Saturday, March 19, 2011

बीसवीं सदी के अंतिम दशक में जन्मी एक प्रेम कहानी

सुधांशु गुप्ता
(प्रकाशित : गृहलक्ष्मी  पत्रिका)
यह बीसवीं सदी के अंतिम दशक का एक दिन था। वह जीवन में पहली बार लड़की देखने जा रहा था। वह यानी रोहिम वर्मा। यूं तो रोहित अरेंज्ड मैरिज के बहुत खिलाफ था। लेकिन जीवन में कभी-कभी ऐसी स्थितियां आती हैं, जिन पर इनसान का बस नहीं चलता। अनेक लड़कियों से प्रेम संबंध बनाने और उनके टूटने के बाद रोहित पहली बार अकेला सा महसूस कर रहा था। सो उसने फैसला किया कि अब उसे शादी कर लेनी चाहिए। और घरवालों के आग्रह पर वह लड़की देखने के लिए चल दिया। लड़की के परिवारवाले एक एलआईजी लैट में रहते थे। उसके साथ जाने वालों में उसकी बड़ी बहन, जीजा और एक छोटा भाई था। लड़की घर उनके घर से बहुत ज्यादा दूर नहीं था। ना तो आटो का ही रास्ता था और ना पैदल का। सो उन्हें हाथ रिक्शा पर जाना पड़ा। शादी के लिए रोहित जब कुछ सोचता तो उसके जेहन में दो ही बातें सबसे पहले आती थी। पहली यह कि वह किसी पंजाबी लड़की से शादी नही करेगा और दूसरी यह कि लड़की का घर, उस शहर में नहीं होना चाहिए जिस शहर में वह रहता है। लेकिन उसकी ये दोनों ही अप्रकट इच्छाएं यहां पूरी नहीं हो रही थीं। फिर भी वह लड़की देखने आ गया था।
लड़कीवालों का घर छोटा लेकिन साफसुथरा था। पर पता नहीं क्यों रोहित को गेट में प्रवेश करने के साथ ही कुछ भी अच्छा नहीं लगा था। उसने मुंह बनाकर यह बात बहन के सामने प्रकट भी कर दी थी। लेकिन अब क्योंकि लड़की देखने आ चुके थे इसलिए यह संभव नहीं था कि बिना लड़की देखे वापस जाएं। रोहित ने घर में प्रवेश करने के साथ ही एक और बात यह भी नोट की कि लड़की वालों के स्वागत सत्कार में एक ठंडापन है। कुछ देर इसी तरह औपचारिक बातचीत के बाद कमरे में लड़की ने प्रवेश किया। पता नहीं कैसे रोहित की नजरें सबसे पहले लड़की के हाथों पर पड़ीं। उसने देखा कि लड़की के हाथ बहुत खूबसूरत हैं खासतौर से उसकी उंगलियां। फिर उसकी नजरें उंगलियों से ऊपर गई और उसने लड़की को ध्यान से देखा। गोल चेहरा...बड़ी-बड़ी आंखें...अच्ची कद काठी...रोहित ने उसकी तस्वीर को पल भर के लिए अपने जेहन में बसाया और यह तय करने की कोशिश की कि लड़की सुंदर है या नहीं। वह कुछ तय नहीं कर पाया। न जाने क्यों उसकी उंगलियां ही रोहित के जेहन में बस गईं और रोहित ने पया कि उसकी उंगलियां बेहद खूबूसरत हैं।
दोनों की शादी तय हो गई। रोहित वैड्स कविता।
यह भी बीसवीं सदी के अंतिम दशक का ही एक दिन था।
