Monday, March 21, 2011

मॉडलिंग बड़े धोखे हैं इस राह में

मॉडलिंग बड़े धोखे हैं इस राह में
सुधांशु गुप्त
ग्लैमर और चकाचौंध की दुनिया में मॉडलिंग आज लोअर मिडिल और मिडिल क्लास की लड़कियों को खूब लुभा रही है। उन्हें लगता है कि मॉडलिंग की दुनिया में प्रवेश करते ही उनके पास नाम और शोहरत होगी। लेकिन मॉडलिंग की दुनिया में कुछ कदम चलने के बाद ही उन्हें इस बात का एहसास हो जाता है कि यह इतना आसान नहीं है। नये वर्ष के मौके पर क्यों ना हम उन चीजों को जानें, जिनसे तरक्की के रास्ते पर आप आगे बढ़ सकती हैं। सुधांशु की रिपोर्ट
निम्न मध्य वर्ग की पिंकी की उम्र महज 21 साल है। वह ओपन यूनिवर्सिटी से बीएससी कर रही हैं। लेकिन पढ़ाई के साथ-साथ मॉडलिंग अब उनकी प्राथमिकता में सबसे ऊपर है। वह फोटो शूट के साथ ही कई ईवेंट में भी परफॉर्म करती हैं। जाहिर है, इससे उन्हें पर्याप्त मात्रा में पैसा भी मिल जाता है। हाथ में पैसा आता है तो सपनों को भी पंख लग जाते हैं। पढ़ाई करते-करते वह मॉडलिंग की दुनिया में कैसे आ गईं, इसका जवाब पिंकी इस तरह देती हैं, मैं पॉपुलर होना चाहती हूं और खूब पैसा कमाना चाहती हूं। पिंकी ने मॉडलिंग की दुनिया में आने के लिए किसी तरह का कोई कोर्स नहीं किया है। वह मानती हैं कि वह नेचुरली ब्यूटीफुल हैं। सिंगिंग, डांसिंग पिंकी का पैशन है। लेकिन पिंकी खुद जानती हैं कि यह रास्ता इतना आसान नहीं है। पता नहीं  वह मॉडलिंग की दुनिया में आने वाली दिक्कतों को अभी जान भी पाई हैं या नहीं?
मॉडलिंग का सपना
दरअसल 1994 में ऐश्वर्या राय ने मिस वर्ल्ड और सुष्मिता सेन ने मिस यूनिवर्स का खिताब जीतकर मध्यवर्गीय लड़कियों की आंखों को जो सपना दिया था, अब वह बाहर आने के लिए मचल रहा है। अधिकांश मध्य और निम्न मध्यवर्गीय लड़कियों को लगने लगा है कि थोड़ा-सा सुंदर और बोल्ड होकर वे उसी तरह सफलता की सीढ़ियां चढ़ सकती हैं, जिस तरह ऐश्वर्या और सुष्मिता ने चढ़ी थीं। और एक बार इस रास्ते पर उन्हें सफलता मिलनी शुरू हो गयी तो दौलत और शोहरत उनके कदमों में होगी। लेकिन ये लड़कियां ग्लैमर की चकाचौंध में यह भूल जाती हैं कि यह लाइन भी तमाम अन्य पेशों की तरह मेहनत और समर्पण मांगती है। उन्हें बस तुरंत सफलता की चाह होती है। इसके लिए वे शॉर्ट कट अपनाने से भी नहीं चूकतीं। और मॉडलिंग का पहला असाइनमेंट मिलते ही वे अपनी पढ़ाई-लिखाई बीच में ही छोड़ देती हैं और उनका एकमात्र फोकस मॉडलिंग हो जाता है।
क्या हो रास्तासचमुच मॉडलिंग में आने से पहले यदि लड़कियां यह जान लें कि उन्हें इस रास्ते पर किस तरह से चलना है, तो रास्ता काफी आसान हो सकता है। तो वह कौन सा रास्ता हो सकता है, जो युवा लड़कियों को भटकने से बचा सकता है और आसानी से मंजिल तक पहुंचा सकता है? अनेक युवा मॉडल्स से बातचीत करने के बाद मॉडलिंग का रास्ता कहता है कि सबसे पहले लड़कियों को किसी अच्छे फोटोग्राफर से अपना पोर्टफोलियो कराना चाहिए। इसके बाद आप अपने कुछ अच्छे फोटोग्राफ्स किसी वेबसाइट पर डाल सकती हैं। और जैसी अनेक वेबसाइट्स इस दिशा में काम कर रही हैं। इसके अलावा व्यवहार से जुड़ी कुछ और बातें हैं, जो युवा मॉडल्स को ध्यान रखनी चाहिए। लैला पांडा बताती हैं, लड़कियों को अपनी पढ़ाई बीच में नहीं छोड़नी चाहिए, उनमें मेकअप और ड्रेस सेंस होनी चाहिए। और साथ ही उन्हें वॉयसिंग, एंकरिंग और अभिनय का बाकायदा प्रशिक्षण लेना चाहिए। सिंगिंग, डांसिंग सीख कर वे मॉडलिंग के साथ कुछ और काम भी कर सकती हैं।
मॉडल्स को एक बात यह भी ध्यान रखनी चाहिए कि मॉडल का करियर बहुत लंबा नहीं होता। युवावस्था ढलते-ढलते ही आपका करियर भी ढलने लगता है। लिहाजा लड़कियों को अपने अंदर तमाम ऐसे गुण भी विकसित करने चाहिए, ताकि मॉडलिंग में असफल होने या अपनी पारी खेलने के बाद वे किसी दूसरे पेशे में भी काम कर सकें। आज अनेक ऐसी मॉडल्स हैं, जो अपने समय में चमक बिखेरने के बाद आज कोरियोग्राफर, रेडियो जॉकी, ईवेंट मैनेजमेंट जैसे काम कर रही हैं। साथ ही कई नामी गिरामी मॉडल्स ऐसी भी हैं, जो मॉडलिंग एजेंसी चला रही हैं। यानी सही समय पर की गयी प्लानिंग आपके भविष्य को सुरक्षित और सुनिश्चित करती है।
