुरानी जिंदगी से जुड़े रहने का समय दीजिए और उसे अपनी रुचियों को पूरा करने के लिए प्रेरित कीजिए।
टिप्स
हैल्दी मैरिज ‘हम’ और ‘मैं’ का संतुलन होती है। अपने पार्टनर को उन लोगों से जुड़ने का समय दीजिए, जिनसे वे भावनात्मक रूप से जुड़े हैं।अपने दोस्तों का दायरा बढ़ाइये।
3. घर के काम
वे दिन चले गये, जब पुरुष कमरे में बैठ कर टीवी देखा करता था और महिला घर के कामों में जुटी रहती थी। अगर दोनों वर्किग हैं तो यह बेहद जरूरी है कि घर के कामों में दोनों की बराबर की भागीदारी हो। अगर महिला वर्किग नहीं है, तब भी यह जरूरी है कि आप घर के कामों में रुचि लें और काम में पत्नी का हाथ बंटायें। यह मान कर न चलें कि घर की सारी जिम्मेदारी महिला की है। यदि आप घर के कामों में हाथ बंटाते हैं तो आप पायेंगे कि आपको अपने पार्टनर के साथ बिताने के लिए अधिक समय मिलेगा और आप एक दूसरे के ज्यादा करीब आएंगे।
टिप्स
कुछ काम हमेशा साथ करें, जैसे साथ खाएं, साथ प्रार्थना करें और एक साथ सोने जाएं।घर के कामों को प्राथमिकता के हिसाब से बांट ले। खुद में लचीलापन लाएं। पार्टनर को कोई भी काम उसके अपने तरीके से करने दें।
4. संयुक्त फैसले लें
विवाह का अर्थ है पार्टनरशिप, इसलिए यह तय करें कि कोई फैसला निजी रूप से न लें। संयुक्त फैसले लेने का एक यह नतीजा होगा कि उस फैसले के परिणामों के लिए दोनों बराबर के जिम्मेदार होंगे। घर में ज्यादा प्यार रहेगा, यदि दोनों साथ बैठ कर बातचीत के जरिये कोई फैसला लेते हैं। कुछ फैसले बेशक ज्यादा योग्य पार्टनर ले सकता है, लेकिन इन फैसलों में भी उसे अपने पार्टनर की मंजूरी ले लेनी चाहिए।
टिप्स
वित्तीय योजना दोनों मिल कर बनाएं।बच्चों के बारे में भी फैसले संयुक्त रूप से ही लें। एक दूसरे के करियर के बारे में आपस में चर्चा के बाद ही कुछ तय करें।
5. साथ हंसें
कहते हैं कि जो एक साथ हंस नहीं सकते, वे एक दूसरे से प्यार नहीं कर सकते, इसलिए एक साथ हंसना विवाह का सबसे बड़ा आनंद है। अब तो यह थैरेपी भी है। साथ हंसने से आपका तनाव कम होता है और ब्रेन में फील गुड कैमिकल का स्तर बढ़ता है। साथ ही इससे आपका इम्यून सिस्टम बेहतर होता है और आप मानसिक और भावनात्मक रूप से खुद को बेहतर महसूस करते हैं।
टिप्स
डिनर के समय एक-दूसरे से मजेदार बातें शेयर करें। एक-दूसरे को फनी ई-मेल्स भेजें।सेंस ऑफ ह्यूमर विकसित करें, ताकि एक-दूसरे की हंसी की जुबान समझ सकें।
6. क्वालिटी टाइम
हर रिश्ते को पनपने और विकसित होने के लिए समय की जरूरत होती है। एक-दूसरे के साथ क्वालिटी टाइम गुजारने का अर्थ है, ऐसा समय एक साथ गुजारना, जिसमें आप पूरी तरह एक दूसरे के साथ हों-बिना किसी बाधा और परेशानी के। ऐसा समय साथ गुजारने से दोनों के बीच समझदारी बढ़ती है और दोनों एक-दूसरे के प्रेम के प्रति आश्वस्त होते हैं। आज तो इस चीज की और भी ज्यादा जरूरत है, क्योंकि अधिकांश पति-पत्नी काम के बोझ से दबे से रहते हैं। ऐसे में क्वालिटी टाइम साथ बिताना बहुत जरूरी है।
टिप्स
साथ गुजारने के लिए समय चुरायें।घर के काम साथ करने से भी आप क्वालिटी टाइम साथ बिताते हैं।छोटे-छोटे हॉलिडेज पर केवल आप दोनों ही जाएं।
7. युवा बने रहें
इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपकी शादी को कितने साल हो गये हैं। खुद को युवा बनाए रखें। अपने विवाह को ऑटो मोड में न डाल दें यानी जैसे चल रहा है, चलने दो। मानसिक रूप से खुद को युवा समझों और उसी तरह व्यवहार भी करें। एक दूसरे को समझने की प्रक्रिया को जारी रखें और इस बात पर सोचें कि आपकी शादी किस तरह नयी और फ्रैश बनी रह सकती है।
टिप्स
अपने भीतर के रोमांस को हमेशा जीवित रखें।सप्ताह में कम से कम एक बार डेट पर जाएं।थोड़े से शरारती बनें।
सुधांशु गुप्त

हुसैन की नयी फिल्म की नायिका होंगी विद्या बालन

विश्वप्रसिद्ध चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन का बॉलीवुड से काफी पुराना रिश्ता रहा है। सौंदर्य के इस पुजारी को कभी माधुरी दीक्षित में स्त्री के सभी रूप दिखाई देते हैं तो कभी अमृता राव इन्हें पूर्ण स्त्री दिखाई पड़ती हैं। फिलहाल हुसैन साहब की पहली पसंद विद्या बालन बनी हुई हैं। सुधांशु की रिपोर्ट।
चित्रकला और ईश्वरीय कला को बेहद पसंद करने वाले विश्वप्रसिद्ध पेंटर मकबूल फिदा हुसैन का बॉलीवुड से रिश्ता काफी पुराना है। अक्सर उन्हें बॉलीवुड की नायिकाओं का सौंदर्य पसंद आ जाता है। कभी वे अपनी पेंटिंग में इन नायिकाओं को विभिन्न रूपों में दिखाते हैं तो कभी इन रूपसियों को लेकर फिल्म बनाते हैं। कभी माधुरी दीक्षित में स्त्री के तमाम रूपों को देखने वाले हुसैन साहब लगता है, अब विद्या बालन के मुरीद हो गये हैं। खबर है कि हुसैन साहब अपनी अगली फिल्म के लिए विद्या बालन के नाम पर विचार कर रहे हैं। अगले साल शुरू होने वाली उनकी कॉमेडी फिल्म की नायिका की तलाश अभी पूरी नहीं हुई है, लेकिन ऐसा लगता है कि विद्या ने इस मशहूर चित्रकार के जेहन में अपनी कई छवियां छोड़ी हैं। एक इन्फोटेनमेंट पोर्टल के मुताबिक, इस फिल्म में तीन महिला किरदार हैं और विद्या बालन ही इन तीनों किरदारों को निभा सकती हैं।
गौरतलब है कि मकबूल फिदा हुसैन 2000 में माधुरी दीक्षित को लेकर गजगामिनी और उसके बाद ‘मीनाक्षी: टेल ऑफ थ्री सिटीज’ बना चुके हैं। और ये दोनों ही फिल्में बॉक्स ऑफिस पर बुरी तरह फ्लॉप रही हैं, लेकिन इसके बावजूद हुसैन साहब की क्रिएटिव अर्ज है, जो उन्हें अब भी फिल्में बनाने के लिए प्रेरित करती है। वह कहते हैं, मुङो फिल्में बनाने में पेंटिंग बनाने से ज्यादा आनंद आता है, लेकिन यह काम बहुत ज्यादा महंगा है। फिल्में न बनाने के बावजूद उनकी पसंदीदा अभिनेत्रियां बदलती रही हैं। माधुरी दीक्षित के बाद वह अमृता राव और तब्बू के जबरदस्त फैन बन गये थे, लेकिन इन दोनों को लेकर हुसैन साहब ने किसी फिल्म की घोषणा नहीं की थी। फिर अचानक कॉमेडी फिल्म की घोषणा के पीछे क्या है? सूत्र बताते हैं कि हुसैन ने हाल ही में राजकुमार हीरानी की ‘3 इडियट्स’ देखी और उससे बहुत प्रभावित हुए। वह कहते हैं, यह एक कमर्शियल, लेकिन प्योर फिल्म है। इसी के बाद उनके जेहन में फिर से फिल्म बनाने का विचार पैदा हुआ। जहां तक विद्या बालन से प्रभावित होने का सवाल है तो इसके पीछे ‘पा’ फिल्म में विद्या का अभिनय है, जिसके लिए उन्हें अनेक सम्मान मिल चुके हैं। विद्या फिलवक्त ‘नो वन किल्ड जेसिका’ में काम कर रही हैं। हुसैन साहब का कहना है कि वह अपनी इस कॉमेडी फिल्म को अगले साल शुरू करने वाले हैं। लेकिन इस सवाल का जवाब वह पूरी तरह नहीं देते कि इस फिल्म में विद्या बालन ही होंगी या कोई और। वह बस इतना कहते हैं कि विद्या बेहतरीन अभिनेत्री और सुंदर स्त्री हैं।
सुधांशु