रोहित एक अखबार के दतर में छोटी सी नौकरी कर रहा था, लेकिन उसके सपने बहुत बड़े थे। वह चाहता था कि कविता के साथ मिलकर अपने सपनों को पूरा करे। लेकिन शादी के तुरंत बाद दो अहम बातें हुईं। पहली देश में आरक्षण लागू कर दिया गया, जिसके विरोध में जगह-जगह धरने प्रदर्शन और आत्मदाह होने लगे। 14-14 साल के लड़कों ने आत्मदाह करके आरक्षण का विरोध किया। आरक्षण की इस आग की लपटें पूरे देश में दिखाई दीं। और आग की इन्हीं लपटों के बीच उसने अपनी सुहागरात मनाई-अपने घर पर ही। और रोहित ने महसूस किया कि जब उसका शरीर प्रेम की आग में तपने लगता है तभी न जाने कैसे प्रेम की यह आग आरक्षण की आग में बदल जाती है। दूसरी बात जो उसे शादी के दो तीन दिन बाद समझ में आई वह यह थी कि कविता एक नितांत धार्मिक प्रवृŸिा की, साफ-सफाई को पति और प्रेम से ज्यादा तरजीह देने वाली ऐसी लड़की है, जिसके लिए पति से भी सेक्स संबंध बनाना एक घृणित कार्य है। इस तरह दोनों बीच दूरियां बननी शुरू हो गई। बस उसकी एक ही बात अच्छी थी कि वह घर को बहुत सलीके से रखती थी और रोहित का पूरा परिवार कविता के आने से बेहद खुश था।
और बीसवीं सदी के इस अंतिम दशक में खुशी के और भी कई कारण अचानक पैदा हो रहे थे। टीवी रंगीन हो चला था। मनुष्य ने युद्धों के भी लाइव प्रसारण देखने की ताकत अर्जित कर ली थी। वैश्वीकरण ने मुल्कों की सरहदों को खत्म करना शुरू कर दिया था। और देश के प्रधनमंत्री ने पहली आर्थिक उदारीकरण की शुरुआत कर दी थी।
इधर घर में कविता के आने के बाद से घर की आर्थिक स्थिति बेहतर होने लगी थी और पहली बार घर में सोफा सेट आया था। अब परिवार के लोग रात का खाना सोफे पर बैठ कर खाते थे। कविता आर्थिक उदारीकरण और वैश्वीकरण के बारे में कुछ नहीं जानती थी। जिस दिन रोहित का इंक्रीमेंट हुआ उस दिन पहली बार कविता ने रोहित से कहा, क्यों ना घर में एक रंगीन टीवी ले आएं। रोहित ने सोचा, रंगीन टीवी लाने का मतलब है छह हजार रुपए। लेकिन उसे कविता का यह प्रस्ताव अच्छा लगा। कुछ जुगाड़ करके घर में रंगीन टीवी आ गया। अब परिवार की शामें टीवी देखते हुए बीतने लगीं। सैटेलाइट टीवी और केबल ने चित्रहार और रविवार की फिल्मों को इच्छाओं को विस्तार दिया और घर में अनेक प्रोग्राम देखे जाने लगे। सब खुश थे...बस रोहित और कविता के बीच की कांस्टेंट दूरी बनी हुई थी। वह ना कम हो रही थी और ना बढ़ रही थी। कविता जब शादी करके उनके घर आई थी, तो सिंगल बैड लाई थी और रोहित के लिए शादी का अर्थ ही डबल बैड से शुरू होता था। इस सिंगल बैड पर दो व्यिम्आराम से एक दूसरे की बांहों में बांहें ़डालकर सो सकते थे। लेकिन जब वे दोनों रात को एक साथ बैड पर होते तो रोहित को अहसास होता कि यह सिंगल बैड कितना बड़ा है। दोनों ने बैड पर ही अपने-अपने कोने तलाश लिए थे। सोते समय अक्सर कविता की पीठ रोहित की तरफ होती। वह कविता की पीठ के हर कर्व से वाकिफ हो गया। एक दिन जब कविता सो रही थी तो उसने अपना एक हाथ बढ़ाकर कविता को छूने की कोशिश की। उसने पाया कि दोनों के बीच लगभग हाथ भर का फासला था। रोहित सोचने लगा कि इस हाथ भर के फासले को उम्र भर चलना पड़ेगा।
