Saturday, June 5, 2010

छोटे परदे पर बदल गया है खलनायिकाओं का चेहरा


अम्माजी के जुल्मों का कब अंत होगा..क्या यह इसी तरह वीरपुर के लोगों पर जुल्म ढाती रहेंगी? क्या अम्माजी को जेल हो जाएगी? क्या अम्माजी के खिलाफ शिया की लड़ाई बिना किसी परिणाम के दम तोड़ देगी? क्या इच्छा के खिलाफ नानी मां के षडयंत्रों का कभी अंत होगा? क्या दादी सा अपनी बालिका वधू आनंदी पर लगातार अत्याचार करती रहेंगी और घर के सब लोग खामोशी से उस पर अत्याचार होते देखते रहेंगे? क्या दादी सा सचमुच आनंदी को घर में वापस नहीं आने देंगी? ये तमाम सवाल आजकल टेलीविजन के शौकीनों को परेशान कर रहे हैं।
छोटे परदे पर आने वाले तीन धारावाहिकों - ना आना इस देश मेरी लाडो, उतरन और बालिका वधू - के ये तीन चेहरे - अम्माजी, दादी सा और नानी - वास्तव में खलनायिकाओं के नए चेहरे हैं। परंपराओं, रूढ़ियों, कुरीतियों और अज्ञानता से बने ये चेहरे आजकल छोटे परदे पर एक नए किस्म का आतंक मचाए हुए हैं। इन धारावाहिकों को देखने वाले लगातार यह उम्मीद कर रहे हैं कि छोटे परदे पर महिलाओं के इस आतंक की जल्द समाप्ति होगी, लेकिन इन धारावाहिकों के निर्माता जानते हैं कि इन महिलाओं के अत्याचारों के समाप्त होते ही लोगों की रुचि भी कम हो जाएगी।
दिलचस्प बात है कि कुछ साल पहले तक इसी छोटे परदे पर महिला खलनायिकाओं की एकदम अलग तस्वीर मौजूद थी। इनमें कोमोलिका-उर्वशी ढोलकिया (कसौटी जिंदगी की), पायल-जया भट्टाचार्य (सास भी कभी बहू थी) और पल्लवी-अंचित कौर (कहानी घर-घर की) के अलावा सुधा चंद्रन भी थीं, जिन्होंने शानदार ग्लैमरस ड्रेसेज, ब्रांडेड ज्वेलरी पहन कर और अलग-अलग आकार की खूबसूरत बिंदियां लगा कर घरों में षडयंत्रों, विवाहेतर संबंधों और छल-कपट को नए आयाम दिए। ये छोटे परदे का कल का खलनायिकी चेहरा था।
मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि यह एक काल्पनिक सा चेहरा था, इसमें रियलिटी नहीं थी। लेकिन अम्माजी (मेघना मलिक), दादी सा (सुरेखा सीकरी) और नानी मां (प्रतिमा काजमी) का वर्तमान खलनायिकी चेहरा (अतिश्योक्ति के बावजूद) रियलिटी के काफी करीब दिखाई पड़ता है।
खुद अम्माजी कहती हैं- आज के इस आधुनिक युग में भी भारत में अनेक ऐसे गांव हैं, जहां लड़कियों की गर्भ में ही हत्या करा दी जाती है। इस मामले में हरियाणा और राजस्थान सबसे आगे हैं। मुझे खुशी है कि 'ना आना इस देश मेरी लाडो' के जरिए मैं लोगों को यह समझाने में कामयाब हुई हूं कि क्या अच्छा है और क्या बुरा। लेकिन खलनायिकी के इस रियल चेहरे का दर्शकों पर कितना और क्या असर पड़ रहा है, इस बारे में मनोचिकित्सक डॉ. समीर पारिख का कहना है कि वयस्क दर्शकों पर इसका कोई बहुत ज्यादा नेगेटिव असर नहीं होता, खासकर इसलिए भी क्योंकि वे जानते हैं कि परदे पर दिखाई जाने वाली बुराइयों का अंतत: अंत होता है।
लेकिन इस तरह की बुराइयों को ग्लैमराइज्ड ढंग से दिखाना नुकसानदेह हो सकता है। जब तक ऐसा नहीं होता तब तक तो खलनायिकाओं का यही चेहरा दर्शकों को भाएगा।

सुधांशु गुप्त

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