एक और अहम बात, युवा मॉडल्स को शॉर्ट कट्स पर भरोसा नहीं करना चाहिए। उन्हें यह ध्यान रखना चाहिए कि अंतत: आपकी मेहनत ही आपको आगे ले जाएगी। राजधानी में रहने वाली चंद्राणी ऐसी ही मॉडल हैं। मिरांडा हाउस से बंगाली में एमए करने वाली चंद्राणी को पढ़ाई के दौरान ही एक फिल्म और रैंप पर मॉडलिंग करने का मौका मिला। इसके बाद उन्होंने प्रिंट के लिए भी मॉडलिंग की। आज चंद्राणी एंकरिंग के साथ-साथ डीडी उर्दू के कई सीरियल्स में काम कर रही हैं। उनका मानना है कि ऐसा नहीं है कि मॉडलिंग में बिना मेहनत किये ही आपको पैसा और शोहरत मिल जाती है। इस पेशे में दूसरे अन्य पेशों की तरह लगातार मेहनत करनी पड़ती है। पिछले दो-तीन साल इस पेशे को देने के बाद भी मुझे ऐसा नहीं लगता कि मैंने कोई बड़ा काम किया है, लेकिन मैं जानती हूं कि बड़े सपनों को पूरा करने के लिए बड़ी तपस्या भी करनी पड़ती है।
वास्तव में मॉडलिंग एक ऐसा पेशा है, जिसमें ग्लैमर तो दिखाई देता है, लेकिन उसके पीछे की मेहनत दिखाई नहीं देती। और जब तक ये ना हो, सफलता आपसे दूर ही रहेगी।
क्या और कर सकती हैं
एंकरिंग
वॉयसिंग
अभिनय
ईवेंट
अलबम
मेकअप आर्टिस्ट
कोरियोग्राफी
रेडियो जॉकी
मॉडलिंग एजेंसी

बनाएं खुशियों का रिपोर्ट कार्ड

बनाएं खुशियों का रिपोर्ट कार्ड
सुधांशु गुप्त
                                                                                                   First Published:30-12-10 06:00 PM
लीजिए, यह साल भी बस गया ही समझो। नया साल अब कुछ ही कदम की दूरी पर है। आप बिजी होंगे नये साल के स्वागत की तैयारियों में-पार्टी, म्यूजिक, डांस, गैट टुगैदर..और भी बहुत कुछ। लेकिन आपको नहीं लगता कि हर बार ही आप न्यू ईयर्स ईव कुछ इसी तरह मनाते हैं। तो इस बार क्यों ना कुछ नया किया जाए। आप जानते हैं कि साल खत्म होने पर हर व्यक्ति गुजरे साल का हिसाब-किताब करने लगता है। यानी उसने क्या पाया और क्या खोया। आप भी कुछ ऐसा ही करते होंगे। गये साल की बहुत सारी बातें आपको दुखी करती होंगी और कुछ बातें आपके मन में खुशी और उत्साह पैदा करती होंगी। तो क्यों ना नये साल का स्वागत अपनी खुशियों और खराब पलों का रिपोर्ट कार्ड बना कर किया जाए।

जाहिर है इसके साथ-साथ आप पार्टी-शार्टी तो करेंगे ही। लेकिन इस मौके पर जब आप अपने रिपोर्ट कार्ड को अपने फ्रैंड्स के साथ शेयर करेंगे तो पाएंगे कि आपकी मस्ती दोगुनी हो गयी है। हमने यहां कुछ बच्चों से बातचीत करके उनसे यही जानने की कोशिश की कि वर्ष 2010 में किन चीजों ने उन्हें खुशियां दीं और किन चीजों ने उन्हें निराश किया। सुधांशु की रिपोर्ट
वंशिका गर्ग
(11 साल), बाल मंदिर स्कूल, प्रीत विहार
वंशिका छठी क्लास में पढ़ती है। पढ़ाई-लिखाई में इंटेलिजेंट वंशिका सोचते हुए कहती है, इस साल का सबसे अच्छा दिन वह था, जब स्कूल फंक्शन के दौरान मेरी बालिका वधू यानी अविका गौड़ से मुलाकात हुई। वह रियली मेरे लिए मेमोरेबल डे था। एक और मौका था, जिसने मुझे बहुत ज्यादा खुशी दी। हमारा स्कूल ट्रिप के लिए आगरा जा रहा था। मेरी मम्मी मुझे जाने नहीं दे रही थीं। मैंने उन्हें बहुत समझाया कि अब मैं बड़ी हो गयी। बाहर जाऊंगी तो मेरा कान्फिडेंस बढ़ेगा। काफी समझाने के बाद मेरी मम्मी ने मुझे वहां जाने की परमिशन दे दी। मैं पहली बार आगरा गयी। वह रियली मेरे लिए एक्साइटिंग ट्रिप था। और जिस बात ने मुझे सबसे ज्यादा दुखी किया, वह थी पहले पापा का एक्सीडेंट और फिर उन्हें डेंगू हो जाना। उस दौरान मैं सचमुच बहुत परेशान रही। मुझे समझ भी नहीं आता था कि क्या करूं। फिर पापा ठीक हो गये। लेकिन नये साल में मैं अपनी खुशियों के साथ ही जाना चाहूंगी।

आकाश ओसवाल
(13 साल), लवली पब्लिक स्कूल