मोबाइल के आगमन ने अचानक लोगों के बीच बढ़ रहे फासलों को खत्म कर दिया था। अब आप कहीं से भी किसी से भी संपर्क कर सकते थे। संचार के क्षेत्र में यह एक बड़़ा क्रांतिकारी कदम था। और यह भी बीसवीं सदी के आखिरी दशक का ही कोई खास दिन था।
एक दिन उसने कविता से कहा, ऐसा नहीं हो सकता कि हम दोनों अलग रहें। उसने बात को सुना। इस बात का अर्थ समझने में उसे कुछ पल लगे और उसके बाद उसकी बड़ी-बड़ी आखों में आंसू दिखाई देने लगे। उसे समझ नहीं आया कि के बाद कोई किसी को छोड़ कैसे सकता है? उसने सिर्फ इतना कहा, मैं कहां जाऊंगी?कभी-कभी रोहित को कविता एक बेहद मासूम सी लड़की लगती। लेकिन पता नहीं क्यों दोनों के बीच फासले कम होने का नाम ही नहीं ले रहे थे। और इस बात का अहसास घर के किसी सदस्य को नहीं था। परिवार के लोग कविता को बहुत भग्यशाली लड़की मानते थे। उन्हें लगता था कि उसके घर में आने से घर के हालात बदल गए है। यह सच भी था। अब रोहित की तन्ख्वाह भी काफी हो गई था। कविता के साथ रहते हुए ही रोहित को पहली बार इस बात का अहसास हुआ कि पति-पत्नी का मानसिक मिलन ना हो तो भी दोनों की देह एक दूसरे की भाषा समझती हैं। इसी तरह दिन बीत रहे थे।
इधर समाज में अचानक नये मूल्य बनने की बात सामने आने लगी। कहा जाने लगा कि यह संक्रमण काल है। इसमें पुराने सारे मूल्य टूट रहे हैं और नये मूल्य बन रहे हैं। इन्हीं नये मूल्यों के तहत युवा और खूबसूरत लड़कियों ने यह कहना शुरू कर दिया था कि ईश्वर ने उन्हें खूबसूरत शरीर दिया है और इसे दुनिया को दिखाने का उन्हें पूरा हक है। और इस हक के लिए वे सड़कों पर उतरने लगीं। कंप्यूटर क्रांति ने घरों में सहज भाव से पोर्न फिल्में देखने की सुविधा मुहैया करा दी। आईपाड जैसी चीजों के जरिये अब आप कामक्रीडा के सारे दृश्य हाथ में लेकर घूम सकते थे। यह भी बीसवीं सदी का ही अंतिम दशक था।
एक दिन रोहित ने गौर किया कि कविता जो भी कपड़े पहनती हैं उनमें उसका तन पूरी तरह ढंका होता है। कई बार उसने कहा भी कि थोड़े मार्ड्न कपड़े बनवा लो। लेकिन वह हर पहले जैसे ही कपड़े बनवाती, जो रोहित को बिलकुल पसंद नहीं आते थे। इस बीच रोहित की जिंदगी में एक बड़ा बदलाव यह आया कि आफिस में हो सोनिया नाम की एक लड़की से उसकी गहरी दोस्ती हो गई। सोनिया बिंदास किस्म की लड़की थी। अकेजनली उसे ड्ंिक करने से भी गुरेज नहीं था। वह कपड़े भी मार्ड्न पहनी थी। सोनिया को मालूम था कि रोहित शादीशुदा है। लेकिन उसे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ा और दोनों एक-दूसरे के करीब आते गए। उनकी बढ़ती नजदीकियों ने कविता को रोहित से और दूर कर दिया। और एक दिन रोहित ने कविता से वह बात कह दी जिसे कहने के लिए वह काफी समय से हिम्मत जुटा रहा था। रोहित ने कहा, ऐसा नहीं हो सकता कि तुम मेरा पीछा छोड़ दो...