घरेलू ब्यूटी पार्लर, दूसरों का चेहरा और अपना भविष्य संवारिए


1994 में जब सुष्मिता सेन मिस यूनिवर्स और ऐश्वर्या राय मिस वर्ल्ड चुनी गयीं तो सही अर्थों में यह सौंदर्य के प्रति जागरूकता की शुरुआत थी। रफ्ता-रफ्ता यह शुरुआत एक बड़े उद्योग में तब्दील होती गयी और आज तमाम छोटे और बड़े शहरों की लड़कियां इस उद्योग के जरिये न केवल अपना करियर बना रही हैं, बल्कि अपने सपनों को भी साकार कर रही हैं। कैसे ब्यूटी बिजनेस ने लड़कियों के लिए रोजगार के अवसर खोले हैं, इस पर सुधांशु गुप्त की रिपोर्ट।
बात 1994 की है। भारत में आर्थिक उदारीकरण और वैश्वीकरण की बयार धीमी गति से चलने लगी थी। इसी साल सुष्मिता सेन और ऐश्वर्या राय नाम की दो भारतीय सुंदरियां अंतरराष्ट्रीय फलक पर छा गयीं। सुष्मिता सेन मिस यूनिवर्स और ऐश्वर्या राय मिस वर्ल्ड चुनी गयीं। इन दोनों को बग्घी में बैठा कर इंडिया गेट पर बाकायदा एक जुलूस निकाला गया। लोगों ने देखा कि सुंदर होना किस तरह आपको रातोंरात प्रसिद्ध और धनी बना सकता है। लोगों ने यह भी देखा कि खुद को लगातार सुंदर बनाए रखना आपको करियर की भी दिशा दे सकता है। यही वह समय था, जब छोटी उम्र की लड़कियों ने सुष्मिता और ऐश्वर्या को अपना रोल मॉडल मान कर उन्हीं की तरह हो जाने का सपना देखा। छोटी उम्र की लड़कियों की आंखों में पलने वाले इस सपने ने एक ओर जहां सौंदर्य के प्रति जागरूकता पैदा की, वहीं ब्यूटी को बिजनेस के रूप में बदलने के द्वार भी खोले।
ऐसा नहीं था कि पहले लड़कियां अपने आपको सजाने- संवारने के प्रति जागरूक नहीं थीं, लेकिन यह जागरूकता नितांत निजी किस्म की थी। पहले लड़कियां खुद को सुंदर बनाने के लिए अमूमन घरेलू उत्पादों का ही इस्तेमाल करती थीं और सुंदर दिखने का उनके लिए केवल यही अर्थ था कि वे अपने दोस्तों और घरवालों के लिए सुंदर दिख रही हैं। उस समय कोई नहीं जानता था कि सौंदर्य का यह कारोबार आने वाले समय में एक बड़े कारोबार में तब्दील होने जा रहा है। रफ्ता-रफ्ता लड़कियों की सौंदर्य के प्रति दीवानगी बढ़ी और बढ़ा सौंदर्य का बाजार। महानगरों, शहरों, छोटे शहरों और कस्बों तक में लड़कियां सुंदर दीखने की चाह पालने लगीं। इसका परिणाम यह हुआ कि हर गली-मोहल्ले में ब्यूटी पार्लर खुलने लगे। देखते-देखते यह कारोबार बड़े कारोबार की शक्ल अख्तियार करता गया। अकारण नहीं है कि आज ब्यूटी इंडस्ट्री लगभग 32 हजार करोड़ रुपये की हो चुकी है और इसमें प्रति वर्ष 20-25 फीसदी की बढ़ोत्तरी हो रही है। 2009 में भी विश्वव्यापी मंदी के बावजूद इस कारोबार में 15 फीसदी की वृद्धि हुई। ब्यूटी इंडस्ट्री से जुड़े लोगों का मानना है कि आने वाले वर्षों में इसमें 30-35 फीसदी प्रति वर्ष की वृद्धि अपेक्षित है।
रोजगार के बढ़े अवसर
जाहिर है इस लगातार वृद्धि ने महिलाओं के लिए रोजगार के भी तमाम अवसर पैदा किये। लड़कियों ने कुछ समय एक ब्यूटी पार्लर में काम सीखा और कुछ समय बाद अपना ब्यूटी पार्लर खोल लिया। ब्यूटी पार्लरों ने ना जाने कितने घरों को आर्थिक मजबूती दी और शहनाज हुसैन व भारती तनेजा जैसी अंतरराष्ट्रीय ब्यूटी एक्सपर्ट्स दीं, जिनका कारोबार आज लाखों करोड़ों में है। भारती तनेजा बताती हैं, यदि लड़कियां इसे एक कारोबार के रूप में चुनना चाहती हैं तो यह जरूरी है कि उनकी इस विषय में रुचि हो और उनमें सीखने की भावना हो। वह आगे कहती हैं कि यदि कोई लड़की महज दसवीं पास है, उसकी हिंदी और अंग्रेजी ठीक है और सजाने-संवारने में उसकी रुचि है तो वे ब्यूटी वर्ल्ड में अपनी पहचान बना सकती है।
कहां-कहां हैं स्कोप
ब्यूटी पार्लर खोलना या ब्यूटी पार्लर में काम करना इस काम की मूलभूत जानकारियां प्राप्त करना है। इसके लिए आप किसी भी अच्छे संस्थान से या किसी अच्छे ब्यूटी पार्लर से काम सीख सकती हैं और फिर अपना ब्यूटी पार्लर खोल सकती हैं। आप चाहें तो किसी ब्यूटी पार्लर में काम भी कर सकती हैं। आज औसत ब्यूटीशियंस भी दस से पंद्रह हजार रुपये महीना आराम से कमा रही हैं। निम्न मध्यवर्गीय कॉलोनियों में, स्लम एरिया तक में खुलने वाले ब्यूटी पार्लर इस बात के गवाह हैं कि किस तरह ब्यूटी बिजनेस लड़कियों को रोजगार मुहैया कराने में अहम भूमिका निभा रहा है।
मेकअप आर्टिस्ट के रूप में
अगर आप पढ़ी-लिखी हैं और आपने बाकायदा किसी अच्छे संस्थान से ब्यूटीशियन का कोर्स किया है तो आप एक मेकअप आर्टिस्ट के रूप में भी काम कर सकती हैं। टीवी, फिल्म, मीडिया हाउसेज में मेकअप आर्टिस्ट्स की हमेशा जरूरत बनी रहती है। लेकिन इसके लिए बेसिक मेकअप, एडवांस मेकअप और मीडिया मेकअप सीखना जरूरी है। मेकअप आर्टिस्ट के रूप में आप फ्रीलांसर के रूप में काम कर सकती हैं या फिर किसी प्रोडक्शन हाउस में स्थायी रूप से भी काम कर सकती हैं।
हेयर स्टाइलिस्ट
ब्यूटी वर्ल्ड ने रोजगार की इतनी शाखायें खोल दी हैं कि आप किसी में भी अपना करियर बना सकती हैं। हेयर स्टाइलिस्ट एक ऐसा ही चमकता हुआ रोजगार हो सकता है। इसके लिए जरूरी है कि आप अलग-अलग तरह के हेयर स्टाइल सीखें और इनोवेटिव व क्रिएटिव हों। बाल बनाते समय प्रयोग करना आपकी फितरत हो और आपको इस बात की समझ भी हो कि किस तरह के चेहरे पर कौन सा स्टाइल सूट करता है। आज बाजार में हेयर स्टाइलिस्ट की जबरदस्त मांग है।
मेहंदी व बॉडी आटिस्ट
सामान्य रूप से किसी भी ब्यूटी पार्लर में मेहंदी लगाई जाती है। लेकिन यदि मेहंदी लगाने में आप विशेषज्ञता हासिल कर लें तो यह ऐसी कला है, जिसमें आप भरपूर पैसा कमा सकती हैं। इसके लिए आपको ग्रीन मेहंदी, ग्लिटर मेहंदी, अरेबिक मेहंदी के अलावा फैंटेंसी मेकअप और बॉडी आर्ट के कोर्स करने पड़ेंगे या फिर आप अपने अनुभव से ही इन चीजों को सीख कर अपने करियर को चमका सकती हैं। इनके अलावा नेल आर्टिस्ट और ब्यूटी मैनेजर जैसे करियर भी आपके लिए बाजार में उपलब्ध हैं। बस जरूरत इस बात की है कि एक बार आप यह तय कर लें कि ब्यूटी बिजनेस में आपको कदम रखना है, उसके बाद सफलता आपके कदम चूमती दिखाई पड़ेगी।
यहां से करें कोर्स
शहनाज हुसैन इंटरनेशनल ब्यूटी एकेडमी।एल्प्स एकेडमी ऑफ हेयर एंड ब्यूटी।हबीब्स हेयर एकेडमी।पड़ोस के किसी भी पार्लर से।
अगर आप अच्छे ब्यूटी पार्लर में काम करती हैं तो 8 से पंद्रह हजार रुपये प्रति माह तक कमा सकती हैं। और अपना ब्यूटी पार्लर खोलती हैं तो आय और भी ज्यादा हो सकती है। मेकअप आर्टिस्ट या हेयर स्टाइलिस्ट के रूप में इनकम क्लाइंट्स पर निर्भर करती है।
..और बेटियों को पढ़ा दिया
पूर्वी दिल्ली में रहने वाली 24 वर्षीया नगमा के जेहन में 1994 में यह विचार आया कि क्यों ना वह किसी ब्यूटी पार्लर में काम करें। महज सातवीं तक तालीम हासिल करने वाली नगमा उस समय विवाहित थीं और चार बेटियों की मां भी थीं। जीवन की हकीकतों से रूबरू होने वाली नगमा यह बखूबी जानती थीं कि यदि वह अपनी बेटियों को अच्छी तालीम हासिल कराना चाहती हैं तो उसके यह जरूरी है कि वह खुद भी काम करें। उन्होंने पहले काम सीखा, कुछ साल किसी दूसरे के ब्यूटी पार्लर में काम किया। लेकिन उनके साहस और हौसले ने उन्हें लगातार आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया। आज पूर्वी दिल्ली की एक निम्न मध्यवर्गीय कॉलोनी विश्वकर्मा नगर के 88 प्रताप खंड में उनका अपना छोटा-सा ब्यूटी पार्लर है-पारस, जिसमें वह पंद्रह हजार रुपये प्रति माह तक कमाती हैं। पेश है उनसे हुई बातचीत:
आपके जेहन में यह बात कैसे आई कि ब्यूटी पार्लर का काम करना है?
मैंने खुद अच्छी तालीम हासिल नहीं की है। चार बेटियां होने के बाद मुझे लगा कि यदि मैंने कोई काम नहीं किया तो शायद मेरी बेटियां भी तालीम से महरूम रह जाएंगी, इसलिए मैंने ब्यूटी पार्लर का काम सीखने की सोची और एक ब्यूटी पार्लर में काम सीखने लगी। मैंने काम सीखने के लिए 300 रुपया महीना दिया। इसके बाद मैं उसी ब्यूटी पार्लर में साढ़े चार सौ रुपये प्रति माह पर काम करने लगी। कई साल काम करने के बाद मैंने अपने छोटे से घर में ही अपना पार्लर खोल लिया।
और आप कितने रुपये प्रतिमाह तक कमा लेती हैं?
मैं दस हजार से लेकर पंद्रह हजार रुपये तक कमा लेती हूं।
आज आपकी चारों बेटियां पढ़ रही हैं। आपको कैसा लगता है?
मैं अल्लाह की शुक्रगुजार हूं कि उसने ब्यूटी पार्लर के जरिये मुझे एक रास्ता दिखाया, जिस पर चल कर मैं अपने बच्चों को तालीम दिलवा पाई।
ब्यूटी पार्लर के काम के अलावा क्या आपने कुछ और भी सीखा?
मैंने मेहंदी लगाना सीखा। साथ ही मैंने एक साल पड़ोस में रहने वाली आंटी से बाकायदा अंग्रेजी सीखी।
क्या आप अपने काम को और विस्तार देना चाहती हैं?
हां, मैं चाहती हूं कि मैं अपना बड़ा सा ब्यूटी पार्लर बनाऊं।

सुधांशु गुप्त

लिव इन रिलेशनशिप ..मगर समाज को भाता नहीं सहजीवन


लिव इन रिलेशनशिप को लेकर एक बार फिर बहस शुरू हो गयी है, लेकिन ऐसे लोगों की संख्या अभी भी उंगलियों पर गिनी जा सकती है, जो बिना विवाह किये साथ रह रहे हैं या रहना चाहते हैं। जहां तक कानून का सवाल है तो कानून ने कभी भी इसे अपराध नहीं माना। क्या हैं लिव इन रिलेशनशिप के पेंच? सुधांशु गुप्त की रिपोर्ट
पिछले दिनों दक्षिण भारतीय अभिनेत्री खुशबू की ओर से दायर विशेष अनुमति याचिका पर सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी करते हुए कहा कि शादी किये बगैर एक महिला और पुरुष के एक साथ रहने को अपराध नहीं माना जा सकता। कोर्ट ने यह भी कहा कि लिविंग टुगेदर न तो अपराध है और न अपराध हो सकता है। गौरतलब है कि खुशबू ने पांच साल पहले एक इंटरव्यू में विवाह पूर्व रिश्तों का समर्थन किया था। इस बयान के बाद खुशबू पर 22 आपराधिक मामले दायर हो गये थे। ये तमाम मामले उन लोगों द्वारा दायर किये गये थे, जो खुशबू के बयान को नैतिकता के चश्मे से देख रहे थे, लेकिन कोर्ट की टिप्पणी ने लिव इन के पक्षधरों के चेहरे इस तरह खिला दिये हैं, मानो कोर्ट ने लिव इन रिलेशनशिप के पक्ष में कोई फैसला दे दिया हो।
इससे पूर्व सन् 2008 में महाराष्ट्र सरकार ने पहल करते हुए किसी पुरुष के साथ लंबे समय से रहने वाली महिला को वैध पत्नी का दर्जा देने का फैसला किया था। इसके लिए राज्य ने सीआरपीसी की धारा 125 में संशोधन किया था। तब भी लिव इन रिलेशनशिप को लेकर बहस छिड़ गयी थी। लेकिन यहां यह गौरतलब है कि यदि वयस्क महिला और पुरुष एक साथ रहने का फैसला करते हैं तो वह किसी भी भारतीय कानून के अनुसार अपराध नहीं है, बल्कि अनुच्छेद-21 के तहत हर इनसान को जीने की स्वतंत्रता का अधिकार है और लिविंग टुगेदर भी जीने का ही एक अधिकार है। यानी बिना विवाह किये साथ रहने को कानून कभी भी अपराध नहीं मानता और न ही हमारे देश में ऐसा कोई कानून है, जो इस तरह के रिश्तों पर रोक लगाता हो।
पौराणिक कथाओं में मौजूद लिव इन
भारतीय पौराणिक कथाओं में विवाह की जो तमाम पद्धतियां मौजूद हैं, उनमें से एक गंधर्व विवाह भी है। इसमें स्त्री और पुरुष ईश्वर के सामने एक दूसरे को पति-पत्नी स्वीकार कर लेते हैं। इस रिश्ते का इन दोनों के अलावा किसी और को पता नहीं होता। गंधर्व विवाह की इस पद्धति को उस समय भी जायज माना जाता था। कमोबेश इसी का आधुनिक रूप लिव इन रिलेशनशिप कहा जा सकता है। मध्यप्रदेश की कुछ जनजातियों में इसी तरह की प्रथा को घोटुल नाम से जाना जाता है।
क्या हैं दिक्कतें
अनीता (बदला हुआ नाम) 1984 से अपने दोस्त के साथ बिना विवाह किये साथ रहीं। 2002 में इन दोनों ने बाकायदा शादी कर ली। अनीता बताती हैं, बिना विवाह किये साथ रहने में सबसे ज्यादा समस्याएं माता-पिता ही पैदा करते हैं। उन्हें हमेशा यह लगता है कि उनके बच्चे (जो बड़े हो चुके हैं) कोई फैसला खुद नहीं ले सकते।
विवाह संस्था बनाम लिव इन
विवाह नामक संस्था की खामियों और नारी मुक्ति आंदोलनों ने ही युवाओं को बिना विवाह किये साथ रहने के लिए प्रेरित किया है। लिव इन के पक्षधर लोगों का तर्क है कि विवाह नामक संस्था अब पुरानी हो गयी है। इसमें इतने अधिक पाखंड घर करते जा रहे हैं कि इसका वर्तमान स्वरूप में बचे रहना संभव नहीं दिखता। खासतौर पर वैवाहिक रिश्ते में पुरुष को हर तरह के नाजायज रिश्ते बनाने की छूट होती है, जबकि महिलाएं विवाह को ही अपना सर्वस्व मानती हैं। लिहाजा लिव इन रिलेशनशिप दोनों को बराबर की आजादी देता है। हालांकि लिव इन में भी यदि महिला को यह पता चलता है कि पुरुष के किसी और स्त्री से संबंध बने हैं तो महिला को उतनी ही तकलीफ होती है, जितनी किसी पत्नी को हो सकती है। यानी लिव इन में भी वे तमाम आशंकाएं काम करती हैं, जो किसी वैवाहिक रिश्ते में करती हैं। यही वजह है कि आज भी समाज में ऐसे रिश्ते बहुत कम दिखाई पड़ते हैं।
परंपरागत ही है भारतीय समाज
भारतीय समाज तमाम प्रगतिशीलता के बावजूद आज भी परंपरावादी ही है। यही वजह है कि हम विवाह नामक संस्था में यकीन करते हैं। हमारे संस्कार और हमारे मूल्य हमें इस बात की इजाजत नहीं देते कि बिना विवाह किये कोई लड़का और लड़की साथ रहें। खासतौर पर छोटे शहरों और कस्बों में रहने वाला युवा तो आज भी लिव इन के बारे में सोच नहीं सकता।
वैचारिक बदलाव है लिव इन
क्या विवाह संस्था के विकल्प के रूप में उभर रहा है बिना विवाह किये साथ रहने का रिश्ता? अनीता कहती हैं, समाज अभी इसके लिए तैयार नहीं है। केवल उसी स्थिति में यह विवाह का विकल्प बन सकता है, जब करोड़ों युवा लिव इन में रहने लगें। अभी ऐसा नहीं है। अभी केवल उच्च वर्ग के गिने-चुने लोग या फिर ग्लैमर की दुनिया के लोग ही लिव इन के पक्षधर दिखाई पड़ते हैं, लेकिन लिव इन को वैचारिक बदलाव तो कहा ही जा सकता है।
पाप नहीं है लिव इन
यह सच है कि बिना विवाह किये स्त्री और पुरुष का एक साथ रहना कोई पाप नहीं है और ना ही कानून इसे पाप मानता है। यह दो लोगों बेहद निजी फैसला है, लेकिन इसके आधार पर विवाह नामक संस्था को अस्वीकार कर देना भी कहां तक उचित है?