सचिन तेंदुलकर मेरे रोल मॉडल हैं। वह मुझे हमेशा इंस्पायर करते हैं। मैं कोशिश करता हूं कि उनकी मैक्सिमम पारियां देखूं। चांस की बात है कि दक्षिण अफ्रीका के साथ पहले टैस्ट की दूसरी पारी मैं टीवी पर देख रहा था। इसमें सचिन ने टैस्ट क्रिकेट में पचासवीं सेंचुरी पूरी की। यह एक ऐसा रिकॉर्ड है, जिसे तोडम्ना किसी भी बल्लेबाज के लिए आसान नहीं होगा। इस रिकॉर्ड ने देश का कितना सम्मान बढमया है, यह किसी से छिपा नहीं है। मैं चाहता हूं कि मैं जिस भी फील्ड में काम करूं, सचिन की तरह हार्ड वर्क और डेडिकेशन के साथ करूं। दूसरी साल की सबसे बड़ी खुशी मुझे तब मिली जब कॉमनवैल्थ गेम्स के दौरान भारत ने खूब सारे मैडल जीते। अगले साल मैं भी कोई ऐसा काम करना चाहता हूं, जो देश का सम्मान बढ़ाए।
जस्सी
(15 साल), सवरेदय कन्या विद्यालय,
महारानी बाग
फ्रैंड्स के साथ घूमना मुझे बहुत अच्छा लगता है। इस बार मैं अपने फ्रैंड्स के साथ जयपुर घूमने गयी थी। वह मेरे लिए इस साल के सबसे अच्छे दिन थे। मुझे लगता है कि फ्रैंड्स के साथ होना भी हमें बहुत कुछ सिखाता है। वहां हमने खूब मस्ती भी की। कहते हैं अच्छी टीचर बहुत लकी लोगों को मिलती है। हमने अपने स्कूल की एक फेवरेट टीचर का बर्थडे बडम्ी धूमधाम से मनाया। यह मेरे लिए बहुत इमोशनल मूवमेंट था। हमने इस पल का खूब मजा लिया। हां, इस साल कुछ ऐसी बातें भी हुईं, जिन्होंने मुझे डिप्रेस बनाया। जैसे मैं 11 क्लास में साइंस स्ट्रीम लेना चाहती थी, लेकिन किन्हीं कारणों से मुझे कॉमर्स लेनी पड़ी, इसका मुझे बहुत बुरा लगा। एक और घटना थी, जिसने हमें परेशान किया। स्कूल की तरफ से हमने डांस कॉम्पिटीशन में पार्टिसिपेट किया। वहां हम लोग अच्छा परफॉर्म करने के बावजूद अवॉर्ड नहीं जीत पाए। लेकिन हमने यह सीखा कि हार भी खेल का ही हिस्सा है।
 

टैक्नोफ्रैंडली हो रही हैं महिलाएं

                                                
टैक्नोफ्रैंडली हो रही हैं महिलाएं
सुधांशु गुप्त
                                                                                                      First Published:19-01-11 02:15 PM
महिलाओं के दिल से अब साइंस और तकनालॉजी के प्रति डर निकल रहा है। यही वजह है कि वे इंजीनियरिंग के साथ-साथ तमाम ऐसे कोर्सेज कर रही हैं, जिन पर कुछ साल पहले तक पुरुषों का ही वर्चस्व माना जाता था। किस तरह इन नये कोर्सेज ने महिलाओं की दुनिया और नजरिया बदला है, सुधांशु की रिपोर्ट
सावित्री एक मध्यवर्गीय परिवार की युवती हैं। 1993 में उन्होंने फूड टैक्नोलॉजी का कोर्स करने के लिए शहीद राजगुरु कॉलेज ऑफ अप्लाइड साइंसेज फॉर वुमन में एडमिशन लिया था। उस समय उनके अड़ोस-पड़ोस के लोगों के साथ-साथ उसके अपने घरवालों ने भी यही सोचा था कि शायद यह कोर्स महिलाओं की किचन की दुनिया का ही विस्तार होगा। लेकिन आज सावित्री उसी कॉलेज में नौकरी करती हैं और अपने करियर से संतुष्ट हैं। सावित्री कहती हैं, आज ‘रेडी टू ईट’ का दौर है। ऐसे में फूड टैक्नोलॉजी जैसे कोर्सेज की बाजार में खूब मांग है। लेकिन वास्तव में यह कोर्स है क्या? सावित्री बताती हैं, अगर कोई महिला एक किलो आम का अचार अपने घर पर डालती है तो यह एक सामान्य-सा घरेलू काम है। लेकिन अगर उसे चालीस टन आमों का अचार डालना हो तो उसके लिए मुश्किल होगी। उसमें कौन-सी चीज कितनी डालनी है, किस अनुपात में डालनी है, आम के इस अचार को कैसे लंबे समय तक प्रिजर्व किया जा सकता है (वह भी कम से कम कैमिकल्स डालकर), कैसे उसकी मार्केटिंग करनी है, यह सब फूड टैक्नोलॉजी के अंतर्गत सिखाया जाता है।
सावित्री के अलावा आकांक्षा ने इसी कॉलेज से बीएएससी इलेक्ट्रॉनिक्स और पायल भाटिया ने कंप्यूटर साइंस ऑनर्स किया है। और ये दोनों भी अब इसी कॉलेज में नौकरियां कर रही हैं। दिलचस्प रूप से साइंस और तकनालॉजी से जुड़े अनेक कोर्सेज आज मार्केट में उपलब्ध हैं, जिन्हें करके लड़कियां अपने सपनों का करियर बना रही हैं।
हमारे समाज में एक लंबे समय तक यह माना जाता था कि साइंस और तकनालॉजी ऐसी चीजें हैं, जिनके लिए लड़कियां फिट नहीं हैं। एक तरह से साइंस और तकनालॉजी से लड़कियां भी भयभीत सी रहा करती थीं। उनके लिए साइंस का अर्थ केवल डॉक्टर होने तक ही सीमित था। और इंजीनियरिंग जैसे पेशों के बारे में माना जाता था कि ये लड़कियों की बायोलॉजिकल क्षमताओं को देखते हुए उपयुक्त नहीं हैं। लेकिन पिछले दो-तीन दशकों में आए सामाजिक, शैक्षणिक बदलावों ने लड़कियों के लिए शिक्षा के तमाम दरवाजे खोले हैं। एक बार लड़कियां शिक्षा की ओर अग्रसर हुईं तो उन्हें यह भी समझ में आ गया कि कोई भी फील्ड ऐसा नहीं है, जिसमें वे सफलतापूर्वक काम नहीं कर सकतीं। लिहाजा उन्होंने ऐसे फील्ड्स भी चुने, जिन पर पुरुषों का ही अधिकार माना जाता था। मिसाल के तौर पर फैक्ट्रियों में काम करना या दूसरे भारी किस्म के काम, जो लड़कियों के लिए वजिर्त से माने जाते थे।
