Sunday, June 6, 2010

समानांतर सिनेमा का पुनर्जन्म!


बॉलीवुड में सन 2009 को इस बात के लिए याद किया जाएगा कि इस साल बड़े बजट की सबसे ज्यादा फिल्में फ्लॉप साबित हुईं। करोड़ों रुपये की लागत और बड़ी स्टार कास्ट और भरपूर प्रचार के बावजूद इन फिल्मों का फ्लॉप होना कहीं न कहीं यह बात साबित करता है कि अब दर्शकों को अच्छी कहानी पर बनी अच्छी फिल्में चाहिए। वह इस बात से अभिभूत नहीं होता कि किसी फिल्म का बजट 100 करोड़ रुपए से ज्यादा है। 2009 में बिल्लू बारबर, ब्लू, कुर्बान, कमबख्त इश्क, दिल बोले हड़िप्पा, 8710 तस्वीर, चांदनी चौक टू चाइना, अलादीन, दे दनादन जैसी करोड़ों रुपये की लागत से बनी फिल्मों को दर्शकों ने अस्वीकार कर दिया। दिलचस्प बात यह रही कि बड़े बजट के समानांतर बनने वाली छोटे बजट की और सामाजिक प्रतिबद्धताओं से जुड़ी फिल्मों ने इस साल अच्छा बिजनेस भी किया और दर्शकों में इन फिल्मों को देखने की एक ललक भी देखी गयी।
दो करोड़ रुपये की लागत से बनी सोनी तारापोरवाला की ‘लिटिल जिजोऊ ’ महज 29 प्रिंट्स के साथ दिल्ली, कोलकाता, अहमदाबाद और पुणे में रिलीज की गयी थी। इस फिल्म को दर्शकों ने पसंद किया और इसने बहुत ज्यादा न सही, लेकिन कमाई की। इसी क्रम में इरफान खान की थैंक्स मां, अनुराग कश्यप की देव डी और गुलाल, ग्रेसी सिंह अभिनीत आसिमा, नसीरुद्दीन शाह की बोलो राम, करण जौहर की तुलनात्मक रूप से कम बजट वाली वेक अप सिड (रणबीर कपूर और कोंकणा सेन) जैसी फिल्मों ने बॉक्स ऑफिस पर अच्छा बिजनेस किया और दर्शकों ने इन फिल्मों को पसंद भी किया।
साल के अंत में आई ‘पा’ मानो इस बात की ही वकालत करती दिखाई दी कि यदि फिल्म की कहानी और निर्देशन अच्छा है तो कम बजट में भी अच्छी और कमाई करने वाली फिल्म बनाई जा सकती है। महज 16 करोड़ के बजट में बनाई इस फिल्म ने अच्छा बिजनेस किया और दर्शकों ने इसे बेपनाह पसंद किया। प्रोजोरिया नामक बीमारी से पीड़ित बच्चों के जरिये निर्देशक बाल्की ने युवाओं की आज की मूल समस्या-पति-पत्नी के रिश्तों में पैदा हो रही दरारों-को भावनात्मक ढंग से पेश किया। फिल्म में अमिताभ, अभिषेक और विद्या बालन ने शानदार अभिनय किया। छोटी बजट की इस साल आई अच्छी फिल्मों ने एक बार फिर यह संकेत दिये हैं कि समानांतर सिनेमा का पुनर्जन्म हो रहा है। पिछले लगभग पांच-सात सालों में ए वेनसडे, भेजा फ्राई, लाइफ इन ए मैट्रो, ब्लैक फ्राइडे जैसी तमाम सफल फिल्में आईं हैं, जो इस धारणा को पुष्ट करती हैं कि समानांतर सिनेमा एक नये अर्थों में दोबारा जन्म ले रहा है। गौरतलब है कि 70-80 के दशक में श्याम बेनेगल, सत्यजित रे, गोविंद निहलानी, सईद मिर्जा जैसे फिल्मकारों ने व्यावसायिक सिनेमा के समानांतर एक अर्थपूर्ण सिनेमा का आंदोलन चलाया था और इस दौरान बेपनाह अच्छी फिल्में बनी भी थीं, लेकिन बाद के वर्षों में चली व्यावसायिक आंधी में समानांतर सिनेमा कहीं खो गया। फिल्म अभिनेता से लेकर निर्देशक तक यह तर्क बड़े गर्व से देने लगे कि हमारी फिल्म देखनी है तो दिमाग घर रख कर आओ, लेकिन सन 2009 ने इस तर्क को सिरे से खारिज कर दिया। तमाम ऐसी फिल्में बॉक्स ऑफिस पर धराशाई हो गयीं, जो दिमागरहित थीं। समानांतर सिनेमा की एक प्रमुख अभिनेत्री शबाना आजमी कहती हैं कि पहले के समानांतर सिनेमा का फिल्मकार ग्रामीण यथार्थ को अपनी फिल्मों का विषय बनाता था, लेकिन आज का फिल्मकार, महानगरों, छोटे शहरों और कस्बों के यथार्थ को अपनी फिल्मों का विषय बना रहा है यानी यह आज के दौर का समानांतर सिनेमा है।
अगर इसे समानांतर सिनेमा न भी कहा जाए तो इतना तो कहा ही जा सकता है कि घोर व्यावसायिक सिनेमा के समानांतर एक नये सिनेमा की जमीन तैयार हो रही है। और 2010 में भी ऐसी तमाम फिल्में दिखाई देंगी, जो इस बात को पुष्ट करेंगी कि जिन फिल्मों में सामाजिक प्रतिबद्धता नहीं होती, वे केवल और केवल तमाशा बन कर रह जाती हैं।

सुधांशु गुप्त

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