सुधांशु

गुप्त

अंगना में उतरा आईपीएल


टीवी पर क्रिकेट मैच देखना महिलाओं को अमूमन बहुत ज्यादा पसंद नहीं आता, खासकर इसलिए भी, क्योंकि इन मैचों को देखने के लिए उन्हें अपने पसंदीदा धारावाहिकों की बलि देनी होती है। लेकिन इस बार आईपीएल-3 के दौरान महिला दर्शकों की बढ़ती संख्या यह साबित कर रही है कि अब महिलाओं को क्रिकेट रास आने लगा है। सुधांशु गुप्त की रिपोर्ट।
हिंदुस्तान में क्रिकेट अगर मजहब है तो अब तक यह एक मिथ ही था कि महिलाओं को टीवी पर मैच देखना रास नहीं आता। टीवी का अर्थ उनके लिए सास बहू संस्कृति के वे अंतहीन धारावाहिक रहे हैं, जो उन्हें एक कल्पनालोक में ले जाते हैं। इसलिए जब मार्च के दूसरे सप्ताह में आईपीएल-3 की शुरुआत हुई तो यह कयास लगाये गये कि आईपीएल मैचों के चलते महिलाएं अपने प्रिय धारावाहिकों को देखने से वंचित रहेंगी।
वैसे भी आईपीएल का पहला और दूसरा संस्करण इस बात के गवाह रहे हैं कि इस दौरान टीवी कार्यक्रमों की रेटिंग में जबरदस्त गिरावट आती है। तो आईपीएल शुरू होने से पहले ही दो स्तरों पर काम शुरू हो गया था। एक तो विभिन्न चैनलों ने ऐसी रणनीति बनाई, जिससे उनके दर्शक टीवी से दूर न भागें। इसके लिए उन्होंने अपने जमाने की सुपरहिट फिल्में दिखाने के साथ-साथ ऐसे प्रोग्राम भी तैयार किये, जो दर्शकों-खासकर महिला दर्शकों को आईपीएल से दूर रख सकें। उधर एक कंपनी ने इस बाबत एक सर्वे किया और उसमें कई दिलचस्प तथ्य सामने आये।
जीएफके नामक इस कंपनी ने दिल्ली, मुंबई, कोलकाता और चेन्नई में यह सर्वे किया। इस सर्वे का मकसद यह देखना था कि क्या आईपीएल के दौरान घरेलू महिलाओं की टीवी देखने की आदत में कुछ बदलाव आता है? सर्वे में पाया गया कि 67 प्रतिशत महिलाएं इस बात से चिंतित थीं कि आईपीएल के दौरान उनके पति के मैच देखने के कारण उन्हें अपने पसंदीदा धारावाहिकों को छोड़ना पड़ेगा, जबकि 33 फीसदी महिलाएं अपने पतियों के साथ क्रिकेट का आनंद उठाना पसंद करती थीं।
पूरे भारत के संदर्भ में देखें तो केवल एक तिहाई महिलाएं ही क्रिकेट टीवी पर देखना पसंद करती हैं। हर तीन में से दो महिलाएं इस बात से चिंतित दिखाई दीं कि वे अपने पसंदीदा धारावाहिक नहीं देख पायेंगी। सचिन के शहर मुंबई की पांच में से चार महिलाओं ने आईपीएल के दौरान अपने सीरियल न देख पाने की चिंता प्रकट की, जबकि दिल्ली और चेन्नई की तीन में से दो महिलाओं और कोलकाता की हर दो में से एक महिला अपने सीरियल न देख पाने के लिए चिंतित थी। इस सर्वे में एक और दिलचस्प नतीजा यह सामने आया कि 52 प्रतिशत पति-पत्नी सप्ताह में कम से कम एक बार टीवी पर अपनी पसंद के प्रोग्राम देखने को लेकर अवश्य लड़ते हैं। 27 फीसदी पति-पत्नी एक माह में कम से कम एक बार इस मुद्दे पर तर्क-वितर्क करते हैं। केवल 21 फीसदी पति-पत्नी ऐसे पाये गये, जो एक माह में एक बार भी इस मुद्दे पर नहीं झगड़ते। यानी आईपीएल शुरू होने से पहले ही इस बात की आशंकाएं थीं कि कम से कम घरेलू महिलाओं के लिए शाम आठ बजे से 11 बजे तक टीवी देखना संभव नहीं होगा, क्योंकि इस दौरान आईपीएल के मैच चल रहे होंगे।
12 मार्च से शुरू हुए आईपीएल मैचों ने घरेलू महिलाओं की दिनचर्या ही बदल दी है। पूर्वी दिल्ली में रहने वाली 35 वर्षीया दीपिका का कहना है, पहले मैं आठ बजे तक घर का सारा काम निपटा कर टीवी के सामने बैठ जाती थी, लेकिन अब मैं घर का काम ही दस बजे तक निबटाती हूं, क्योंकि मैं जानती हूं कि मैं टीवी नहीं देख सकती। यही नहीं, दीपिका आगे कहती हैं, पहले मैं ग्यारह बजे तक टीवी देख कर सोती थी और अब दस बजे तक ही सो जाती हूं।
इस पूरी तस्वीर का एक दूसरा पहलू भी है। आईपीएल के आयोजकों ने क्रिकेट मैचों में मनोरंजन का तत्व भी भरपूर मिला दिया है। चीयर लीडर्स, मैचों में प्रीति जिंटा, शिल्पा शेट्टी, कैटरीना कैफ, दीपिका पादुकोन और शाहरुख खान की उपस्थिति और मैचों के दौरान उनकी प्रतिक्रियाएं भी महिला दर्शकों को लुभाने का काम कर रही हैं और आईपीएल का पहला पखवाड़ा बीतने के बाद इस तरह की खबरें भी सामने आईं कि अब महिलाएं-खासकर कामकाजी महिलाएं भी टीवी पर क्रिकेट देखना पसंद करने लगी हैं। दिलचस्प तथ्य यह भी उभर कर आया है कि अब पत्नियां अपने पतियों पर इस बात का दबाव डालती हैं कि वे क्रिकेट मैच देखें। एमैप रेटिंग्स बताती हैं कि विभिन्न उम्र की महिलाओं का बड़ा दर्शक वर्ग आईपीएल देख रहा है। इसके अनुसार, जिन घरों में केबल और सेटेलाइट चैनल्स हैं, वहां घरेलू महिलाओं की रेटिंग 5.0 पायी गयी। 35-44, 45-54 और 55 साल से अधिक की महिलाओं की रेटिंग क्रमश: 4.9, 5.1 और 5.0 पायी गयी। इसमें भी वर्किंग एग्जीक्यूटिव महिलाओं की रेटिंग सबसे ज्यादा 5.3 थी, जबकि स्कूल और कॉलेज छात्रों की रेटिंग क्रमश: 3.2 और 4.4 थी।
एक और दिलचस्प बात यह सामने आई कि महिलाओं ने अपनी रुचियों के हिसाब से अपनी पसंद की टीमों को चुन लिया है। मिसाल के तौर पर यदि किसी को सचिन तेंदुलकर का खेल पसंद है तो वह सचिन की टीमों के साथ होने वाले मैचों को ही देखती है। इसी तरह दिल्ली की महिलाएं वीरेंद्र सहवाग और गौतम गंभीर की वजह से दिल्ली के मैच देखना पसंद करती हैं।
दिल्ली में रहने वाली युवा लड़कियों को युवराज सिंह पसंद हैं। 22 वर्षीया अपूर्वा कहती हैं, मुझे युवराज का खेल बहुत पसंद है, इसलिए मैं पंजाब इलेवन का कोई मैच नहीं छोड़ती। युवा लड़कियों का कहना है कि आईपीएल देखने से एक तनावरहित आनंद मिलता है। वास्तव में आईपीएल-3 के चलते युवा लड़कियों में भी क्रिकेट के प्रति दीवानगी बढ़ी है। टेलीविजन ऑडियंस मैजरमेंट (टीएएम) की रिपोर्ट्स के अनुसार, आईपीएल दर्शकों में इस बार 38 फीसदी महिलाएं शामिल हैं। इसका मतलब यह हुआ कि आईपीएल की 66.99 मिलियन महिला फैन हैं, जबकि पिछले साल 34 फीसदी महिला दर्शक आईपीएल देख रही थीं। यानी इस आईपीएल ने उस मिथ को तोड़ने का काम किया है, जिसके अनुसार महिलाएं क्रिकेट को नापसंद करती थीं।
सुधांशु
गुप्त

विज्ञापन की दुनिया सबसे अमीर हैं आमिर


लगभग 22 साल पहले आमिर खान की ‘कयामत से कयामत तक’ फिल्म आई थी। फिल्म के हिट होने के बाद आमिर के पास फिल्मों के ढेरों प्रस्ताव आने लगे, लेकिन आमिर उनमें से अधिकांश प्रस्तावों को रिजेक्ट करते जा रहे थे। उनके दोस्तों ने उनसे पूछा कि आखिर वह फिल्में स्वीकार क्यों नहीं कर रहे? आमिर ने बड़ी गंभीरता से जवाब दिया, ‘यार मैं एक दुबला-पतला लड़का हूं, मेरी हाइट 5 फुट 5 इंच है और मेरी आवाज में भी अमिताभ-सा जादू नहीं है। ऐसे में यदि मैं सारी फिल्में साइन कर लूंगा तो जल्द ही मैं भी अन्य कलाकारों की तरह भीड़ में गुम हो जाऊंगा। इसलिए मुझे अपनी पहचान बनाने के लिए कुछ अलग करना होगा।’ और इन गुजरे 22 सालों में आमिर खान ने वाकई भीड़ से अलग अपनी पहचान बनाई है। फिल्मों में ही नहीं, बल्कि विज्ञापनों की दुनिया में भी आज आमिर खान किंग हैं। पिछले दिनों उन्होंने संयुक्त अरब अमीरात की एक कंपनी का विज्ञापन 35 करोड़ रुपये की राशि में साइन किया। यह वही आमिर खान हैं, जिन्होंने 1993 में अपने पहले एन्डोर्समेंट के महज 17 लाख रुपये लिए थे। यानी इन सत्रह सालों में आमिर खान 17 लाख से 35 करोड़ रुपये तक पहुंचे हैं। यानी आज वे सचमुच सबसे ज्यादा पैसा लेने वाले सितारे हैं। बेशक एड गुरु प्रह्लाद कक्कड़ कहते हों कि किसी स्टार को इतनी ज्यादा रकम देना एक खराब स्थिति है, लेकिन आमिर ने यहां तक पहुंचने के लिए बहुत लंबा सफर तय किया है। वह अपने विज्ञापनों के लिए भी कड़ी मेहनत करते हैं, उसकी पटकथा, अपनी इमेज और प्रोडक्ट की इमेज का पूरा ध्यान रखते हैं।
चालीस की उम्र का क्रेज
आज बॉलीवुड के बादशाह माने जाने वाले शाहरुख खान लगभग 39 ब्रांड्स एन्डोर्स कर रहे हैं। पेप्सी, हुंडई, एयरटेल, वीडियोकॉन, सन फीस्ट और मयूर सूटिंग इनमें से प्रमुख हैं। लेकिन शाहरुख भी एक एन्डोर्समेंट के लिए महज 15 करोड़ रुपये ही ले रहे हैं। अक्षय कुमार और सलमान खान का आकंड़ा भी 12 से 15 करोड़ के आसपास का है। दिलचस्प बात है कि ये सभी सितारे चालीस की उम्र पार कर चुके हैं, लेकिन इसके बावजूद इन्हें कंज्यूमर को माल बेचने के लिए उपयुक्त पाया गया है। इस मामले में अमिताभ बच्चन एक ऐसे अपवाद हैं, जो 60 से ऊपर के होने के बावजूद लगातार विज्ञापन कर रहे हैं। और लोग भी उन्हें पसंद करते हैं। वास्तव में होता यह है कि उपभोक्ताओं के अवचेतन में किसी ब्रांड के साथ कोई चेहरा फिक्स हो जाता है। मिसाल के लिए नवरत्न तेल का ही पर्याय अमिताभ बच्चन बन गये थे। उसी तरह ठंडा मतलब कोक की पहचान आमिर खान से हो गयी थी। लिहाजा प्रोडक्ट बेचने के लिए कंपनियां लंबे समय तक इस स्थिति को कैश करना चाहती हैं।
कपल्स द्वारा विज्ञापन
बीच में एक ट्रैंड यह भी आया था, जिसमें बॉलीवुड के कपल्स को एन्डोर्समेंट के लिए साइन किया जाता था। पहले जॉन अब्राहम और बिपाशा बसु ने कई एन्डोर्समेंट साथ किये। इसके बाद सैफ अली खान और करीना कई कमर्शियल में एक साथ दिखाई दिये। इसी कड़ी में अभिषेक बच्चन और ऐश्वर्या राय ने भी एक विज्ञापन हाल ही में साइन किया है और खबरें हैं कि इन दोनों को इस विज्ञापन के लिए 25 करोड़ रुपये की राशि प्रस्तावित की गयी है। लेकिन यह ट्रैंड भी अब कम हो रहा है और करीना ने ही कई विज्ञापनों में सैफ के साथ काम करने से इनकार कर दिया है। संभवत: इसकी एक वजह यह हो सकती है कि परिवारों द्वारा खरीदे जाने वाले उत्पादों में वे प्रेमी-प्रेमिका को साथ नहीं लेना चाहते। लेकिन चूंकि अभिषेक और ऐश्वर्या पति-पत्नी हैं, इसलिए परिवार के कॉन्सेप्ट पर ये दोनों ज्यादा सूट करते हैं।
आम आदमी क्यों ना बने रोल मॉडल
लगभग एक दशक पहले के टीवी के विज्ञापनों को याद करें तो कुछ ऐसे विज्ञापन जरूर याद आएंगे, जो बिना किसी सिलेब्रिटी के हुआ करते थे। इन विज्ञापनों की खास बात यह होती थी कि ये पूरी तरह कॉन्सेप्ट पर आधारित होते थे और दर्शक इन विज्ञापनों में किसी सिलेब्रिटी को देखने की बजाय कॉन्सेप्ट को ही पसंद करता था। वॉशिंग पाउडर निरमा और टू मिनट नूड्ल्स ऐसे ही कुछ विज्ञापन हैं, लेकिन यह कॉन्सेप्ट बहुत ज्यादा नहीं चल पाया।
हालांकि इसमें एक फायदा यह था कि इसकी लागत कम होने की वजह से उत्पादों की बाजार कीमतें ज्यादा नहीं बढ़ती थीं, क्योंकि यदि कोई कंपनी एक विज्ञापन के लिए 35 करोड़ रुपये दे रही है, तो वह पैसा अंतत: उपभोक्ताओं की जेब से ही जाएगा। तो क्या यह संभव नहीं कि आम आदमी को ही रोल मॉडल बना कर विज्ञापनों में पेश किया जाए, जिस तरह रेडियो में अक्सर किया जाता है।
आमिर खान एक विज्ञापन के लिए: 35 करोड़शाहरुख खान: 15 करोड़अक्षय कुमार: 15 करोड़ऋतिक रोशन: 15 करोड़सलमान खान: 12 करोड़ऐश्वर्या राय: 10 करोड़
युवाओं को प्राथमिकता
अन्य तमाम क्षेत्रों की तरह ही एन्डोर्समेंट की दुनिया में भी यह ट्रैंड साफ तौर पर देखा जा रहा है कि युवाओं को अहमियत दी जाए। पिछले दिनों कई ऐसे एन्डोर्समेंट युवाओं द्वारा किये गये, जिन्हें पहले चालीस की उम्र के अभिनेता कर रहे थे। कोक का एन्डोर्समेंट इमरान खान के हाथ आया और लक्स साबुन का ऐश्वर्या राय के हाथों से निकल कर कैटरीना कैफ के हाथों में आ गया। रणबीर कपूर हाल ही में जॉन प्लेयर के ब्रांड अम्बेसेडर बनाए गये हैं। इससे पहले ऋतिक रोशन इस ब्रांड से जुड़े थे। अभिनेत्रियों में दीपिका पादुकोन और करीना कपूर एन्डोर्समेंट क्वीन्स कही जा सकती हैं। टीवी पर दिखाई देने वाले जिन नये चेहरों को दर्शक ज्यादा पसंद कर रहे हैं, उनमें इरफान खान वोडाफोन के विज्ञापन के लिए और शरमन जोशी एयरटेल और नोकिया के विज्ञापनों के लिए पसंद किये जा रहे हैं।