बाजार ने भी लड़कियों के लिए तमाम ऐसे कोर्सेज पैदा किये, जो उन्हें सही करियर का रास्ता दिखा सकें। बायोमेडिकल साइंस ऐसा ही एक कोर्स है। बाजार में लगातार ट्रेन्ड और स्किल्ड मैनपावर की मांग बनी हुई है। लड़कियों ने (खासतौर से मध्यवर्गीय लड़कियों ने) इस कोर्स को चुना। ये कोर्स करने वाली लड़कियों को बायोटैक्नोलॉजी, माइक्रोबायोलॉजी, जेनेटिक्स, फार्मेसी, फार्मेस्युटीकल्स, मेडिसिनल कैमिस्ट्री, मेडिकल लेबोरेट्री टैक्नीक्स जैसे संबंधित विषयों को पढ़ाया जाता है।
ये कोर्स करने के बाद लड़कियां मेडिकल की ही विभिन्न शाखाओं से सफलतापूर्वक काम कर सकती हैं और कर रही हैं। वास्तव में पहले हमारा जो सामाजिक ढांचा था, उसमें हम अपनी बेटियों को बड़ी इंडस्ट्री में काम करते हुए नहीं देखना चाहते थे। हमें लगता था कि किस तरह लड़कियां फैक्ट्रियों में वर्कर से और मशीनों से डील करेंगी। लेकिन बाजार में इंस्ट्रुमेंटेशन जैसे कोर्सेज ने ऐसी स्किल्ड और ट्रेन्ड लड़कियां तैयार कीं, जो आज बड़ी- बड़ी फैक्ट्रियों में सफलतापूर्वक काम कर रही हैं।
बढ़ रही हैं महिला इंजीनियर
पिछले एक दशक में महिलाओं ने इस धारणा को ध्वस्त करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है कि इंजीनियरिंग और तकनालॉजी पर पुरुषों का ही आधिपत्य रहेगा। आश्चर्यजनक रूप से देश में ऐसी लड़कियों की संख्या लगातार बढ़ रही है, जो इंजीनियरिंग और तकनालॉजी के क्षेत्र में अपना करियर बना रही हैं। हाल ही में यूनिवर्सिटी ग्रांट कमीशन द्वारा जारी आंकड़े महिलाओं के पक्ष में जोरदार गवाही देते हैं। आंकड़े बताते हैं कि 2009-10 के अकादमिक सत्र में 2,76,806 महिलाओं ने इंजीनियरिंग और तकनालॉजी के कोर्सेज में पंजीकरण कराया। यह संख्या 2000-01 में पंजीकृत (1,24,606) लड़कियों की संख्या से दोगुनी है। इस साल आईआईटी के एन्ट्रेंस एग्जाम में बैठने वाली लड़कियों की संख्या (1.13 लाख) भी पिछले साल के मुकाबले कहीं ज्यादा है।
मानव संसाधन एवं विकास मंत्रालय के अधिकृत सूत्रों के अनुसार, लड़कियों की संख्या में यह इजाफा उस मिथ को तोड़ता है, जिसके अनुसार लड़कियां इंजीनियरिंग को पसंद नहीं करतीं। यूजीसी की यह रिपोर्ट उच्च शिक्षा में भी लड़कियों की भारी वृद्धि की बात कहती है और यह भी बताती है कि केवल इंजीनियरिंग और तकनालॉजी के क्षेत्र में ही नहीं, बल्कि लड़कियां तमाम दूसरे क्षेत्रों-मैनेजमेंट, कॉमर्स- में भी खासी रुचि ले रही हैं। इन सबके साथ-साथ आर्ट्स अब भी लड़कियों का प्रिय क्षेत्र बना हुआ है। 
देश की पहली महिला इलेक्ट्रिकल इंजीनियर
सुधा नारायण मूर्ति देश की पहली इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हैं। उन्होंने बीवीबी कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग टैक्नोलॉजी, हुबली से इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग में बी.ई किया। इसके बाद 1974 में उन्होंने कंप्यूटर साइंस में एम.टैक किया। लेकिन इस सबके बावजूद उन्होंने टैल्को (अब टाटा मोटर्स) कंपनी का एक विज्ञापन देखा। उसमें इलेक्ट्रिकल इंजीनियर मांगे गये थे और लिखा था, इसके लिए केवल पुरुष ही आवेदन कर सकते हैं। उन्हें यह बात बहुत खराब लगी। उन्होंने जेआरडी टाटा को एक पोस्टकार्ड लिखकर इसकी शिकायत की। इसके बाद उन्हें न केवल इंटरव्यू के लिए बुलाया गया, बल्कि उन्हें नौकरी भी दे दी गयी। इस तरह वह देश की पहली महिला इंजीनियर बनीं।
लड़कों और लड़कियों के ब्रेन में कोई फर्क नहीं होता
डॉ. एस. लक्ष्मी देवी, प्रिंसिपल, शहीद राजगुरु कॉलेज ऑफ अप्लाइड साइंसेज फॉर वुमन
आजकल लड़कियां साइंस और तकनालॉजी से जुड़े पेशों को अपना रही हैं, इस बदलाव की क्या वजह आप देखती हैं?