तुम चाहो तो इसके लिए मैं तुम्हें पांच-दस लाख रुपए तक दे सकता हूं। यह बात सुनकर कविता एक क्षण को बुत सी हो गई। फिर उसने रोहित की तरफ इतनी हेय दृष्टि से देखा की रोहित एक बार को डर गया। यह पहला मौका था, जब कविता रोई नहीं थी। बल्कि उसने पूरे आत्मविश्वास से कहा था, क्या तुम सचमुच मुझे छोड़ना चाहते हो? रोहित ने बिना मौका गंवाए कहा, हां मैं तुमसे तंग आ चुका हूं और अपनी बाकी की जिंदगी तुम्हारे साथ नहीं गुजार सकता।
तो ठीक है, आप मुझे दस लाख रुपए दे दो मैं इस घर से, आपकी जिंदगी से हमेशा के लिए चली जाऊंगी।
इस तरह रोहित और कविता के बीच यह समझौता हो गया था। इस समझौते की भनक ना तो रोहित ने और ना ही कविता ने घरवालों को लगने दी थी। और रोहित दस लाख रुपए का इंतजाम करने में जुट गया। उसे मालूम था दस लाख रुपए बहुत बड़ी रकम होती है। उसने अब तक के जीवन में एक लाख रुपया भी नहीं देखा था। एकबारगी उसके मन में आया कि जोश में बहुत ज्यादा रुपया बोल गया। अगर कविता से पांच लाख रुपए के लिए कहा होता तो भी वह मान जाती। लेकिन अब तो जुबान दी जा चुकी थी, अब क्या किया जा सकता था। फिर भी रोहित खुश था। उसे इस बात की खुशी थी कि एक दो साल में दस लाख रुपए का इंतजाम करके कविता से मुिम्पाई जा सकती थी। इसके बाद वह सोनिया से शादी करने के लिए आजाद होता और अपनी वे तमाम इच्छाएं जो बीसवीं सदी के अंतिम दशक में हुए विकास के कारण जन्मी थी. वह सोनिया के साथ पूरी कर सकता था।
...और रोहित ने बाहर के काम पकड़ने शुरू कर दिए। वह ट्ांसलेशन का काम पकड़ने लगा. कई अखबारों में उसने कालम लिखने शुरू कर दिए, रेडियो और टेलिविजन के लिए स्क्रिप्ट लिखने लगा। उसके पास काम का इतना बर्डन हो गया कि उसे अब कुछ भी सोचने की फुर्सत ही नहीं मिलती थी। शुरू के छह माह में उसने पचास हजार रुपए जमा किए। उसने सोचा इस हिसाब से तो उसे दस लाख रुपए जोड़ने में दस साल लग जाएंगे। तब क्या किया जाए? एक दिन कविता ने उससे कहा, क्यों ना घर में कंप्यूटर लगा लिया जाए। और घर में कंप्यूटर लग गया। कंप्यूटर पर काम ज्यादा और तेजी से होने लगा। एक दिन रोहित को कंप्यूटर पर कुछ काम करना था, लेकिन वह बहुत थका हुआ था। तभी कविता ने उससे कहा. आप कहें तो मैं टाइप कर दूं? उसे आश्चर्य हुआ। यानी कविता ने टाइप सीख ली थी। और अब से यह नियम बन गया। वह बोलता और कविता टाइप करती। कविता उसकी लिखी हर चीज को बड़े करीने से संभाल कर रखती। कभी रोहित सोचता कि कितनी अजीब बात है दोनों पति पत्नी इसलिए मेहनत कर रहे हैं कि वे एक दूसरे से अलग हो सकें। काश दोनों ने इतनी मेहनत एक दूसरे के करीब आने के लिए की होती।
इस सारे काम के दौरान रोहित ने पाया कि कविता उतनी बुरी नहीं है जितनी उसे लगती थी। एक दिन कविता ने रोहित से कहा, क्यों नहीं आप कोई उपन्यास लिखते?
उपन्यास, उससे क्या दस लाख रुपए मिल जाएंगे?