सुधांशु गुप्त

जब पति करे पत्नी से बलात्कार!


पति द्वारा पत्नी के साथ जबरदस्ती सेक्स संबंध यानी मैरिटल रेप को लेकर काफी अरसे से बहस चल रही है। इसका ही परिणाम है कि भारत सरकार इस तरह के बलात्कार को भी अपराध की श्रेणी में लाने के लिए संसद में एक बिल पेश करने वाली है। आखिर स्त्रियों के पास पति को सेक्स संबंध के लिए ना कहने का अधिकार क्यों नहीं होना चाहिए। सुधांशु गुप्त की रिपोर्ट।
शारीरिक और मनोवैज्ञानिक प्रभाव
यह एक ऐतिहासिक मिथ है कि मैरिटल रेप में महिलाओं को कम आघात पहुंचता है। इस क्षेत्र में हुए अनुसंधान इस मिथ को गलत साबित करते हैं। ये बताते हैं कि महिलाओं को मैरिटल रेप के परिणाम उम्र भर भुगतने पड़ते हैं। शारीरिक रूप से प्राइवेट पार्ट्स पर चोट आना, मसल्स फटना, उल्टी और थकान जैसी शिकायत हो सकती है। शॉर्ट टर्म असर के रूप में चिंता, सदमा, डिप्रेशन और सेक्स के प्रति डर के साथ-साथ उनके भीतर आत्महत्या की प्रवृत्ति भी पैदा हो सकती है।
भारत में स्थिति क्या है
सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले में कहा था, बलात्कार मूलभूत मानवाधिकार के खिलाफ है और यह संविधान की धारा 21 का उल्लंघन है, जिसके तहत इनसान को जीने का अधिकार मिलता है। लेकिन इसके बावजूद फिलवक्त तक हमारा कानून विवाहित महिलाओं के साथ पतियों द्वारा किये गये बलात्कार को अपराध से मुक्त मानता है। और इससे इस धारणा को बल मिलता है कि महिलाओं के पास अपने पति के साथ सेक्स संबंध से इनकार करने का कोई हक नहीं है और यह स्थिति पतियों को अपनी पत्नियों के साथ बलात्कार का लाइसेंस देती दिखाई पड़ती है। इस मामले में केवल दो तरह की महिलाएं कानून से सुरक्षा पा सकती हैं। एक वे, जिनकी उम्र पंद्रह साल से कम है और दूसरी वे, जो अपने पतियों से अलग रह रही हैं। सरकार इसी संदर्भ में एक बिल लाने पर विचार कर रही है।
बहस के मूल बिंदू
यह बहस लगातार जारी है कि मैरिटल रेप को अपराध की श्रेणी में लाया जाए या नहीं। इसे अपराध की श्रेणी में न लाने के पीछे जो तर्क दिये जा रहे हैं, वे कहते हैं-यह अनकॉमन होते हैं, इसलिए इन्हें कानूनी शक्ल नहीं दी जानी चाहिए। दूसरा तर्क है, इससे पहले से ही बोझ से दबी न्यायप्रणाली पर मुकदमों का बोझ और बढ़ेगा। एक तर्क यह भी है कि पतियों से असंतुष्ट और क्रोधित महिलाएं सीधे-सादे पतियों को फंसाने के लिए उन पर बलात्कार का आरोप लगा कर कभी भी उन्हें फंसा सकती हैं। और सबसे मजबूती के साथ यह तर्क दिया जाता है कि इससे विवाह और परिवार की अवाधारणा खतरे में पड़ सकती है। लेकिन यह तर्क कितने खोखले हैं, यह इस बात से समझा जा सकता है। पहली बात अगर यह बहुत अनकॉमन हैं तो अदालतों पर बोझ कैसे बढ़ेगा? दूसरी बात, अगर महिलाएं पतियों को फंसाने के लिए इसका इस्तेमाल करेंगी तो उसके लिए उनके पास दूसरे (दहेज, घरेलू हिंसा) जैसे तमाम कानून है, फिर वे इसका ही इस्तेमाल क्यों करेंगी? और तीसरा, विवाह और परिवार को बचाने के लिए महिलाएं ही आखिर कब तक सब कुछ सहती रहेंगी? दूसरी ओर इसे अपराध के दायरे में लाने वालों के पास ज्यादा पुख्ता तर्क हैं। हाल ही में एक गैर सरकारी संगठन द्वारा किये गये अध्ययन के नतीजे बताते हैं कि यह बहुत आम अपराध है, जिसे बहुत कम दर्ज किया जाता है। अध्ययन यह भी बताता है कि हर सात में एक महिला कभी न कभी पति द्वारा बलात्कार का शिकार होती है। एक तर्क यह भी दिया जाता है कि इस तरह के बलात्कार को अदालत में साबित करना बहुत मुश्किल होगा। सवाल यह है कि अगर किसी अपराध को साबित करना मुश्किल है तो क्या उसके लिए बने कानूनों को खत्म कर देना चाहिए?
कुछ सुझाव
प्रगतिशील सोच के लोगों द्वारा इस मामले में कुछ सुझाव आम राय से दिये जा रहे हैं। कुछ काबिले गौर हैं। संसद द्वारा मैरिटल रेप को एक अपराध के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए और इसके लिए वही सजा होनी चाहिए, जो भारतीय दंड संहिता की धारा 376 के तहत बलात्कारी को दी जाती है। इस तथ्य के बावजूद कि दोनों पार्टियां शादीशुदा हैं, सजा कम नहीं की जानी चाहिए। इस मामले में तलाक का विकल्प महिलाओं के पास होना चाहिए। आज अमेरिका, इंग्लैंड और न्यूजीलैंड जैसे कई देशों में मैरिटल रेप को अपराध माना जा चुका है, इसलिए 100वें अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के इस वर्ष में महिलाओं को बेडरूम में होने वाले बलात्कारों से मुक्ति मिलनी ही चाहिए।
मेरी शादी को दस साल हो गये हैं। शुरू-शुरू में मेरा पति रोज रात को मेरे साथ सेक्स संबंध बनाता था। मुङो समझ नहीं आता था कि मैं कैसे उसे मना करूं। कई बार मैंने उसे समझाने की कोशिश की, लेकिन वह नहीं माना। अब मैंने ही स्थिति से समझौता कर लिया है और सोचती हूं कि जैसे चल रहा है, वैसे ही चलने दूं अन्यथा घर में और ज्यादा झगड़ा होगा। (पूर्वी दिल्ली में रहने वाली 35 वर्षीया रजनी)
लगभग छह साल पहले जब मेरी शादी हुई तो मुझे सेक्स संबंधों के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। मेरे पति ने मुझे कुछ समझाने या बताने की बजाय सुहागरात के दिन ही मेरे साथ जबरदस्ती संबंध बनाये। मुझे बुरा लगा, लेकिन मेरी सहेलियों ने मुझे समझाया कि सुहागरात पर ऐसा ही होता है। तो मुझे लगा कि यही ठीक होगा। सो मैंने इस स्थिति को ही सही मान लिया है। (मयूर विहार में रहने वाली 28 वर्षीया रेशमा)
जाहिर है निम्न मध्यवर्गीय, मध्यवर्गीय और उच्च विवाहित महिलाओं को अक्सर अपने पति द्वारा बलात्कार का शिकार होना पड़ता है। सिमोन द बोउवार ने एक जगह कहा है-स्त्री पैदा नहीं होती, बल्कि बनाई जाती है। भारतीय समाज में स्त्रियों को इसी रूप में ढाला गया कि वे पुरुष की अर्धागिनी हैं, सहनशीलता की मूर्ति हैं और उनके भीतर सब कुछ बर्दाश्त करने की ताकत है। वे अपने लिए नहीं जीतीं। पहले वे अपने पिता और भाइयों की इज्जत के लिए जीती हैं, फिर अपने पति की इज्जत के लिए और बाद में अपने बेटों की इज्जत के लिए। यानी उन्हें अपने लिए जीने का कोई हक नहीं होता! दूसरी तरफ पुरुष भी पैदा नहीं होता, बल्कि बनाया जाता है। उसे इस रूप में बनाया जाता है कि वह मर्दानगी और ताकत का पर्याय है, स्त्री उसकी संपत्ति है, वह उसे खुश करने के लिए पैदा हुई है, इसलिए वह पति द्वारा किये जा रहे बलात्कार को चुपचाप बर्दाश्त करती रहती है, महज इसलिए कि पति-पत्नी का ‘पवित्र रिश्ता’ टूट न जाए।
क्या है मैरिटल रेप
आम जुबान में कहें तो मैरिटल रेप का सीधा-सा अर्थ है, जब पति पत्नी की इच्छा के बिना उसके साथ शारीरिक संबंध बनाता है। 1970 में पहली बार मैरिटल रेप पर अमेरिका में चर्चा शुरू हुई तो आमतौर पर पति-पत्नी के बीच तीन प्रकार के बलात्कार पाये गये। पहला, बैटरिंग रेप्स। इसमें महिलाएं शारीरिक और यौन हिंसा की शिकार होती हैं। इसमें पति पत्नियों की इच्छा के खिलाफ सेक्स संबंध बनाने के लिए हिंसा का सहारा लेता है और उन्हें तरह-तरह से प्रताड़ित करता है। दूसरा, फोर्स टू रेप। इस तरह के बलात्कार में पति केवल उतनी ही ताकत का इस्तेमाल करता है, जिससे वह शारीरिक संबंध बना पाये। इसमें वह पत्नी का मारता-पीटता नहीं। और तीसरा है जुनूनी रेप। इसमें पति पत्नी को प्रताड़ना देने में खास तरह के सुख का अनुभव करता है।
यहां मैरिटल रेप है कानूनी
अफगानिस्तान में पिछले साल जब पूरी दुनिया 99वां महिला अंतरराष्ट्रीय वर्ष मनाने की तैयारियों में जुटी थी, उस समय अफगानिस्तान में महिलाओं के खिलाफ एक कानून पास करने की तैयारियां चल रही थीं। मार्च 2009 में अफगानिस्तान के राष्ट्रपति हामिद करजई ने जिस बिल पर हस्ताक्षर किये हैं, वह बिल मैरिटल रेप को कानूनी दर्जा देता है। यह कानून एक पुरुष को उस स्थिति में भी पत्नी से सहवास करने की इजाजत देता है, जब पत्नी सहवास के लिए मना कर रही हो। बिल की आलोचना करने वाले इस बात पर आश्चर्य कर रहे हैं कि राष्ट्रपति ने किस तरह इस बिल पर हस्ताक्षर कर दिये। दिलचस्प बात यह भी है कि संसद के निचले सदन के 249 सदस्यों में से 68 महिला सदस्य भी हैं और कई महिला सदस्यों ने भी इस बिल के पक्ष में मतदान किया है। इस बिल के खिलाफ मत देने वाली फौजिया कूफी का कहना है कि कुछ सदस्यों को इस बात का आभास भी नहीं था कि उन्होंने किस चीज के पक्ष में मत दिया है। अफगान संविधान का आर्टिकल 22 सभी पुरुषों और महिलाओं को समान अधिकार देने का वादा करता है और इसी आधार पर अफगानिस्तान की महिलाएं यह उम्मीद कर रही हैं कि सुप्रीम कोर्ट शायद यह रूलिंग दे कि नया कानून आर्टिकल 22 का उल्लंघन है।
आने वाला है नया विधेयक
भारत सरकार महिलाओं को पतियों की जबरदस्ती से बचाने के लिए जल्द ही एक विधेयक लाने जा रही है। प्रस्तावित कानून में सरकार ने वैवाहिक दुश्कृत्य यानी पति द्वारा पत्नी के साथ जबरदस्ती सेक्स संबंध को अलग से पेश करने की योजना बनाई है। अब तक इस तरह के मामले को घरेलू हिंसा कानून के तहत ही निपटा जाता रहा है। गौरतलब है कि महिला एवं बाल विकास मंत्रलय (डब्ल्यूसीडी) और राष्ट्रीय महिला आयोग (एनसीडब्ल्यू) की सिफारिशों के बाद कानून मंत्रलय ने प्रस्तावित कानून का एक ड्राफ्ट तैयार किया है। इसमें आईपीसी, सीआरपीसी 1973 और साक्ष्य कानून 1872 के कुछ खंडों में संशोधन कर उन्हें दुश्कृत्य की नयी परिभाषा के अनुसार बदला जा रहा है। इस प्रस्तावित बिल के बाद मैरिटल रेप को एक अपराध माना जाएगा और पत्नी की शिकायत के बाद पति को तीन साल की सजा तक हो दी जा सकेगी।
लाइसेंस टू रेप
1985 में अनुसंधानकर्ता डेविड फिन्केल्होर और यल्लो की न्यूयॉर्क, फ्री प्रेस से एक किताब प्रकाशित हुई-लाइसेंस टू रेप: सेक्सुअल अब्यूज ऑफ वाइव्स। इस किताब को लिखने से पहले उन्होंने 300 विवाहित महिलाओं को एक प्रश्नपत्र दिया। उन्होंने इन महिलाओं से पूछा था कि क्या आपके पतियों ने सेक्स संबंध बनाने के लिए आपसे कोई जोर- जबरदस्ती की। इनमें से दस फीसदी महिलाओं को जवाब ‘हां’ था। उनके द्वारा दिये गये प्रश्नपत्र में और भी कई सवाल थे। महिलाओं से पूरा डाटा एकत्रित करने के बाद इन दोनों लेखकों ने उम्र, शिक्षा, आय के आधार पर यह पुस्तक लिखी। इन दोनों लेखकों ने लगभग 50 ऐसी महिलाओं से इंटरव्यू भी किये, जो अपने पतियों के यौन उत्पीड़न का शिकार थीं। संभवत: मैरिटल रेप पर लिखी गयी यह पहली पुस्तक है, जिसने वैवाहिक रिश्तों के भीतर होने वाले बलात्कारों पर रोशनी डाली है। लेखक ने इस किताब में उन परिस्थितियों पर भी रोशनी डाली है, जिनमें बलात्कार होते हैं या हो सकते हैं।