देखिए, हमारे समाज में एक लंबे समय तक लड़कियों को प्रोटेक्टिव रखा जाता था। यानी उनकी दुनिया घर की चारदीवारी के भीतर ही सीमित रखी जाती थी, जबकि लड़कों को हर चीज की आजादी थी। लेकिन नब्बे के दशक के बाद से पूरा सीन बदला। लड़कियों की शिक्षा को अहमियत मिली, लड़कियों को फ्रीडम मिली। लड़कियों की तरफ से भी इस मामले में पहल हुई और उन्होंने सोचा कि वे भी तमाम ऐसे काम कर सकती हैं, जो लड़के कर सकते हैं। लिहाजा वे साइंस और तकनालॉजी की तरफ अग्रसर हुईं।
आपके कॉलेज में लड़कियों के लिए कई दिलचस्प कोर्स हैं, इन कोर्सेज में लड़कियां किस तरह का परफॉर्म कर रही हैं?
देखिये, हमारे कॉलेज में कई तरह के कोर्सो में लड़कियां खूब रुचि ले रही हैं। फूड टैक्नोलॉजी, इंस्ट्रुमेंटेशन, बायोमेडिकल साइंस, कंप्यूटर साइंस और इलेक्ट्रॉनिक्स जैसे कोर्सेज में लड़कियों की रुचि लगातार बढ़ रही है और इनमें लड़कियां लड़कों से बेहतर परफॉर्म कर रही हैं। मेरा मानना है कि आने वाले समय में बायोमेडिकल साइंसेज के एक्सपर्ट्स की मांग काफी बढ़ेगी और लड़कियां ही इस मांग को पूरा करेंगी। हमारे कॉलेज में कई लड़कियां हैं, जो यहीं से कोर्स करने के बाद अब यहां लैब असिस्टेंट्स जैसे जॉब अच्छी तरह से कर रही हैं। और ये लड़कियां मध्यवर्गीय परिवारों से आती हैं।
लेकिन क्या लड़कियों को इस तरह के प्रोफेशन में काम करने में कोई दिक्कत आती है?
मैं जेनेटिक्स पढ़ाती हूं और मैं जानती हूं कि लड़कों और लड़कियों के ब्रेन में कोई फर्क नहीं होता। यदि लड़कियों को मौके मिलेंगे तो वे लड़कों से ज्यादा अच्छा परफॉर्म करेंगी। मेरे कॉलेज से निकली लड़कियां आज अच्छे पदों पर काम कर रही हैं और कुछ तो बाकायदा एन्टरप्रेन्योर भी बन चुकी हैं। बस जरूरत इस बात की है कि लड़कियों के लिए माहौल तैयार किया जाए।

Saturday, March 19, 2011

फिर आ गया है, समानांतर सिनेमा....

बीसवीं सदी के अंतिम दशक में जन्मी एक प्रेम कहानी

सुधांशु गुप्ता
(प्रकाशित : गृहलक्ष्मी  पत्रिका)
यह बीसवीं सदी के अंतिम दशक का एक दिन था। वह जीवन में पहली बार लड़की देखने जा रहा था। वह यानी रोहिम वर्मा। यूं तो रोहित अरेंज्ड मैरिज के बहुत खिलाफ था। लेकिन जीवन में कभी-कभी ऐसी स्थितियां आती हैं, जिन पर इनसान का बस नहीं चलता। अनेक लड़कियों से प्रेम संबंध बनाने और उनके टूटने के बाद रोहित पहली बार अकेला सा महसूस कर रहा था। सो उसने फैसला किया कि अब उसे शादी कर लेनी चाहिए। और घरवालों के आग्रह पर वह लड़की देखने के लिए चल दिया। लड़की के परिवारवाले एक एलआईजी लैट में रहते थे। उसके साथ जाने वालों में उसकी बड़ी बहन, जीजा और एक छोटा भाई था। लड़की घर उनके घर से बहुत ज्यादा दूर नहीं था। ना तो आटो का ही रास्ता था और ना पैदल का। सो उन्हें हाथ रिक्शा पर जाना पड़ा। शादी के लिए रोहित जब कुछ सोचता तो उसके जेहन में दो ही बातें सबसे पहले आती थी। पहली यह कि वह किसी पंजाबी लड़की से शादी नही करेगा और दूसरी यह कि लड़की का घर, उस शहर में नहीं होना चाहिए जिस शहर में वह रहता है। लेकिन उसकी ये दोनों ही अप्रकट इच्छाएं यहां पूरी नहीं हो रही थीं। फिर भी वह लड़की देखने आ गया था।
लड़कीवालों का घर छोटा लेकिन साफसुथरा था। पर पता नहीं क्यों रोहित को गेट में प्रवेश करने के साथ ही कुछ भी अच्छा नहीं लगा था। उसने मुंह बनाकर यह बात बहन के सामने प्रकट भी कर दी थी। लेकिन अब क्योंकि लड़की देखने आ चुके थे इसलिए यह संभव नहीं था कि बिना लड़की देखे वापस जाएं। रोहित ने घर में प्रवेश करने के साथ ही एक और बात यह भी नोट की कि लड़की वालों के स्वागत सत्कार में एक ठंडापन है। कुछ देर इसी तरह औपचारिक बातचीत के बाद कमरे में लड़की ने प्रवेश किया। पता नहीं कैसे रोहित की नजरें सबसे पहले लड़की के हाथों पर पड़ीं। उसने देखा कि लड़की के हाथ बहुत खूबसूरत हैं खासतौर से उसकी उंगलियां। फिर उसकी नजरें उंगलियों से ऊपर गई और उसने लड़की को ध्यान से देखा। गोल चेहरा...बड़ी-बड़ी आंखें...अच्ची कद काठी...रोहित ने उसकी तस्वीर को पल भर के लिए अपने जेहन में बसाया और यह तय करने की कोशिश की कि लड़की सुंदर है या नहीं। वह कुछ तय नहीं कर पाया। न जाने क्यों उसकी उंगलियां ही रोहित के जेहन में बस गईं और रोहित ने पया कि उसकी उंगलियां बेहद खूबूसरत हैं।
दोनों की शादी तय हो गई। रोहित वैड्स कविता।
यह भी बीसवीं सदी के अंतिम दशक का ही एक दिन था।
