Saturday, June 5, 2010

किताबों के लिए समय तलाशती जिंदगी

हर शहर की अपनी गति होती है। छोटे शहर की कम, मझले शहर की उससे थोड़ी ज्यादा और महानगर की बहुत तेज। और हर जगह सब कुछ शहर की गति के अनुसार ही चलता है, जीवन भी। राजधानी दिल्ली एक बड़ा महानगर है। यहां हर चीज की एक स्पीड है। अगर आप उससे कम गति से चलेंगे तो आप शहर में बने नहीं रह पायेंगे। लिहाजा हर इंसान अपने शहर की गति से ही चलने के लिए अभिशप्त होता है। दिल्लीवासी भी अब इस गति के इतने आदी हो चुके हैं कि उसमें किसी तरह का अवरोध उन्हें पसंद नहीं आता।
लोग सुबह सोकर उठते हैं तो उनके पास, उनके अवचेतन में पूरे दिन के काम की सूची होती है, एक अलिखित सूची, जिसे वे मशीनी अंदाज में पूरा करते हैं। पहले मॉर्निग वॉक, अखबार पढ़ना (अक्सर देखना), नित्यकर्म से निवृत्त होना और फिर इसी भागमभाग में ऑफिस के लिए रवाना होना। इसके बाद उसी तरह घर वापसी, फिर टेलीविजन पर देर रात तक आर्टिफिशयल सच का सामना। और इन सब कामों को करते हुए आपका मोबाइल है, जो हर समय बज-बज कर मानो आपके अस्तित्व के होने का अहसास कराता रहता है। आप चाहकर भी मोबाइल की उपेक्षा नहीं कर सकते! अब बताइये इस जीवनशैली में किताबों के लिए समय है कहां?
पुस्तक मेले की जरूरतलेकिन शायद इसी स्पेस को तलाशने के लिए और पाठकों में रीडिंग हैबिट लाने के लिए (कम से कम कहा तो यही जाता है) दिल्ली के प्रगति मैदान में पुस्तक मेले का आयोजन हुआ है। यह पंद्रहवां पुस्तक मेला बताता है कि दिल्ली सरकार पिछले पंद्रह सालों से हर साल इस मेले का आयोजन करा रही है। मेले के उद्घाटन की औपचारिकता को पूरा करने के लिए कॉरपोरेट और अल्पसंख्यक मामलों के राज्यमंत्री सलमान खुर्शीद पहुंचे और उन्होंने किताबों और पुस्तक मेलों के बारे में ढेर सारी अच्छी-अच्छी बातें बताईं। उन्होंने कहा कि इस तरह के मेलों का आयोजन समाज के बौद्धिक विकास के लिए जरूरी है। उन्होंने यह भी कहा कि किताबें ही बच्चों की सोच और उनका नजरिया तय करती हैं और जीवन में आगे बढ़ने की दिशा तय करती हैं।
टिकट विंडो पर कोई कतार नहींशनिवार (29 सितंबर) पुस्तक मेले का पहला दिन था और लोग रफ्ता-रफ्ता वहां पहुंच रहे थे। एक आशंका यह भी थी कि शनिवार होने की वजह से वहां भीड़ ज्यादा होगी, लेकिन टिकट खिड़की एकदम खाली थी। कोई इक्का-दुक्का व्यक्ति ही टिकट लेता नजर आया। शायद राजधानी में किसी भी चीज के लिए टिकट विंडो के बाहर लगने वाली लाइनों में यही एक ऐसी टिकट विंडो थी, जहां काफी-काफी देर बाद चंद लोग आ रहे थे। इस तरह यह टिकट लेने वालों के लिए काफी राहत की बात थी। हॉल नंबर 8 से 12 ए तक किताबों की एक ऐसी विशाल दुनिया यहां बिखरी पड़ी थी कि देखने वाला देखता ही रहा जाए। उधर, पूर्वी राज्यों के थीम पर आधारित इस पुस्तक मेले में अमेरिका, चीन, पाकिस्तान, यूएई और ईरान के प्रकाशक भी शामिल थे। यहां विदेशी और भारतीय प्रकाशकों के स्टॉल्स पर घूमते हुए और किताबों पर एक नजर डालते हुए यह साफ महसूस हो रहा था कि किताबों की दुनिया में कंटेंट के स्तर पर ही नहीं, बल्कि गुणवत्ता और तकनीक के स्तर पर भी बेतहाशा बदलाव आए हैं और अब किताबें पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा आकर्षक और खूबसूरत ढंग से छप रही हैं। मेले में यूं तो हर उम्र के लोग दिखाई दिये, लेकिन अधिसंख्या में युवाओं को देख कर अच्छा लगा और यह और भी अच्छा लगा कि लोग (खासकर युवा) जे कृष्णामूर्ति फाउंडेशन के स्टॉल पर भी अच्छी खासी संख्या में नजर आए। गौरतलब है कि भारत के जे कृष्णमूर्ति एक ऐसे दार्शनिक हैं, जिन्होंने जीवन और मृत्यु से जुड़े सवालों पर लोगों से संवाद कायम किया है और इन सवालों के उत्तर तलाशने की कोशिश की है। तो क्या आज का युवा भी इन्हीं प्रश्नों से जूझ रहा है?
साहित्यिक कृतियों के अलावा जिस तरह की पुस्तकों के स्टॉल्स पर लोग अधिसंख्या में दिखाई दिए, उनमें पर्सेनेलिटी डेवलपमेंट, करियर, राजनीति, हिंदी साहित्य का इतिहास, एस्ट्रोलॉजी, बायोग्राफी और बच्चों के लिए पुस्तकें थीं। उन स्थानों पर तो भीड़ होना लाजिमी ही था, जिनके द्वारा छापी गईं किताबें किन्हीं भी कारणों से विवादास्पद हो गई हैं। इनमें राजपाल एंड संस द्वारा प्रकाशित किताब ‘जिन्ना : भारत-पाक विभाजन के आईने में’ मुख्य रही। जसवंत सिंह द्वारा लिखित इस किताब को लोग आश्चर्य से देख रहे थे और यह जानने की कोशिश कर रहे थे कि क्या कोई किताब जसवंत सिंह जैसे व्यक्ति को पार्टी से निकलवा सकती है।
चेतन भगत बनाम प्रेमचंद
युवाओं खासकर लड़कियों के पसंदीदा लेखक के रूप में चेतन भगत का नाम एक बार फिर सामने आया, क्योंकि लड़कियां उनकी पहले से ही प्रचारित और पसंदीदा उपन्यासों- थ्री मिस्टेक्स ऑफ माई लाइफ, वन नाइट एट कॉल सेंटर आदि के प्रति आकर्षित दिखाई दे रही थीं। दिलचस्प बात यह दिखाई दी कि युवाओं में भी प्रेमचंद के प्रति खासा आकर्षण है और यही बात यह सोचने लिए प्रेरित कर रही थी कि क्या हम हिंदी में प्रेमचंद के बाद कोई ऐसा साहित्यकार नहीं तैयार कर पाये जो हमारे आज के दौर को समझ कर लिखे और युवाओं का प्रिय लेखक बन सके।
यह पुस्तक मेला छह सितंबर तक चलेगा और थोड़ी बहुत चहल-पहल बनी ही रहेगी। उसके बाद फिर हम सब अपने-अपने शहर की गति के हिसाब से जीवन चलाने लगेंगे। और मूल प्रश्न वहीं खड़ा होगा कि हमारी इस जीवनशैली ने किताबों के लिए स्पेस कहां छोड़ा है?
सुधांशु गुप्त

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