सुधांशु गुप्त

ये है रीडिंग का नया स्टाइल


‘बिना किताबों के घर उसी तरह है, जिस तरह बिना खिड़कियों के मकान।’
शायर और गीतकार गुलजार अक्सर यंगस्टर में कम होती रीडिंग हैबिट को लेकर अपनी चिंताएं प्रकट कर चुके हैं। उन्हीं की लिखी लाइन है-किताबें झांकती हैं, बंद अलमारी के शीशों से। गुलजार ही नहीं, साहित्य और संस्कृति से जुड़े दूसरे तमाम लोग भी अक्सर युवा पीढ़ी पर इस बात के आरोप लगाते रहे हैं कि वे किताबों से दूर हो रहे हैं। हो सकता है उनकी बातों में सच्चाई हो, लेकिन आज के यंगस्टर इस बात से बेपरवाह अपनी पसंद की किताबें अपने स्टाइल से पढ़ना पसंद करते हैं।
दरअसल आज का यंगस्टर बुक्स और लाइफ दोनों को ही पढ़ना चाहता है। उसे कौन सी किताबें पढ़नी हैं, कैसे और कहां पढ़नी हैं, यह वह खुद तय करता है। वह परंपरागत अंदाज में किताबों की दुनिया में खो नहीं जाना चाहता, बल्कि उसे बाहर की दुनिया भी उतनी ही आकर्षित करती है, जितनी किताबें। आज के यंगस्टर को सूचनाओं से भरीपूरी, रूमानी, तकनोलॉजी पर लिखी किताबें और बड़े लोगों की बायोग्राफी इम्प्रेस करती है। लेकिन दुनिया में आये तमाम बदलावों ने जिस तरह लोगों के लाइफ स्टाइल को इम्प्रेस किया है, उसी तरह रीडिंग हैबिट भी बदली है। बल्कि कहा जा सकता है कि यंगस्टर्स ने अपने लाइफ स्टाइल में बुक्स को शामिल किया है।
कुछ साल पहले की रीडिंगलगभग दो दशक पहले के दौर को याद कीजिए। बुक लवर्स बस स्टॉप्स पर, कभी-कभी बसों में, पिन ड्रॉप साइलेंस वाली लाइब्रेरीज में किताबों की दुनिया में खोये रहा करते थे। वे परंपरागत पुस्तकालय इस तरह के होते थे (कुछ पुस्तकालय अब भी ऐसे ही हैं), जो आपको बाहरी दुनिया से लगभग काट दिया करते थे। आज का यंगस्टर्स अगर इस तरह की लाइब्रेरीज में बैठे तो डर कर भाग सकता है। यह पुराना दौर था, जब सब कुछ बहुत धीमी रफ्तार से चला करता था। लेकिन आज की एसएमएस जेनरेशन उस अंदाज में बुक्स नहीं पढ़ सकती। उसने अपनी स्पीड और लाइफ स्टाइल के हिसाब से अपनी प्राथमिकताएं तय की हैं। हाल ही में दिल्ली में हुए पुस्तक मेले में यंगस्टर्स की बड़े पैमाने पर भागीदारी भी यही साबित करती है कि वे बुक्स से दूर नहीं हुए हैं।
मैट्रो ने दी रीडिंग को नई जमीनकिसी शहर का ट्रांसपोर्ट सिस्टम किस तरह रीडिंग कल्चर पैदा कर सकता है, यह बात साबित की है मैट्रो ने। 2002 में राजधानी में मैट्रो सेवा शुरु हुई। और महज आठ सालों में ही इसमें सफर करने वालों की संख्या करोड़ों में पहुंच गई। दिलचस्प बात है अगर आप मैट्रो को ध्यान से देखें तो इसमें आपको तमाम ऐसे युवा दिखाई पड़ेंगे, जिनके हाथ में चेतन भगत, इरिक सीगल, शिडनी शेल्डन या उनके पसंदीदा किसी लेखक की कोई किताब होगी। यही नहीं, यह मैट्रो ही है, जिसमें युवा अपने कॉलेज या स्कूल तक की पढ़ाई करते दिखाई पड़ते हैं। इसके अलावा मैट्रो स्टेशनों पर बने बुक स्टोर में भी अक्सर युवाओं के किताबों से प्रेम को देखा जा सकता है। लेकिन युवा मैट्रो में ही क्यों पढ़ना पसंद करते हैं? इसका मूल कारण है मैट्रो का कम्फर्टेबल होना। मैट्रो में बहुत ज्यादा भीड़ होने के बावजूद युवा लड़के-लड़कियों को इतना स्पेस मिल जाता है कि वे चेतन भगत की टू स्टेटस हाथ में लेकर पढ़ सकें। वरना जरा सोचिए कि क्या डीटीसी और ब्लू लाइन में इस तरह की सुविधा कभी मिल सकती थी?
किताबी कीड़ा नहीं है यंगस्टर्सआज के युवाओं को किताबें आकर्षित तो करती हैं, लेकिन उन्हें बाहर की दुनिया कहीं ज्यादा आकर्षित करती है। वे मोबाइल, इंटरनेट, टीवी, मॉल्स सबमें रुचि लेते हैं। उन्हें किताबी कीड़ा बनना पसंद नहीं है। लेकिन क्योंकि यह इनफॉरमेशन ऐज है, इसलिए यंगस्टर्स जानता है कि उन्हें बुक्स से कितनी सूचनाएं और नोलेज प्राप्त होगी और नेट से कितनी। इसलिए वह बेशक बुक्स पढ़ता है, लेकिन बुक्स के हिसाब से न चलकर अपनी लाइफ स्टाइल के हिसाब से चलता है। यही वजह है कि बुक्स उन पर हावी नहीं होतीं। साथ ही वह अपनी बदलती प्राथमिकताओं को भी अच्छी तरह से जानता और समझता है और उसी के अनुसार वह बुक्स चूज करता है। और इसमें कुछ गलत भी नहीं है।
बाजार ने समझी यंगस्टर्स की जरूरतयंगस्टर्स की बदलती जरूरत बाजार ने भी समझी है। बाजार को भी यह समझ में आया कि अब युवाओं को पहले वाले अंदाज में नहीं पढ़ाया जा सकता। लिहाजा ऐसे कॉन्सेप्ट बाजार में आए, जो बुक्स के साथ म्यूजिक और फूड का कॉम्बिनेशन पेश कर रहे थे। कैफे टर्टल एक ऐसा ही बुक्स और म्यूजिक स्टोर है, जहां यंगस्टर्स बैठकर पढ़ भी सकते हैं और म्यूजिक भी सुन सकते हैं। साथ ही यहां फूड की भी सुविधा है। और यहां का माहौल बेहद रूमानी है, जो आपके भीतर लाइफ जेनरेट करता है।
इसी तरह लगभग तीन साल पहले टाइमलैस आर्ट बुक स्टूडियो खुला। 1600 वर्ग फीट में बना यह विशाल स्टूडियो है, जहां आने वाले लग्जरी फील कर सकते हैं। इटैलियन मार्बल से बना यह स्टूडियो बुक शॉप्स को एक नया रूप देता दिखाई पड़ता है। यह एक ऐसा बुक स्टोर है, जहां प्लाज्मा स्क्रीन टेलीविजन है, लव टेबल्स हैं, फुटस्टॉल्स, रॉकिंग चेयर्स, सिक्स सीटर डाइनिंग टेबल और डबल बैड तक मौजूद हैं। कोटला मुबारकपुर में बना यह बुक स्टोर ऐसा है, जहां महंगी से महंगी किताबें मौजूद हैं। यहां रखी सबसे महंगी किताब 40,000 रुपए की है। इसके अलावा तमाम ऐसे बुक स्टोर राजधानी में खुले हैं, जहां बुक्स के साथ म्यूजिक को जोड़ा गया है।