रोहित एक अखबार के दतर में छोटी सी नौकरी कर रहा था, लेकिन उसके सपने बहुत बड़े थे। वह चाहता था कि कविता के साथ मिलकर अपने सपनों को पूरा करे। लेकिन शादी के तुरंत बाद दो अहम बातें हुईं। पहली देश में आरक्षण लागू कर दिया गया, जिसके विरोध में जगह-जगह धरने प्रदर्शन और आत्मदाह होने लगे। 14-14 साल के लड़कों ने आत्मदाह करके आरक्षण का विरोध किया। आरक्षण की इस आग की लपटें पूरे देश में दिखाई दीं। और आग की इन्हीं लपटों के बीच उसने अपनी सुहागरात मनाई-अपने घर पर ही। और रोहित ने महसूस किया कि जब उसका शरीर प्रेम की आग में तपने लगता है तभी न जाने कैसे प्रेम की यह आग आरक्षण की आग में बदल जाती है। दूसरी बात जो उसे शादी के दो तीन दिन बाद समझ में आई वह यह थी कि कविता एक नितांत धार्मिक प्रवृŸिा की, साफ-सफाई को पति और प्रेम से ज्यादा तरजीह देने वाली ऐसी लड़की है, जिसके लिए पति से भी सेक्स संबंध बनाना एक घृणित कार्य है। इस तरह दोनों बीच दूरियां बननी शुरू हो गई। बस उसकी एक ही बात अच्छी थी कि वह घर को बहुत सलीके से रखती थी और रोहित का पूरा परिवार कविता के आने से बेहद खुश था।
और बीसवीं सदी के इस अंतिम दशक में खुशी के और भी कई कारण अचानक पैदा हो रहे थे। टीवी रंगीन हो चला था। मनुष्य ने युद्धों के भी लाइव प्रसारण देखने की ताकत अर्जित कर ली थी। वैश्वीकरण ने मुल्कों की सरहदों को खत्म करना शुरू कर दिया था। और देश के प्रधनमंत्री ने पहली आर्थिक उदारीकरण की शुरुआत कर दी थी।
इधर घर में कविता के आने के बाद से घर की आर्थिक स्थिति बेहतर होने लगी थी और पहली बार घर में सोफा सेट आया था। अब परिवार के लोग रात का खाना सोफे पर बैठ कर खाते थे। कविता आर्थिक उदारीकरण और वैश्वीकरण के बारे में कुछ नहीं जानती थी। जिस दिन रोहित का इंक्रीमेंट हुआ उस दिन पहली बार कविता ने रोहित से कहा, क्यों ना घर में एक रंगीन टीवी ले आएं। रोहित ने सोचा, रंगीन टीवी लाने का मतलब है छह हजार रुपए। लेकिन उसे कविता का यह प्रस्ताव अच्छा लगा। कुछ जुगाड़ करके घर में रंगीन टीवी आ गया। अब परिवार की शामें टीवी देखते हुए बीतने लगीं। सैटेलाइट टीवी और केबल ने चित्रहार और रविवार की फिल्मों को इच्छाओं को विस्तार दिया और घर में अनेक प्रोग्राम देखे जाने लगे। सब खुश थे...बस रोहित और कविता के बीच की कांस्टेंट दूरी बनी हुई थी। वह ना कम हो रही थी और ना बढ़ रही थी। कविता जब शादी करके उनके घर आई थी, तो सिंगल बैड लाई थी और रोहित के लिए शादी का अर्थ ही डबल बैड से शुरू होता था। इस सिंगल बैड पर दो व्यिम्आराम से एक दूसरे की बांहों में बांहें ़डालकर सो सकते थे। लेकिन जब वे दोनों रात को एक साथ बैड पर होते तो रोहित को अहसास होता कि यह सिंगल बैड कितना बड़ा है। दोनों ने बैड पर ही अपने-अपने कोने तलाश लिए थे। सोते समय अक्सर कविता की पीठ रोहित की तरफ होती। वह कविता की पीठ के हर कर्व से वाकिफ हो गया। एक दिन जब कविता सो रही थी तो उसने अपना एक हाथ बढ़ाकर कविता को छूने की कोशिश की। उसने पाया कि दोनों के बीच लगभग हाथ भर का फासला था। रोहित सोचने लगा कि इस हाथ भर के फासले को उम्र भर चलना पड़ेगा।
मोबाइल के आगमन ने अचानक लोगों के बीच बढ़ रहे फासलों को खत्म कर दिया था। अब आप कहीं से भी किसी से भी संपर्क कर सकते थे। संचार के क्षेत्र में यह एक बड़़ा क्रांतिकारी कदम था। और यह भी बीसवीं सदी के आखिरी दशक का ही कोई खास दिन था।
एक दिन उसने कविता से कहा, ऐसा नहीं हो सकता कि हम दोनों अलग रहें। उसने बात को सुना। इस बात का अर्थ समझने में उसे कुछ पल लगे और उसके बाद उसकी बड़ी-बड़ी आखों में आंसू दिखाई देने लगे। उसे समझ नहीं आया कि के बाद कोई किसी को छोड़ कैसे सकता है? उसने सिर्फ इतना कहा, मैं कहां जाऊंगी?कभी-कभी रोहित को कविता एक बेहद मासूम सी लड़की लगती। लेकिन पता नहीं क्यों दोनों के बीच फासले कम होने का नाम ही नहीं ले रहे थे। और इस बात का अहसास घर के किसी सदस्य को नहीं था। परिवार के लोग कविता को बहुत भग्यशाली लड़की मानते थे। उन्हें लगता था कि उसके घर में आने से घर के हालात बदल गए है। यह सच भी था। अब रोहित की तन्ख्वाह भी काफी हो गई था। कविता के साथ रहते हुए ही रोहित को पहली बार इस बात का अहसास हुआ कि पति-पत्नी का मानसिक मिलन ना हो तो भी दोनों की देह एक दूसरे की भाषा समझती हैं। इसी तरह दिन बीत रहे थे।