हां, लंदन में एक कंपीटीशन निकला हुआ है, अगर आपके उपन्यास को फर्स्ट प्राइज मिल गया तो आपको दस लाख रुपए मिल जाएंगे।
यानी फर्स्ट प्राइज दस लाख का है।
कविता ने एकदम शांत भाव से कहा, हां, दस लाख का। और उसके बाद आप मुझे छोड़ सकेंगे।
रोहित को बहुत लंबे समय बाद कविता आज अच्छी लगी। उसने देखा कविता की उंगलियां अब भी उतनी ही सुंदर हैं।
और रोहित ने उपन्यास लिखना शुरू कर दिया। उपन्यास का नाम रखा बीसवीं सदी के आखिरी दशक की एक मौन प्रेम कथा। वह उपन्यास के बारे में अक्सर कविता से भी चर्चा करता। रोहित ने पाया कि अक्सर वह उपन्यास में कविता की सलाह और सुझावों को अनदेखा नहीं कर पाता। अब रोहित और कविता दोनों के पास एक कामन गोल था-उपन्यास पूरा करना। उपन्यास पूरा करने के लिए छह माह का समय था। इस दौरान रोहित कविता पर इतना निर्भर हो गया कि उसके बिना कुछ नहीं कर पाता था। रोहित ने छह माह से पहले ही उपन्यास पूरा कर लिया और उसे लंदन भेज दिया। अब रिजल्ट का इंतजार था। अब अक्सर रोहित और कविता की बातचीत होने लगी। लेकिन दोनों में से कोई भी इस विषय पर बातचीत नहीं करता था कि यदि रोहित को ईनाम मिल गया तो क्या होगा? कविता जरूर कह देती थी कि ईनाम मिले या ना मिले इस बहाने एक उपन्यास तो लिखा गया।
वम्गुजरता रहा। और एक दिन जब रोहित शाम को घर पहुंचा तो उसने देखा कि कविता के चेहरे पर गजब का तेज है। उसने कारण पूछा तो कविता ने बताया, बधाई हो आपके उपन्यास को फर्स्ट प्राइज मिला है। रोहित को यकीन नहीं हुआ। लेकिन कविता के हाथ का पत्र बता रहा था कि वह जो कह रही सच कह रही है। अब उसे दस लाख रुपए मिल जाएंगे और लंदन की यात्रा भी हो जाएगी। अच्छी बात यह थी कि लंदन में उन्होंने अपने साथ एक व्यिम्को ले जाने की छूट दी थी। यानी वह अपने साथ कविता को भी ले जा सकेगा।
जल्दी-जल्दी में रोहित ने दोनों के पासपोर्ट बनवाए और फिर तय समय पर दोनों लंदन रवाना हो गए। यह पहला मौका था जब वे जहाज में बैठ रहे थे। कविता पहले तो जाने के लिए राजी ही नहीं हो रही थी। बड़ी मुश्किल से रोहित और सारे घरवालों के दबाव के सामने वह झुकी।
जब दोनों लंदन से साथ लौटे तो बेहद खुश थे। सारे मीडिया में रोहित और कविता की तस्वीरें छपी थीं। और रोहित अचानक बड़ा आदमी हो गया था। उसके पास बधाइयों के ढेरों फोन आ रहे थे। कविता भी बेहद खुश थी। और फिर वह दिन भी आ गया जब रोहित बैंक से दस लाख रुपए का चैक कैश करा कर घर पहुंचा। इतने सारे नोट रोहित ने पहले कभी नहीं देखे थे। जब रोहित घर पहुंचा तो उसने देखा कविता अपना सामान पैक करके बैठी है और उसके चेहरे पर एक अजीब सा सूनापन है। रोहित यह बात लगभग भूल ही गया था कि इन दस लाख रुपयों के ऐवज में उसे कविता को छोड़ना होगा। रोहित ने पैसों से भरा बैग कविता के पास ले जाकर रखा। कविता ने पैसों की ओर देखा तक नहीं। बस वह रोहित को ही देखती रही।
कुछ देर दोनों के बीच चुप्पी पसरी रही। फिर कविता ने उठते हुए कहा, मैं चलूं?
रोहित ने कहा, नहीं अब तुम कहीं नहीं जाओगी। अब हमें साथ-साथ और भी बहुत काम करना है। और मैं तुम्हारे बिना अब कुछ भी नहीं कर सकता। और हां, एक बात मैं तुमसे बहुत समय से कहना की सोच रहा था, तुम्हारी उंगलियां बहुत खूबसूरत हैं।
इतना कहते ही कविता के वे आंसू जो न जाने कब से रुके हुए थे अचानक बह निकले। रोहित ने भी उन्हें पोंछने की कोई कोशिश नहीं की। बस इसी तरह रोते रोते कवित रोहित के गले लग गई। रोहित के मुंह से निकला, कौन कहता है बीसवीं सदी का अंतिम दशक प्रेम विरोधी दशक है?

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