सुधांशु गुप्त

बहुत कुछ पाया है मगर बहुत कुछ बाकी है अभी


आगामी आठ मार्च को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस है। संयोग से यह सौवां मौका है, जब हम इस दिवस को सेलिब्रेट करेंगे। और यही मौका हो सकता है, जब हम देखें कि महिलाओं ने पिछले कुछ वर्षों में क्या प्रगति की है और उनकी प्रगति की रफ्तार कितनी है। हमने इस मौके पर विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं की तरक्की को पहचानने की कोशिश की है। सुधांशु गुप्त की रिपोर्ट।
आने वाले 8 मार्च को हमें अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाते हुए 100 साल पूरे हो जाएंगे। इस दिवस को मनाने का मकसद यही था कि पूरी दुनिया की महिलाओं को समाज में बराबरी का दर्जा मिले, उनकी मांगों पर गौर किया जाए और समाज में उनके लिए भी विकास के बराबर मौके हों। तो क्यों ना इस अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर हम यह सोचें कि महिलाओं ने कितनी प्रगति की है। जाहिर है 100 साल की प्रगति का आकलन करना आसान नहीं है, लेकिन हम पिछले 25 सालों में भारत में महिलाओं ने क्या प्रगति की है, इसकी एक तस्वीर तो बना ही सकते हैं।
राजनीति और सामाजिक जागरूकता
पच्चीस साल पहले के राजनीतिक माहौल को याद कीजिए। महिला नेताओं के रूप में आपको उंगली पर गिनी जाने वाली महिलाओं के ही नाम याद आते थे। बेशक इंदिरा गांधी सबसे लोकप्रिय नेता रहीं, लेकिन उनके निधन के बाद ऐसी कोई महिला दिखाई नहीं देती थी, जो देश का नेतृत्व कर सके। लेकिन इन गुजरे 25 सालों में महिला नेताओं की तादाद बड़ी संख्या में बढ़ी है। यह संयोग नहीं है कि आज देश की राष्ट्रपति (प्रतिभा पाटिल), लोकसभा की स्पीकर (मीरा कुमार), विपक्ष की नेता (सुषमा स्वराज), कांग्रेस की अध्यक्ष (सोनिया गांधी), बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष (मायावती) के अलावा कई महत्त्वपूर्ण पदों पर महिलाओं की उपस्थिति देखी जा सकती है। बेशक महिलाओं को अभी संसद में 33 फीसदी आरक्षण नहीं मिला है, लेकिन जितने पुरजोर तरीके से इसकी मांग की जा रही है, वह साबित करता है कि राजनीति में महिलाओं की हिस्सेदारी और अपने हक लेने की जागरूकता इन गुजरे वर्षों में काफी बढ़ी है। आज अनेक गैर-सरकारी संगठन महिलाओं के पक्ष में खड़े हैं, जो महिलाओं के साथ होने वाले किसी भी अन्याय के खिलाफ मुहिम-सी चला देते हैं। रुचिका गिरहोत्र मामले पर जिस तरह से महिला संगठनों और मीडिया ने दबाव बनाया, वह भी महिलाओं की बढ़ती जागरूकता का ही परिणाम है। हालांकि मंजिल अभी दूर है, लेकिन इस क्षेत्र में हुई प्रगति को आप अनदेखा नहीं कर सकते।
तकनीक ने दिया आत्मविश्वास
पच्चीस साल पहले के राजाधानी दिल्ली के परिदृश्य को याद करते हैं। जरा याद कीजिये, एक निम्न मध्यवर्गीय इलाके में कितने महिलाएं ऐसी थीं, जिनके घर वॉशिंग मशीन, गैस या कुकर हुआ करते थे? ऐसी महिलाओं की संख्या नगण्य थी। लेकिन अगर आप आज उसी इलाके को देखें तो पायेंगे कि कमोबेश हर घर में ये तीनों चीजें मौजूद हैं। ऐसा नहीं है कि यह बदलाव निम्न मध्यवर्गीय इलाकों में ही हुआ है। स्लम एरिया तक में आपको ऐसे घर मिलेंगे, जहां ये तीनों चीजें तो मौजूद हैं ही, महिलाएं और युवा लड़कियां तक बेसाख्ता मोबाइल का इस्तेमाल कर रही हैं। 80 के दशक में जब मोबाइल का आगाज हुआ तो किसी ने नहीं सोचा था कि यह मोबाइल महिलाओं की भी जिंदगी बदल देगा। आज फ्लैट्स में आने वाली शायद ही कोई मेड ऐसी होगी, जो बिना मोबाइल के आती हो। शहरों में ही नहीं, ग्रामीण इलाकों में भी मोबाइल का इस्तेमाल करने वाली महिलाएं लगातार बढ़ रही हैं। ट्राई के आंकड़े कहते हैं कि वर्ष 2012 तक ग्रामीण इलाकों में 20 करोड़ टेलीफोन कनेक्शंस हो जाएंगे और इनमें महिला प्रोवाइडर्स की संख्या तीस फीसदी होगी। दिलचस्प बात है कि आज 50 साल से ऊपर की ग्रामीण महिलाएं भी मोबाइल फोन्स का इस्तेमाल कर रही हैं। इसके अलावा पच्चीस साल पहले राजधानी में भी क्या आपको युवा लड़कियां स्कूटी, स्कूटर या कार चलाते दिखाई पड़ती थीं? लेकिन आज दिल्ली की सड़कों पर इनकी संख्या लगातार बढ़ रही है। जाहिर है नयी तकनीक ने महिलाओं को आगे बढ़ने के तमाम रास्ते मुहैया कराये हैं।
साक्षरता ने बढ़ाया आत्मविश्वास
सरकारी और गैरसरकारी संगठनों ने महिला साक्षरता को लगातार बढ़ावा दिया है। इसके लिए तमाम प्रचार अभियान चलाए गये। ऐसा नहीं है कि हमने अपने लक्ष्य प्राप्त कर लिये हैं, लेकिन इसमें भी कोई शक नहीं है कि पिछले लगभग तीन दशकों में हमने महिलाओं की साक्षरता दर में काफी इजाफा किया है। आंकड़े बताते हैं कि 1981 की जनगणना के अनुसार देश में महज 29. 76 फीसदी महिलाएं ही साक्षर थीं, जबकि वर्तमान में महिला साक्षरता दर लगभग 56 फीसदी है। जाहिर है महिलाओं को भी अब यह बात समझ में आ रही है कि शिक्षा उनके लिए कितनी अहमियत रखती है और इसके बिना वे जीवन में कुछ नहीं कर सकती। मां-बाप भी अपनी बेटियों को शिक्षित कराने के लिए आगे आ रहे हैं और यह ट्रैंड शहरों में ही नहीं, बल्कि गांवों, कस्बों और छोटे शहरों में भी साफ देखा जा रहा है।
वर्किंग होने की इच्छा
इस बात से शायद ही कोई इंकार करेगा कि महिलाओं के भीतर पिछले पच्चीस सालों में आर्थिक रूप से स्वतंत्र होने यानी कामकाजी होने की प्रबल इच्छा पैदा हुई है। इसी का परिणाम है कि कम से कम शहरों में तो वर्किग होना आज महिलाओं की प्राथमिकता में है। और आंकड़े भी लगातार इस बात का दावा करते हैं कि कामकाजी महिलाओं का प्रतिशत लगातार बढ़ रहा है। दिलचस्प रूप से अगर हम छोटे शहरों और कस्बों की लड़कियों को देखें तो साफ पता चलता है कि ये लड़कियां पढ़ाई करके, छोटा-मोटा काम सीख कर नौकरी करना चाहती हैं। पिछले ढाई दशकों में महिलाओं के लिए बीपीओ, फ्रंट लाइन ऑफिस, रेडियो जॉकी, सिंगिंग, डांसिंग, बार टेंडर, चीयरलीडर्स जैसे कितने ही नये-नये करियर हैं, जिनके द्वार महिलाओं के लिए खुले हैं और महिलाएं इनमें अपना भविष्य तलाश रही हैं।
एन्टरटेनमेंट इंडस्ट्री में बढ़ता महिलाओं का रुतबा
गौर कीजिये ढाई दशक पहले आप बॉलीवुड की कितनी महिला निर्देशकों और निर्माताओं को जानती थीं? बहुत याद करने भी सई परांजपे जैसे एक दो नाम ही थे, लेकिन आज का परिदृश्य बिल्कुल बदल चुका है। आज बॉलीवुड में फराह खान, मीरा नायर, लीना यादव, गुरविंदर चड्ढा, हेमा मालिनी, जूही चावला, एकता कपूर, मेघना गुलजार जैसी कितनी ही महिलाएं हैं, जो निर्देशक और निर्माता के रूप में बेहतरीन काम कर रही हैं। मजेदार बात है कि लगातार युवा महिला निर्देशकों की संख्या बढ़ रही है। यह नहीं, शादी करने के बाद तमाम ऐसी अभिनेत्रियां हैं, जो अपने पति के साथ फिल्म निर्माण के काम में जुटी हैं। काजोल, ऐश्वर्या राय बच्चन, शिल्पा शेट्टी आज बॉलीवुड में अपनी सक्रिय उपस्थिति दर्ज करा रही हैं। यह सब समाज की सोच में आये बदलाव का ही नतीजा है और यह बदलाव ही साबित करता है कि पिछले पच्चीस सालों में हमने खासी प्रगति की है। लेकिन इस प्रगति पर मुग्ध होने की बजाय हमें उन दूसरे मुद्दों पर काम करना बाकी है, जो महिलाओं की प्रगति में बाधा बने हुए हैं। मिसाल के तौर पर कन्या भ्रूण हत्या, दहेज हत्या, सामाजिक भेदभाव आदि। साथ ही हमें महिला आरक्षण के लिए दबाव भी बढ़ाना होगा, ताकि महिलाओं को देश की संसद में उचित प्रतिनिधित्व मिल सके।
कैसे जानें कि आपने प्रगति की है?
आगामी आठ मार्च को अंतरराष्ट्रीय महिला वर्ष के 100 वर्ष पूरे हो रहे हैं। जाहिर है इन 100 वर्षों में महिलाओं ने अपने लिए नये रास्ते तलाशे हैं और प्रगति के कई सोपान तय किये हैं। सरकारी आंकड़े भी हमेशा यही कहते हैं कि पिछले कुछ वर्षों में महिलाओं ने कमोबेश हर क्षेत्र में प्रगति की है, लेकिन आम और मध्यवर्गीय महिलाएं सरकारी आंकड़ों पर अक्सर यकीन नहीं कर पातीं। तो क्या कोई ऐसा तरीका हो सकता है, जिससे महिलाएं खुद ही यह जान सकें कि उन्होंने कितनी प्रगति की है? जाहिर है 100 सालों की प्रगति की तस्वीर बनाना आसान नहीं है, लेकिन पिछले 25 वर्षों में आपने कितनी तरक्की की, यह जानने के लिए हम आपको एक कारगर तरीका बता रहे हैं। नीचे कुछ सवाल दिये गये हैं, इन सवालों का जवाब आपको हां या ना में देना है, लेकिन जवाब देने से पहले आपको पच्चीस साल पहले की स्थिति को याद रखना है। जाहिर है अपनी प्रगति को आंकने के लिए आपकी उम्र 35-40 के बीच होनी चाहिए।
1.क्या आपके पास कुकर है?2.क्या आपके पास वॉशिंग मशीन है?3.क्या आपके पास गैस है?4.क्या आप मोबाइल का इस्तेमाल करती हैं?5.क्या आपके पास स्कूटी/कार है?6.क्या आपका अपना बैंक अकाउंट है, जिसे आप संचालित करती हों?7.क्या आपके पास कंप्यूटर है?8.क्या आपने अपने नाम से कोई प्रॉपर्टी खरीदी है?9.क्या आप अपनी बेटियों का करियर बनाना चाहती हैं?10.क्या आप बाहर निकलते समय सुरक्षित महसूस करती हैं?11.क्या आप अपने परिवार में होने वाली डिलीवरी अस्पताल में ही होते देखती हैं?12.क्या आप अपनी सुंदरता और स्वास्थ्य के प्रति पहले से ज्यादा जागरूक महसूस करती हैं?13.क्या आप शॉपिंग के लिए मॉल्स जाती हैं?14.क्या आप एन्टरटेनमेंट पर कुछ खर्च करती हैं?15.क्या जिम जाती हैं?16.क्या आपकी ड्रेसेज में कुछ बदलाव आया है?17.क्या आप मॉर्निग वॉक पर जाती हैं? 18.क्या बाहर की दुनिया में आपके आत्मविश्वास में इजाफा हुआ है?19.क्या अपने पति के बिजनेस में कोई भूमिका निभाती हैं?20.क्या आप हवाई जहाज पर यात्रा करती हैं?इन सवालों के जवाब देने के बाद आप देखिये कि आपने कितने सवालों के जवाब हां में दिये। हां में दिये गये हर सवाल के लिए आपको पांच अंक मिलेंगे। यानी यदि आपके दस सवालों का जवाब हां में है, तो आपके कुल अंक हुए 50 यानी आपने पचास फीसदी प्रगति की। और यदि आपके सभी 20 सवालों का जवाब हां है तब आप यकीनन कह सकती हैं कि आपने 100 फीसदी प्रगति की है।

सुधांशु गुप्त

चलो बॉस इस बार होली बॉलीवुड में..


होली पर देश के कुछ राजनीतिज्ञों ने सोचा कि क्यों न बॉलीवुड का रुख किया जाए। क्यों न रंगों की हौदी में तारिकाओं संग डुबकी लगाई जाए। सेना सुप्रीमो काल ठाकरे ने तय किया है कि इस होली पर वे अपने सारे पाप धो लेंगे, शायद इसीलिए उन्होंने अपने सारे दोस्तों और कथित दुश्मनों को होली खेलने के लिए आमंत्रित किया। यूपी और बिहार के नेताओं को उन्होंने विशेष रूप से बुलाया। अमर सिंह, मुलायम सिंह, लालू प्रसाद यादव, राबड़ी देवी, मायावती और खास मेहमानों में एनडी तिवारी बुलाए गए। महाराष्ट्र से शरद पवार, राज ठाकरे, अशोक चव्हाण जैसे दिग्गज नेताओं के नाम भी लिस्ट में शामिल थे। राहुल गांधी, मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी भी बहुत आग्रह के बाद आने को राजी हो गये और क्रिकेट खिलाड़ियों में जावेद मियांदाद और अब्दुल रज्जाक को बुलाया गया।
ठाकरे जानते हैं कि राजनेताओं के मन में बॉलीवुड की अभिनेत्रियों के साथ होली खेलने की दबी-छिपी इच्छा हमेशा से मौजूद रही है, इसलिए उन्होंने सभी हॉट अभिनेत्रियों को इसमें आने की दावत दी। रीना कैफ, फरीना कपूर, रीपिका पॉपकॉन, श्रीयंका चोपड़ा, खाजोल, ईल्पा शेट्टी और अंगना रानावत के साथ उन्होंने अपने समय की ड्रीम गर्ल रही हेमा मालिनी और उनकी बेटी ईर्ष्या देओल को भी (लालू प्रसाद के आग्रह पर) बुलाया। और बॉलीवुड की बहू मानी जाने वाली माधुर्या राय को तो इस मौके पर आना ही था, क्योंकि उनके ससुर फजिताभ की यह जिद थी कि वह आएं। अभिनेताओं में काहरुख, मजय देवगन, सक्षय कुमार, फजिताभ बच्चन, सेफ ली खान, शागिर्द कपूर और इडियट जामिर खान को भी बुलाया गया। वेन्यू को शोले फिल्म के होली के सैट में तब्दील कर दिया गया था। लॉन में एक बड़ी कुरसी पर काला साहेब मौजूद थे। कार्यक्रम शुरू हुआ और मंच पर पाशा, रीना, अंगना और कीना ‘मैं आई हूं यूपी बिहार लूटने, गीत पर ठुमकने लगीं। पॉलीवुड के सभी लोग इस गाने पर झूम से रहे थे। तभी एनडी तिवारी उठे और मंच पर पहुंच कर इन बालाओं के संग नाचने लगे। अचानक उनकी नजर एक कैमरा मैन पर पड़ी और उनके नाचते हुए पैर थम गये। वह वापस अपनी सीट पर आकर बैठ गये। इसके बाद खाजोल, मजय और काहरुख को एक सॉन्ग पर परफॉर्म करना था। मजय देवगन को तबला बजाने की जिम्मेदारी दी गयी और काहरुख-खाजोल के साथ डांस कर रहे थे-गाना था रंग बरसे भीगे चुनर वाली रंग बरसे।
इसके बाद एक-दूसरे को गुलाल लगाने की सेरेमनी रखी गयी थी। सबसे पहले लालू यादव ने हे मा को गुलाल लगाया और शरारती अंदाज में कहा, हम बिहार की सड़कों को हे मा के गालों की तरह चिकना बनाये थे, पर नितीशवा ने उन्हें ऐसा बना दिया है, जैसे इनके गाल अब हैं-खुरदरे। नितीश ईर्ष्या देओल के साथ होली खेलने में मस्त थे। मनमोहन सिंह ने रीपिका को गुलाल लगाया। रीपिका राहुल गांधी के साथ होली खेलती रहीं। दोनों ने अपने सिंगल होने का दर्द भी बांटा। काहरुख ने काला साहेब के पास बैठे जावेद मियांदाद की तरफ देख कर एक मुस्कराहट फेंकी। मेहमानों की फरमाइश पर फजिताभ ने बरसों बाद अमरसिंह और माधुर्या के साथ खई के पान बनारस वाला.. गीत पर डांस किया। सब अमिषेक बच्चन को तलाश कर रहे थे, तभी भीड़ में से आवाज आईं वह तो जॉन के साथ दोस्ताना के सीक्वल में बिजी हैं। सबको भांग ऑफर करने के बाद काला साहेब ने कहा कि इस होली से यह महाष्ट्रियन मानुष सारी दुश्मनियां खत्म कर रहा है। अब मुंबई यूपी बिहार की भी है और पाक क्रिकेटर यहां आकर खेल सकते हैं। अब सेना एक सेक्यूलर पार्टी होगी। पार्टी में मौजूद लोग हैरान थे और सोच रहे थे कि काल ठाकरे ने भांग के कितने गिलास पिये हैं। तभी रीपिका ने राहुल गांधी के कान में कहा कि बाला साहेब को खाज ठाकरे ने कुछ ज्यादा ही भांग पिला दी है।