इधर समाज में अचानक नये मूल्य बनने की बात सामने आने लगी। कहा जाने लगा कि यह संक्रमण काल है। इसमें पुराने सारे मूल्य टूट रहे हैं और नये मूल्य बन रहे हैं। इन्हीं नये मूल्यों के तहत युवा और खूबसूरत लड़कियों ने यह कहना शुरू कर दिया था कि ईश्वर ने उन्हें खूबसूरत शरीर दिया है और इसे दुनिया को दिखाने का उन्हें पूरा हक है। और इस हक के लिए वे सड़कों पर उतरने लगीं। कंप्यूटर क्रांति ने घरों में सहज भाव से पोर्न फिल्में देखने की सुविधा मुहैया करा दी। आईपाड जैसी चीजों के जरिये अब आप कामक्रीडा के सारे दृश्य हाथ में लेकर घूम सकते थे। यह भी बीसवीं सदी का ही अंतिम दशक था।
एक दिन रोहित ने गौर किया कि कविता जो भी कपड़े पहनती हैं उनमें उसका तन पूरी तरह ढंका होता है। कई बार उसने कहा भी कि थोड़े मार्ड्न कपड़े बनवा लो। लेकिन वह हर पहले जैसे ही कपड़े बनवाती, जो रोहित को बिलकुल पसंद नहीं आते थे। इस बीच रोहित की जिंदगी में एक बड़ा बदलाव यह आया कि आफिस में हो सोनिया नाम की एक लड़की से उसकी गहरी दोस्ती हो गई। सोनिया बिंदास किस्म की लड़की थी। अकेजनली उसे ड्ंिक करने से भी गुरेज नहीं था। वह कपड़े भी मार्ड्न पहनी थी। सोनिया को मालूम था कि रोहित शादीशुदा है। लेकिन उसे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ा और दोनों एक-दूसरे के करीब आते गए। उनकी बढ़ती नजदीकियों ने कविता को रोहित से और दूर कर दिया। और एक दिन रोहित ने कविता से वह बात कह दी जिसे कहने के लिए वह काफी समय से हिम्मत जुटा रहा था। रोहित ने कहा, ऐसा नहीं हो सकता कि तुम मेरा पीछा छोड़ दो...तुम चाहो तो इसके लिए मैं तुम्हें पांच-दस लाख रुपए तक दे सकता हूं। यह बात सुनकर कविता एक क्षण को बुत सी हो गई। फिर उसने रोहित की तरफ इतनी हेय दृष्टि से देखा की रोहित एक बार को डर गया। यह पहला मौका था, जब कविता रोई नहीं थी। बल्कि उसने पूरे आत्मविश्वास से कहा था, क्या तुम सचमुच मुझे छोड़ना चाहते हो? रोहित ने बिना मौका गंवाए कहा, हां मैं तुमसे तंग आ चुका हूं और अपनी बाकी की जिंदगी तुम्हारे साथ नहीं गुजार सकता।
तो ठीक है, आप मुझे दस लाख रुपए दे दो मैं इस घर से, आपकी जिंदगी से हमेशा के लिए चली जाऊंगी।
इस तरह रोहित और कविता के बीच यह समझौता हो गया था। इस समझौते की भनक ना तो रोहित ने और ना ही कविता ने घरवालों को लगने दी थी। और रोहित दस लाख रुपए का इंतजाम करने में जुट गया। उसे मालूम था दस लाख रुपए बहुत बड़ी रकम होती है। उसने अब तक के जीवन में एक लाख रुपया भी नहीं देखा था। एकबारगी उसके मन में आया कि जोश में बहुत ज्यादा रुपया बोल गया। अगर कविता से पांच लाख रुपए के लिए कहा होता तो भी वह मान जाती। लेकिन अब तो जुबान दी जा चुकी थी, अब क्या किया जा सकता था। फिर भी रोहित खुश था। उसे इस बात की खुशी थी कि एक दो साल में दस लाख रुपए का इंतजाम करके कविता से मुिम्पाई जा सकती थी। इसके बाद वह सोनिया से शादी करने के लिए आजाद होता और अपनी वे तमाम इच्छाएं जो बीसवीं सदी के अंतिम दशक में हुए विकास के कारण जन्मी थी. वह सोनिया के साथ पूरी कर सकता था।
...और रोहित ने बाहर के काम पकड़ने शुरू कर दिए। वह ट्ांसलेशन का काम पकड़ने लगा. कई अखबारों में उसने कालम लिखने शुरू कर दिए, रेडियो और टेलिविजन के लिए स्क्रिप्ट लिखने लगा। उसके पास काम का इतना बर्डन हो गया कि उसे अब कुछ भी सोचने की फुर्सत ही नहीं मिलती थी। शुरू के छह माह में उसने पचास हजार रुपए जमा किए। उसने सोचा इस हिसाब से तो उसे दस लाख रुपए जोड़ने में दस साल लग जाएंगे। तब क्या किया जाए? एक दिन कविता ने उससे कहा, क्यों ना घर में कंप्यूटर लगा लिया जाए। और घर में कंप्यूटर लग गया। कंप्यूटर पर काम ज्यादा और तेजी से होने लगा। एक दिन रोहित को कंप्यूटर पर कुछ काम करना था, लेकिन वह बहुत थका हुआ था। तभी कविता ने उससे कहा. आप कहें तो मैं टाइप कर दूं? उसे आश्चर्य हुआ। यानी कविता ने टाइप सीख ली थी। और अब से यह नियम बन गया। वह बोलता और कविता टाइप करती। कविता उसकी लिखी हर चीज को बड़े करीने से संभाल कर रखती। कभी रोहित सोचता कि कितनी अजीब बात है दोनों पति पत्नी इसलिए मेहनत कर रहे हैं कि वे एक दूसरे से अलग हो सकें। काश दोनों ने इतनी मेहनत एक दूसरे के करीब आने के लिए की होती।
इस सारे काम के दौरान रोहित ने पाया कि कविता उतनी बुरी नहीं है जितनी उसे लगती थी। एक दिन कविता ने रोहित से कहा, क्यों नहीं आप कोई उपन्यास लिखते?
