Saturday, June 5, 2010

शर्म क्यों मगर हमें नहीं आती!

सच का सामना’ में एक प्रत्याशी राजीव खंडेलवाल के सामने हॉट सीट पर बैठा है। उससे सवाल पूछा जाता है- ‘क्या आपने विवाह से पहले अपनी प्रेमिका का अबॉर्शन कराया था?’ जवाब सुनने के लिए प्रत्याशी की मां भी सामने बैठी हैं। प्रत्याशी जवाब देता है-‘हां।’ कैमरा मां के चेहरे को फोकस में लेता है। राजीव प्रत्याशी की मां से पूछते हैं-‘जवाब सुन कर कैसा लगा?’ मां का जवाब है-‘यह सब तो आजकल चलता है।’ कल्पना कीजिये, यदि यही सवाल उस वृद्ध महिला की बेटी या बहू से पूछा होता तो भी क्या उनकी यही प्रतिक्रिया होती? शायद नहीं। यही हमारे समाज का असली सच है-लड़कियों के लिए और तथा लड़कों के लिए कुछ और। यानी लड़कों के सच लड़कियों के सच से नितांत अलग हैं। यूं भी निजी सच कोई बहुत ज्यादा अहमियत नहीं रखते। लेकिन जिस समाज में रह रहे लोगों के निजी सच इस तरह के हैं तो सोचिये उस समाज के अपने सच, सामूहिक सच किस तरह के होंगे? ‘सच का सामना’ ने और कुछ किया हो या न किया हो, लेकिन हमारे भीतर सोये हुए सत्यों को उद्घाटित करने के लिए हमें प्रेरित जरूर किया है। आज हम आपको रूबरू करवा रहे हैं, समाज के कुछ ऐसे सत्यों से, जिनसे हम वाकिफ तो हो सकते हैं, लेकिन हम इस बात पर सामूहिक रूप से शर्मिंदा कतई नहीं दिखाई पड़ते। और ये ऐसे सच हैं, जो किसी भी समाज की प्रगतिशीलता, समानता और उदारता पर बड़ा सवालिया निशान लगा देते हैं?
कुंआरेपन की परीक्षा दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में पिछले दिनों एक बेहद शर्मनाक कांड सामने आया। पता चला कि मध्य प्रदेश में सामूहिक विवाह का एक आयोजन किया जाना है। इसमें बड़ी संख्या में दलित और आदिवासी महिलाओं ने शिरकत की। विवाह के लिए जो महिलाएं आई थीं, उनका सामूहिक स्तर पर कौमार्य परीक्षण किया गया यानी उनके कुंआरेपन की परीक्षा ली गई। बाद में इस कांड पर लीपापोती की गयी। सवाल यह उठता है कि क्या हम अभी भी आदिम युग में जी रहे हैं? कौमार्य परीक्षण जैसी चीजें क्या आज के इस आधुनिक युग को बर्बर युग साबित नहीं करतीं? और क्या कौमार्य परीक्षण पुरुषों का नहीं होना चाहिए था? इस कौमार्य परीक्षण ने भारतीय समाज की ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया की स्त्री जाति को अपमानित किया। और इस परीक्षण ने एक और बात यह साबित की कि जब कौमार्य परीक्षण सामूहिक स्तर पर हो सकता है तो निजी स्तर पर पुरुष न जाने कितनी लड़कियों का कौमार्य परीक्षण कराते होंगे?
लड़कियों की हत्या के परंपरागत तरीके छोटी उम्र की लड़कियों को मारने के हमारे समाज में कई तरीके प्रचलित रहे हैं। तमिलनाडु में आज भी इस तरह की घटनाएं देखने को मिल जाती हैं, जिनमें अपनी ही बेटियों की हत्या के लिए मांबाप एरुक्कपाल नामक एक पौधे का इस्तेमाल करते हैं। इसके लस्सेदार दूध की कुछ बूंदें ही नवजात कन्या को मौत की नींद सुला देती हैं। कुछ मांबाप अपनी नवजात बच्ची की हत्या के लिए गाय के दूध में नींद की गोलियां मिला कर बच्ची को दे देते हैं। इसके अलावा गला घोंट देना, पानी भरी बाल्टी में डाल देना और बच्ची की छाती पर पत्थर रख कर उस पर बैठ जाना ऐसे ही कुछ खौफनाक तरीके हैं, जो हमारे विकासशील और आधुनिक होने के तमाम दावों को झूठा साबित करते हैं। अगर गौर से देखें तो आज भी कई गांवों के आसपास नवजात कन्याओं के शव मिलते ही रहते हैं, लेकिन इसके बावजूद हम शायद ही कभी सामूहिक शर्म का इजहार करते हों!