सुधांशु गुप्त

मॉडर्न होती मॉम


शहरों में रहने वाली आज की मांओं का स्वरूप परंपरागत नहीं रहा। घरेलू और कामकाजी दोनों ही तरह की महिलाएं खुद को बच्चों के अनुरूप ढाल रही हैं-वे मॉडर्न हो रही हैं और बच्चों के साथ उनकी दोस्त बन कर उनका विकास करना चाहती हैं। मॉडर्न होती आज की न्यू मॉम के वे कौन से सूत्र हैं, जो उन्हें अपने बच्चों के करीब ला सकते हैं और ला रहे हैं। बता रहे हैं सुधांशु गुप्त।
साउथ दिल्ली में रहने वाली नीता मिश्र का चार साल का बेटा है। नीता एक अखबार में नौकरी कर रही थीं। पिछले कुछ समय से वह यह महसूस कर रही थीं कि उनके बेटे को अपनी बात कहने में थोड़ी दिक्कत होती है। नीता ने कई बार सोचा कि उसे किसी डॉक्टर को दिखाया जाए। तभी उन्हें लंदन में हुए एक सर्वे की रिपोर्ट पढ़ने को मिली। इसमें कहा गया था कि हर छह में से एक बच्चों को बोलने में दिक्कत हो रही है। यह सर्वे उन बच्चों पर किया गया था, जिनकी मांएं नौकरीपेशा हैं और बच्चों को बहुत ज्यादा समय नहीं दे पातीं। इस सर्वे का नीता पर इतना गहरा असर हुआ कि उन्होंने तत्काल नौकरी छोड़ने का फैसला कर लिया और पूरा समय अपने बच्चों को देने लगीं। दिलचस्प रूप से यह एक नया ट्रैंड है, जो बताता है कि मांएं अपने बच्चों के लिए खुद को कितना बदल रही हैं। ऐसा नहीं है कि बच्चों की बेहतर परवरिश के लिए सभी महिलाएं नौकरियां छोड़ने की पक्षधर हैं, लेकिन नौकरीपेशा महिलाएं भी खुद को न्यू मॉम की अवधारणा में ढालने के लिए छह सूत्रीय फामरूले पर चलना पसंद करती हैं और चल रही हैं :
बच्चों के साथ होना
आप नौकरी कर रही हों या नहीं, लेकिन बच्चों के साथ समय बिताना आज बेहद जरूरी हो गया है। बावजूद इसके कि बच्चों के पास कंप्यूटर, इंटरनेट, टेलीविजन और वीडियो गेम्स जैसे तमाम विकल्प मौजूद हैं। शायद इनसे बच्चों को बचाने के लिए यह और भी जरूरी हो गया है कि मांएं बच्चों के साथ अच्छा समय बिताएं और यह बात वे समझ भी रही हैं। नीलम एक स्कूल में अध्यापिका हैं। वह सुबह सात बजे घर से निकलती हैं और दोपहर तीन बजे घर लौटती हैं, लेकिन इसके बाद वह खुद को घर के कामों में बिजी नहीं रखतीं, बल्कि अपने चार साल के बेटे के साथ पूरा समय बिताती हैं।
विशेषज्ञों का मानना है कि बच्चों के साथ समय बिताने का अर्थ यह नहीं है कि आप एक बंद कमरे में उनके साथ चुपचाप बैठे रहें या टीवी देखते रहें, बल्कि उनके साथ खेलना, उनकी एक्टिविटीज में शामिल होना, उनके साथ समय बिताना है। और निस्संदेह आज की न्यू मॉम इसी रास्ते पर चल रही हैं और चलना चाहती हैं। क्लिनिकल साइक्लोजिस्ट्स भी यह मानते हैं कि अपने बच्चों के लिए रोल मॉडल बनना चाहिए। बच्चों को अच्छे आदर्श, नैतिकता और अच्छा व्यवहार सिखाने का यही एकमात्र तरीका है।
शांत रहिए
अमूमन नौकरीपेशा मांएं अपने ऑफिस का तनाव घर तक ले आती हैं और इस तनाव का असर बच्चों पर भी पड़ता है। बच्चों के साथ बात-बात पर गुस्सा करना, असहनशील होना, ऐसी उम्मीद करना कि बच्चा हर वक्त आपकी हर बात मानेगा, महानगरों में आम बात हो चुकी है। इसकी वजह शायद यह भी है कि अभिभावक भी हर समय एक अनदीखते से तनाव में रहते हैं, लेकिन बच्चों का इस सबसे कोई लेना-देना नहीं होता और इस तनाव का उनके विकास पर गहरा असर हो रहा है। अच्छी बात यह है कि इस बात को आज की न्यू मॉम समझने लगी हैं। वह अपने आप से ही यह वादा करती हैं कि वे अपने बच्चों के साथ कूल व्यवहार करेंगी। बकौल नीलम कई बार स्कूल में बहुत टैंशन होती है, लेकिन मैं कोशिश करती हूं कि वह टैंशन घर पर प्रकट न हो।
हैल्दी फूड
महानगरों में जंक फूड ने बच्चों की ईटिंग हैबिट को काफी खराब किया है। कई बार शौक में और कई बार जरूरत के चलते मांएं भी बच्चों को जंक फूड खाने के लिए कह देती हैं, लेकिन इस तरह के फूड से पैदा होने वाली समस्याओं से आज की मॉडर्न मांएं अब अनजान नहीं रहीं, इसीलिए वे बच्चों को हैल्दी फूड के लिए प्रेरित कर रही हैं। वे बच्चों की पसंद का फूड घर पर ही बना कर देती हैं। इससे बच्चों को भी यह अहसास होता है कि उनकी मां उनकी जरूरतों का ध्यान रख रही हैं और इस तरह मांएं बच्चों में हैल्दी फूड हैबिट्स डालने की सफल कोशिश कर रही हैं।
रीडिंग को फन बनाएं
नीता मिश्र अपने बेटे में रीडिंग हैबिट विकसित करने के लिए एक दिलचस्प प्रयोग करती हैं। वह नियमित रूप से अपने बेटे को कोई कहानी पढ़ कर सुनाना शुरू करती हैं। लेकिन जब कहानी दिलचस्प मोड़ पर पहुंचती हैं तो वे कहती हैं कि बाकी कहानी कल पढ़ेंगे। उनका बेटा कहानी सुनाने की जिद करता है तो वह कहती हैं कि चलो आगे की कहानी तुम पढ़ कर सुनाओ और आगे की कहानी बच्चा खुद पढ़ कर सुनाता है। इससे बच्चों में स्वाभाविक रूप से रीडिंग हैबिट विकसित हो रही है। साथ ही उनका अपनी मांओं के साथ एक भावनात्मक रिश्ता भी बन रहा है।
टीवी देखने का समय कम करें
आज के दौर में हालांकि यह बहुत मुश्किल काम है कि बच्चों को टीवी देखने से रोका जाए, लेकिन यदि बच्चों को दूसरे आउटडोर या इनडोर खेलों के लिए प्रेरित किया जाए तो टीवी देखने का समय अवश्य कम किया जा सकता है और अनेक महिलाएं न केवल बच्चों को दूसरे खेलों के लिए प्रेरित करती हैं, बल्कि उनके साथ कैरम, चैस और लूडो जैसे खेल खुद भी खेलती हैं। ऐसे समय में बच्चा खुद को आपका दोस्त महसूस करता है।
दोस्त बनती मांएं
मांओं के लिए यह जानना भी बहुत जरूरी है कि उनके बच्चों के कौन दोस्त हैं, वे आपस में किस तरह की बातें करते हैं, उनकी पसंद और नापसंद क्या है। और मांएं बाकायदा ऐसा कर रही हैं। वे अपने बच्चों के सभी दोस्तों के फोन नंबर खुद रखती हैं, उनसे समय-समय पर बातचीत करती रहती हैं, ताकि उन्हें यह पता चलता रहे कि उनके बच्चों के दोस्त क्या सोच और क्या कर रहे हैं। इससे बच्चों को भी यह लगता है कि उनकी माएं उनकी ही दोस्त हैं। दिलचस्प बात यह है कि वे यह सब कुछ बेहद सहज ढंग से कर रही हैं और करना चाहती हैं।
बॉलीवुड की सुपर मॉम
बॉलीवुड में अनेक ऐसी अभिनेत्रियां हैं, जिन्होंने अपने बच्चों की देखरेख के साथ अपने करियर को भी बराबर तवज्जो दी। काजोल ने अजय देवगन के साथ विवाह के बाद फिल्मों में काम करना बंद कर दिया था। बेटी न्यासा के जन्म के बाद तो वह पूरा समय उसे ही देती रहीं, लेकिन अब काजोल ने ‘माई नेम इज खान’ से दोबारा फिल्मों में वापसी की है। वह करियर और परिवार इन दोनों में संतुलन बनाए हुए हैं। यह स्थिति माधुरी दीक्षित की थी। वह डॉक्टर श्रीराम नेने से विवाह के बाद अमेरिका चली गयी थीं। चार साल बाद वह ‘देवदास’ में वापस लौटीं और इसके बाद उन्होंने ‘आजा नच ले’ की। मलाइका अरोड़ा, करिश्मा कपूर कुछ ऐसी ही मॉम हैं, जिन्हें सुपर मॉम की श्रेणी में रखा जा सकता है।

महा मुकाबला में किंग खान की गूंज


पिछले दिनों मुंबई में चैंबूर स्थित बीपीएल स्पोर्ट्स क्लब में ‘अमूल म्यूजिक का महा मुकाबला’ का भव्य सैट लगा हुआ था। ओपन स्पेस में बने इस सैट के सामने एक खुला मैदान था, जहां दर्शकों की बेतहाशा भीड़ थी। इनमें युवाओं के साथ-साथ प्रौढ़ और वृद्ध लोगों की संख्या भी काफी थी, जो इस बात का प्रतीक थी कि इस तरह के मुकाबलों में केवल युवाओं की नहीं, बल्कि उम्रदराज लोगों की भी काफी रुचि है। भव्य सैट के पास ही कुछ पैवेलियन (अस्थायी रूम) भी बने हुए थे और उनके बाहर टीम के कप्तानों के नाम लिखे थे।
शंकर, शान, श्रेया घोषाल, हिमेश रेशमिया, मिका और मोहित चौहान। और हर कमरे के बाहर से गाने की आवाजें आ रही थीं यानी इन सभी टीमों के सदस्य रियाज में जुटे थे और टीमों के कप्तान अपने-अपने खिलाड़ियों के अभ्यास को दुरुस्त करने में लगे हुए थे। चारों ओर घूमते दर्शक म्यूजिक के इस महा मुकाबला को इस तरह एन्जॉय कर रहे थे, मानो यहां कोई अलग किस्म का ट्वेंटी-20 क्रिकेट मैच होना हो। दिलचस्प बात यह भी थी कि दर्शक मैच से पहले के इस अभ्यास को भी पूरे मनोयोग से देख रहे थे। कुछ युवा लड़के-लड़कियों के परिधान इस तरह के थे, मानो वे खुद इस शूटिंग में शामिल होने वाले हों। दर्शकों की रुचि का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि क्रिकेट मैचों की तरह ही दर्शकों ने अपनी-अपनी पसंद की टीमें चुन रखीं थीं और वे उन्हें सपोर्ट करने वाले थे। लेकिन दर्शकों की बहुत ज्यादा संख्या के पीछे एक मूल कारण था कि इस शो में किंग खान यानी शाहरुख खान आने वाले थे, अपनी फिल्म ‘माई नेम इज खान’ के प्रोमोशन के लिए।
इस संगीतमय माहौल के बीच अचानक नजर शान पर पड़ी। एक टीम के कप्तान शान अपने रियाज रूम के बाहर रिलेक्स मुद्रा में टहल रहे थे। मन में सवाल उठा कि क्या इस तरह के मुकाबले म्यूजिक को सचमुच कोई फायदा पहुंचाते हैं या देश की प्रतिभाओं को मुनासिब मंच देते हैं? शान ने बड़े सहज भावसे जवाब दिया, यह सच है कि इनमें से कोई मोहम्मद रफी, किशोर या मुकेश जैसा सामने नहीं आने वाला और न ही इनमें से कोई बहुत अच्छा गायक निकलने वाला है, लेकिन इस टेलेंट हंट शो के जरिये तमाम ऐसे युवा सामने आएंगे, जो गायकी से ही अपनी रोजी-रोटी आराम से चला सकेंगे। मुझे लगता है कि इस तरह के शो एक पैरलल इंडस्ट्री को जन्म दे रहे हैं। एक ऐसी इंडस्ट्री, जिसमें बहुत से युवाओं को गायकी का मौका मिलेगा।
शान की बात सच लग रही थी, इसलिए भी क्योंकि गायकी का अभ्यास करने वाले अधिकांश युवाओं की आंखों में जो चमक दिखाई दे रही थी-वह एक फनकार बनने की चमक नहीं थी, बल्कि वह इस तरह की चमक थी, जो किसी अपने करियर को दिशा मिलने के बाद युवाओं की आंखों में दिखाई देती है। तभी कहीं से गाने के बोल सुनाई दिये-‘कजरारे कजरारे, तेरे कारे-कारे नैना..’ और कई युवा वहीं डांस करने लगे। यह संयोग ही था कि इस गाने के शुरू होते ही वहां शंकर दिखाई दिये। उनका कहना था कि जो भी बच्चों इस मंच पर आते हैं, मैं उन्हें यह समझाने की कोशिश करता हूं कि वे मौलिक गाएं, किसी की नकल न करें। और इस मंच के माध्यम से यदि मैं युवाओं को यह बता समझा-सकूंगा तो मेरे और युवाओं दोनों के लिए अच्छा होगा।