उपन्यास, उससे क्या दस लाख रुपए मिल जाएंगे?
हां, लंदन में एक कंपीटीशन निकला हुआ है, अगर आपके उपन्यास को फर्स्ट प्राइज मिल गया तो आपको दस लाख रुपए मिल जाएंगे।
यानी फर्स्ट प्राइज दस लाख का है।
कविता ने एकदम शांत भाव से कहा, हां, दस लाख का। और उसके बाद आप मुझे छोड़ सकेंगे।
रोहित को बहुत लंबे समय बाद कविता आज अच्छी लगी। उसने देखा कविता की उंगलियां अब भी उतनी ही सुंदर हैं।
और रोहित ने उपन्यास लिखना शुरू कर दिया। उपन्यास का नाम रखा बीसवीं सदी के आखिरी दशक की एक मौन प्रेम कथा। वह उपन्यास के बारे में अक्सर कविता से भी चर्चा करता। रोहित ने पाया कि अक्सर वह उपन्यास में कविता की सलाह और सुझावों को अनदेखा नहीं कर पाता। अब रोहित और कविता दोनों के पास एक कामन गोल था-उपन्यास पूरा करना। उपन्यास पूरा करने के लिए छह माह का समय था। इस दौरान रोहित कविता पर इतना निर्भर हो गया कि उसके बिना कुछ नहीं कर पाता था। रोहित ने छह माह से पहले ही उपन्यास पूरा कर लिया और उसे लंदन भेज दिया। अब रिजल्ट का इंतजार था। अब अक्सर रोहित और कविता की बातचीत होने लगी। लेकिन दोनों में से कोई भी इस विषय पर बातचीत नहीं करता था कि यदि रोहित को ईनाम मिल गया तो क्या होगा? कविता जरूर कह देती थी कि ईनाम मिले या ना मिले इस बहाने एक उपन्यास तो लिखा गया।
वम्गुजरता रहा। और एक दिन जब रोहित शाम को घर पहुंचा तो उसने देखा कि कविता के चेहरे पर गजब का तेज है। उसने कारण पूछा तो कविता ने बताया, बधाई हो आपके उपन्यास को फर्स्ट प्राइज मिला है। रोहित को यकीन नहीं हुआ। लेकिन कविता के हाथ का पत्र बता रहा था कि वह जो कह रही सच कह रही है। अब उसे दस लाख रुपए मिल जाएंगे और लंदन की यात्रा भी हो जाएगी। अच्छी बात यह थी कि लंदन में उन्होंने अपने साथ एक व्यिम्को ले जाने की छूट दी थी। यानी वह अपने साथ कविता को भी ले जा सकेगा।
जल्दी-जल्दी में रोहित ने दोनों के पासपोर्ट बनवाए और फिर तय समय पर दोनों लंदन रवाना हो गए। यह पहला मौका था जब वे जहाज में बैठ रहे थे। कविता पहले तो जाने के लिए राजी ही नहीं हो रही थी। बड़ी मुश्किल से रोहित और सारे घरवालों के दबाव के सामने वह झुकी।
जब दोनों लंदन से साथ लौटे तो बेहद खुश थे। सारे मीडिया में रोहित और कविता की तस्वीरें छपी थीं। और रोहित अचानक बड़ा आदमी हो गया था। उसके पास बधाइयों के ढेरों फोन आ रहे थे। कविता भी बेहद खुश थी। और फिर वह दिन भी आ गया जब रोहित बैंक से दस लाख रुपए का चैक कैश करा कर घर पहुंचा। इतने सारे नोट रोहित ने पहले कभी नहीं देखे थे। जब रोहित घर पहुंचा तो उसने देखा कविता अपना सामान पैक करके बैठी है और उसके चेहरे पर एक अजीब सा सूनापन है। रोहित यह बात लगभग भूल ही गया था कि इन दस लाख रुपयों के ऐवज में उसे कविता को छोड़ना होगा। रोहित ने पैसों से भरा बैग कविता के पास ले जाकर रखा। कविता ने पैसों की ओर देखा तक नहीं। बस वह रोहित को ही देखती रही।
कुछ देर दोनों के बीच चुप्पी पसरी रही। फिर कविता ने उठते हुए कहा, मैं चलूं?
रोहित ने कहा, नहीं अब तुम कहीं नहीं जाओगी। अब हमें साथ-साथ और भी बहुत काम करना है। और मैं तुम्हारे बिना अब कुछ भी नहीं कर सकता। और हां, एक बात मैं तुमसे बहुत समय से कहना की सोच रहा था, तुम्हारी उंगलियां बहुत खूबसूरत हैं।
इतना कहते ही कविता के वे आंसू जो न जाने कब से रुके हुए थे अचानक बह निकले। रोहित ने भी उन्हें पोंछने की कोई कोशिश नहीं की। बस इसी तरह रोते रोते कवित रोहित के गले लग गई। रोहित के मुंह से निकला, कौन कहता है बीसवीं सदी का अंतिम दशक प्रेम विरोधी दशक है?