बच्चियों से बलात्कार हमारे देश में छह-छह माह की लड़कियों से बलात्कार की घटनाएं सामने आती हैं और यह भी सच है कि बच्चियों से बलात्कार की घटनाओं में लगातार इजाफा हो रहा है। बच्चियों से बलात्कार करने वाला बच्चियों को ही अपना शिकार इसलिए बनाता है, क्योंकि वे न विरोध कर सकती हैं, ना चीख सकती हैं और न ही बलात्कारी के खिलाफ कोई शिकायत कर सकती हैं। लेकिन क्या हम भी कोई विरोध नहीं कर सकते, इन मसलों पर चीख नहीं सकते और बलात्कारियों को सख्त सजा दिलाने का कानून नहीं बना सकते? विडम्बना यह है कि जिन मामलों में बलात्कारी पकड़े जाते हैं, उनमें से भी अधिकांश बलात्कारी छूट जाते हैं। बलात्कार कानून में भी उनके छूटने के तमाम रास्ते छूट गये हैं या जानबूझ कर छोड़े गये हैं। लेकिन फिर भी कोई इस पर शर्मिंदा नहीं है?
असुरक्षित महिलाएं हमारे समाज में महिलाएं कितनी सुरक्षित हैं, यह बात अब किसी से छिपी नहीं है। महानगरों में ही नहीं, छोटे कस्बों और गांवों तक में महिलाओं की सुरक्षा को लेकर कोई आश्वस्त नहीं है। विडंबना यह है कि महिलाएं और लड़कियां न केवल बाहर असुरक्षित हैं, बल्कि वे अपने घर में भी महफूज नहीं हैं। अगर ऐसा ना होता तो आए दिन आरुषि तलवार जसी लड़कियों को असमय मौत का शिकार न होना पड़ता। और घर से बाहर का आलम यह है कि जगह-जगह निठारी जसे कांड न जने कितनी लड़कियों को लील रहे हैं।
किन्नरों का आना घर में बेटा होने पर घर पर किन्नरों के आने का रिवाज न जने कितना पुराना है। पहले जब ‘हम दो, हमारे दो’ जसे परिवार नियोजन के नारे नहीं थे, तब घरों में ज्यादा बच्चे पैदा हुआ करते थे और किन्नर लड़कियों के जन्म पर नाचने नहीं आते थे, लेकिन अब क्योंकि घर में एक दो बच्चे ही होते हैं तो किन्नर कई बार लड़कियों के जन्म पर भी नाचने आ जते हैं, लेकिन वे लड़की के मां-बाप के सामने खुशी का इजहार नहीं करते, बल्कि उन्हें सांत्वना देते हैं, जो बेहद शर्मनाक है।
जन्म पर लोगों की प्रतिक्रियाएं अगर कुछ ठोस चीजों को छोड़ दिया जए तो समाज में लड़कियों के होने पर किस तरह की प्रतिक्रियाएं देखने को मिलती हैं, उससे भी समाज में लड़कियों की स्थिति को जना ज सकता है। अक्सर आपने देखा होगा कि गर्भवती महिलाएं पहले से ही अपने बैडरूम में जो कैलेंडर या तस्वीरें लगाती हैं, वे लड़कों की होती हैं। यानी पहले से ही इसकी तैयारी होती है कि घर में बेटा पैदा होगा। यदि किसी गर्भवती महिला के पहले ही एक बेटी है (मान लीजिये 5-6 साल की) और वह मां से पूछती है कि मां तुम अस्पताल से क्या लाओगी तो मां कहती है-भैया। लेकिन यदि वही छोटी-सी लड़की पलट कर पूछ ले कि यदि अस्पताल वालों ने बहन दे दी तो? तो मां उसे समझती है कि गंदी बातें नहीं करते। मान लीजिए, वह महिला दोबारा बेटी को जन्म दे देती है तो अस्पताल की दाइयों से लेकर पूरा स्टाफ (़डॉक्टरों को छोड़ कर) उस महिला के प्रति सहानूभूति प्रकट करता दिखता है। आसपड़ोस और यार-दोस्त तक उसे बधाई देते हुए संकोच करते हैं। जरा सोचिए, जब समाज में लड़की के पैदा होने पर ही इस तरह का माहौल है तो आगे चलकर उसके साथ न्याय और समानता की बातें क्या संभव हैं?
लिंग परीक्षण और कन्या भ्रूण हत्या लिंग परीक्षण की आधुनिक वैज्ञानिक पद्धतियों ने आज के इनसान को यह सुविधा मुहैया कराई है कि वह पहले ही जान सके कि स्त्री की कोख में पलने वाला बच्चा लड़का है या लड़की। लेकिन इस सुविधा का जितने बड़े पैमाने पर दुरुपयोग हुआ है, उतना शायद ही किसी अन्य तकनालॉजिकल सुविधा का हुआ हो। इसने कन्या भ्रूण हत्या का ग्राफ पिछले कुछ सालों में तेजी से बढ़ाया है। और यही वजह है कि लड़कियों का अनुपात लड़कों के मुकाबले लगातार कम हो रहा है। लाखों लड़कियां गायब हो रही हैं। बकौल अमत्र्य सेन- आने वाली पीढ़ियां आपसे इसका हिसाब जरूर पूछेंगी।
सुधांशु गुप्त

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