सुधांशु गुप्त

रैंप से होकर जाता है बॉलीवुड का रास्ता


रैंप से बॉलीवुड तक का सफर तय करने की एक लंबी परंपरा बॉलीवुड में रही है। दीपिका पादुकोन, बिपाशा बसु, प्रियंका चोपड़ा, कैटरीना कैफ, करीना कपूर और प्रीति जिंटा से लेकर तमाम ऐसी सफल अभिनेत्रियां हैं, जिन्होंने रैंप से बॉलीवुड तक का सफर तय किया है। सन् 2007 में फराह खान की फिल्म ‘ओम शांति ओम’ से फिल्मों में आने वाली दीपिका ने अपने अब तक के करियर को बेहद खूबसूरती से संवारा है। इससे पहले भी तमाम ऐसी अभिनेत्रियां रही हैं,जिन्होंने रैंप से बॉलीवुड तक का सफर सफलतापूर्वक तय किया है।
सवाल उठता है कि रैंप चलने वाली मॉडल्स बॉलीवुड में क्यों सफल साबित होती हैं? फिल्म निर्माताओं का मानना है कि मॉडल्स का फिल्मों में प्रवेश एक फ्रैशनेस का अहसास तो कराता ही है, साथ ही वे ज्यादा प्रोफेशनल भी होती हैं। हालांकि एक लंबे समय तक यह धारणा बनी रही है कि मॉडल्स अच्छी अभिनेत्रियां साबित नहीं होतीं, लेकिन हर बार रैंप से फिल्मों में आई मॉडल्स ने इस धारणा को गलत साबित किया है। शायद यही वजह है कि इस साल भी अनेक मॉडल्स फिल्मों में डेब्यू करने जा रही हैं।
कुमार तौरानी अपनी अगली फिल्म ‘प्रिंस: इट्स शोटाइम’ में इंग्लैंड बेस्ड मॉडल अरुणा शील्ड्स को ब्रेक दे रहे हैं। अरुणा पैंटीन, एस्काडा और लक्स के लिए मॉडलिंग कर चुकी हैं। बोल्ड हैं और उन्हें बिकनी बॉडी के लिए परफेक्ट माना जाता है। मोनी कंगना दत्ता फिल्मों में आने से पहले ही काफी चर्चित हो चुकी हैं। मोंटे कालरे और तनिष्क ज्वैलरी के लिए विज्ञापन करने वाली मोनी का विदेशी लुक खासा पसंद किया गया है। संभवत: इसी वजह से संजय लीला भंसाली ने उन्हें अपनी फिल्म ‘गुजारिश’ में ब्रेक दिया है। मोनी कहती हैं, मेरे पास पिछले चार सालों से फिल्मों के प्रस्ताव आ रहे थे, लेकिन मैं अपने मॉडलिंग असाइनमेंट पूरा करने में बिजी थी। जब मेरे पास संजय लीला भंसाली का प्रस्ताव आया तो मैं मना नहीं कर पायी, क्योंकि वह मेरे पसंदीदा डायरेक्टर हैं।
लेकिन मोनी को रैंप की दूसरी मॉडल्स से कड़ी प्रतियोगिता का सामना करना पड़ेगा। टीना देसाई माडलिंग की दुनिया का एक और जाना-पहचाना नाम है, जो उन्हें टक्कर देने के लिए पूरी तरह तैयार हैं।टीना जायेद खान के साथ ‘शराफत गयी तेल लेने’ से डेब्यू कर रही हैं। टीना फेयर एंड लवली, हीरो होंडा, नेस्कैफे और सैमसंग के विज्ञापन कर रही हैं। उनका क्यूट और बबली लुक दर्शकों का दिल जीतने के लिए काफी है। इसके अलावा पूर्व मिस इंडिया वर्ल्ड 2008 पार्वती ओम्नाकुट्टम, मिस इंडिया अर्थ 2006 अमृता पटकी या मिस वर्ल्ड 2006 के अंतिम चरण तक पहुंची नताशा सूरी इस साल परदे पर आने वाले नये चेहरे होंगे और ये अपनी ही रैंप की साथियों को कड़ी टक्कर देंगी। टीना देसाई का मानना है कि मॉडलिंग के अपने प्रेशर हैं, लेकिन फिल्मी दुनिया में असुरक्षा है। टीना अनुपम खेर की एक अनाम फिल्म में भी काम कर रही हैं। दीपक तिजोरी की ‘भाग जॉनी’ में डेब्यू करने वाली नताशा सूरी कहती हैं, अभिनय मॉडलिंग का ही विस्तार है।
इसी विस्तार को और अघिक बल देंगी पार्वती ओम्नाकुट्ट्म, जो विशाल आर्यन की फिल्म ‘यूनाइटेड सिक्स’ से डेब्यू करेंगी। फिल्म जीवन के विभिन्न क्षेत्रों से आई छह लड़कियों की कहानी है, जो एक अजीब-सी स्थिति में एक दूसरे के करीब आ जाती हैं। पार्वती को अपनी इस फिल्म से बहुत उम्मीदें हैं। दूसरी मॉडल्स की आंखों में भी फिल्मी दुनिया पर राज करने का सपना तैर रहा होगा। और यह भी सच है कि इन मॉडल्स को उन अभिनेत्रियों के मुकाबले ज्यादा फायदा होता है, जो सीधे कैमरे के सामने से अपना करियर शुरू करती हैं। अब देखना है कि इन नयी मॉडल्स में से कौन दीपिका साबित है और कौन बिपाशा।

सुधांशु

समानांतर सिनेमा का पुनर्जन्म!


बॉलीवुड में सन 2009 को इस बात के लिए याद किया जाएगा कि इस साल बड़े बजट की सबसे ज्यादा फिल्में फ्लॉप साबित हुईं। करोड़ों रुपये की लागत और बड़ी स्टार कास्ट और भरपूर प्रचार के बावजूद इन फिल्मों का फ्लॉप होना कहीं न कहीं यह बात साबित करता है कि अब दर्शकों को अच्छी कहानी पर बनी अच्छी फिल्में चाहिए। वह इस बात से अभिभूत नहीं होता कि किसी फिल्म का बजट 100 करोड़ रुपए से ज्यादा है। 2009 में बिल्लू बारबर, ब्लू, कुर्बान, कमबख्त इश्क, दिल बोले हड़िप्पा, 8710 तस्वीर, चांदनी चौक टू चाइना, अलादीन, दे दनादन जैसी करोड़ों रुपये की लागत से बनी फिल्मों को दर्शकों ने अस्वीकार कर दिया। दिलचस्प बात यह रही कि बड़े बजट के समानांतर बनने वाली छोटे बजट की और सामाजिक प्रतिबद्धताओं से जुड़ी फिल्मों ने इस साल अच्छा बिजनेस भी किया और दर्शकों में इन फिल्मों को देखने की एक ललक भी देखी गयी।
दो करोड़ रुपये की लागत से बनी सोनी तारापोरवाला की ‘लिटिल जिजोऊ ’ महज 29 प्रिंट्स के साथ दिल्ली, कोलकाता, अहमदाबाद और पुणे में रिलीज की गयी थी। इस फिल्म को दर्शकों ने पसंद किया और इसने बहुत ज्यादा न सही, लेकिन कमाई की। इसी क्रम में इरफान खान की थैंक्स मां, अनुराग कश्यप की देव डी और गुलाल, ग्रेसी सिंह अभिनीत आसिमा, नसीरुद्दीन शाह की बोलो राम, करण जौहर की तुलनात्मक रूप से कम बजट वाली वेक अप सिड (रणबीर कपूर और कोंकणा सेन) जैसी फिल्मों ने बॉक्स ऑफिस पर अच्छा बिजनेस किया और दर्शकों ने इन फिल्मों को पसंद भी किया।
साल के अंत में आई ‘पा’ मानो इस बात की ही वकालत करती दिखाई दी कि यदि फिल्म की कहानी और निर्देशन अच्छा है तो कम बजट में भी अच्छी और कमाई करने वाली फिल्म बनाई जा सकती है। महज 16 करोड़ के बजट में बनाई इस फिल्म ने अच्छा बिजनेस किया और दर्शकों ने इसे बेपनाह पसंद किया। प्रोजोरिया नामक बीमारी से पीड़ित बच्चों के जरिये निर्देशक बाल्की ने युवाओं की आज की मूल समस्या-पति-पत्नी के रिश्तों में पैदा हो रही दरारों-को भावनात्मक ढंग से पेश किया। फिल्म में अमिताभ, अभिषेक और विद्या बालन ने शानदार अभिनय किया। छोटी बजट की इस साल आई अच्छी फिल्मों ने एक बार फिर यह संकेत दिये हैं कि समानांतर सिनेमा का पुनर्जन्म हो रहा है। पिछले लगभग पांच-सात सालों में ए वेनसडे, भेजा फ्राई, लाइफ इन ए मैट्रो, ब्लैक फ्राइडे जैसी तमाम सफल फिल्में आईं हैं, जो इस धारणा को पुष्ट करती हैं कि समानांतर सिनेमा एक नये अर्थों में दोबारा जन्म ले रहा है। गौरतलब है कि 70-80 के दशक में श्याम बेनेगल, सत्यजित रे, गोविंद निहलानी, सईद मिर्जा जैसे फिल्मकारों ने व्यावसायिक सिनेमा के समानांतर एक अर्थपूर्ण सिनेमा का आंदोलन चलाया था और इस दौरान बेपनाह अच्छी फिल्में बनी भी थीं, लेकिन बाद के वर्षों में चली व्यावसायिक आंधी में समानांतर सिनेमा कहीं खो गया। फिल्म अभिनेता से लेकर निर्देशक तक यह तर्क बड़े गर्व से देने लगे कि हमारी फिल्म देखनी है तो दिमाग घर रख कर आओ, लेकिन सन 2009 ने इस तर्क को सिरे से खारिज कर दिया। तमाम ऐसी फिल्में बॉक्स ऑफिस पर धराशाई हो गयीं, जो दिमागरहित थीं। समानांतर सिनेमा की एक प्रमुख अभिनेत्री शबाना आजमी कहती हैं कि पहले के समानांतर सिनेमा का फिल्मकार ग्रामीण यथार्थ को अपनी फिल्मों का विषय बनाता था, लेकिन आज का फिल्मकार, महानगरों, छोटे शहरों और कस्बों के यथार्थ को अपनी फिल्मों का विषय बना रहा है यानी यह आज के दौर का समानांतर सिनेमा है।
अगर इसे समानांतर सिनेमा न भी कहा जाए तो इतना तो कहा ही जा सकता है कि घोर व्यावसायिक सिनेमा के समानांतर एक नये सिनेमा की जमीन तैयार हो रही है। और 2010 में भी ऐसी तमाम फिल्में दिखाई देंगी, जो इस बात को पुष्ट करेंगी कि जिन फिल्मों में सामाजिक प्रतिबद्धता नहीं होती, वे केवल और केवल तमाशा बन कर रह जाती हैं।

सुधांशु गुप्त

2010 में शबाब पर होगा सोशल एक्टिविज्म

एसएमएस, ब्लॉग, फेसबुक और ट्विटर जैसे ऑनलाइन मंच 2010 में सामाजिक सक्रियता और जागरूकता को और बढ़ाएंगे। यह अचानक नहीं है कि समाज में होने वाले अत्याचारों के खिलाफ लोग फेसबुक पर एकत्रित हो रहे हैं, बल्कि जनजागरण के एक नए आंदोलनों को जन्म दे रहे हैं। गुजरे वर्ष इसके प्रमाण रहे हैं कि सोशल एक्टिविज्म के चलते ही रुचिका गिरहोत्र, जेसिका लाल, प्रियदर्शन मट्टू, नितीश कटारा और उपहार त्रसदियों में घिरे अपराधी कानून के चंगुल में फंसे। ऐसा नहीं कि केवल अपराधियों को सजा दिलाने में ही यह सोशल एक्टिविज्म दिखाई पड़ रहा है। जब फिल्म अभिनेत्री नंदना सेन आपको मोबाइल पर सेव गर्ल चाइल्ड से संबंधित एसएमएस करती है तो वे एक नए अर्थों में लड़कियों को बचाने के लिए मुहिम चलाती दिखाई पड़ती हैं। कमोबेश इसी अंदाज में जागो री नामक एक गैर सरकारी संगठन ने टाटा टी से युवाओं को चुनावी प्रक्रिया में भाग लेने के लिए जागरूक करने की एक मुहिम चलाई है। और इससे एकदम अलग अंदाज में वुमन पावर कनेक्ट नामक एक अन्य गैर सरकारी संगठन महिलाओं को लीडरशिप ट्रेनिंग देने के लिए एक ऑनलाइन प्रोग्राम चला रहा है, जिसमें देश के दूर-दराज इलाकों से महिलाएं लीडर बनने के लिए आगे आ रही हैं। यह इस बात का संकेत है कि 2010 महिलाओं को जागरूक करने और न्याय दिलाने के लिए चलाए जा रहे अभियानों का गवाह बनेगा। ठीक उसी तरह जिस तरह प्रियदर्शन मट्टू मामले में एक्टिविस्ट आदित्य राज कौल ने एसएमएस के जरिए जस्टिस फॉर प्रियदर्शन मट्टू नामक अभियान चलाया था। नये वर्ष में मोबाइल, ऑनलाइन मंच, ब्लॉग्स, सूचना का अधिकार सोशल एक्टिविज्म के नये हथियार साबित होंगे और यह साबित होगा कि इनका इस्तेमाल युवा केवल दोस्ती और प्रेमालाप के लिए ही नहीं करता। यह भी तय है कि सोशल एक्टिविज्म का इस साल अपने शबाब पर होना इशारा होगा इस बात का कि अब किसी रुचिका को राठौरी दबाव के सामने आत्महत्या का रास्ता नहीं चुनना पड़ेगा।
सुधांशु गुप्त