Thursday, March 8, 2012

साहित्यकार को हमेशा विपक्षी होना चाहिए : वरवर राव

गुरुवार, 21 दिसंबर, 2006
आंध्रप्रदेश में नक्सलवादी संघर्ष के प्रवक्ता और क्राँतिकारी तेलुगू कवि वरवर राव मानते हैं कि साहित्यकार यदि सत्ता के क़रीब रहेगा तो अच्छा नहीं लिख सकता.



वे मानते हैं कि साहित्यकार को हमेशा विपक्षी होना चाहिए.



विकास की बातों पर वे कहते हैं कि जब तक आप लोगों को रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा और स्वास्थ्य की सुविधाएँ नहीं दे सकते तब तक विकास की बातें करना बेमानी है.



हाल ही में दिल्ली आए तो जनवादी आंदोलनों, जन संघर्षों में साहित्य की भूमिका और आर्थिक उदारीकरण, वैश्वीकरण और भूमंडलीकरण पर सुधांशु गुप्त ने उनसे लंबी बात की.



बातचीत के कुछ अहम अंश-



वैश्वीकरण और निजीकरण के ख़िलाफ़ शुरु हुए जन-आंदोलनों की आज क्या स्थिति है?



1991 में जब वैश्वीकरण, उदारीकरण और निजीकरण उभरकर सामने आया तो जो क्राँतिकारी सामंतवाद विरोधी संघर्ष चला रहे थे, उन्हें लगा कि इसे तेज़ करने का वक्त आ गया है. और क्योंकि जनवाद का संघर्ष सामंतवाद से ही नहीं होता बल्कि साम्राज्यवाद से भी होता है इसलिए हमने महसूस किया कि इस वैश्वीकरण के विरोध में एक संगठन होना चाहिए. और 1992 में कोलकाता में ऑल रिपब्लिक रेसिसेंटस फोरम शुरू किया गया.



लेकिन 1992 में ही आपने एक और फ्रंट बनाया था फैग (एफएजी)?



भारत में सामंतवाद और साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ जो विभिन्न शक्तियाँ हैं उन्हें मिलाकर हमने एक संगठन बनाया था ‘फोरम अगेंस्ट ग्लोबल इंपिरियलिज़्म’(फैग). दरअसल हमारा मक़सद भारत में ही बिखरी शक्तियों को एकत्रित करना था ताकि वैश्वीकरण के ख़िलाफ़ लडा़ई लड़ी जा सके.



भारत में साम्राज्यवाद विरोधी शक्तियों को आप कितने हिस्सों में बाँट सकते है?



भारत में साम्राज्यवाद विरोधी शक्तियों को मैं तीन रूपों में देखता हूँ. एक जो लोग जम्मू-कश्मीर और उत्तर पूर्व में संघर्ष चला रहे हैं. इनका संघर्ष मूल रूप से अपनी अस्मिता और ‘सेल्फ डिटरमिनेशन’ के लिए है. दूसरी फोर्स हमारी है जो आँध्रप्रदेश समेत 14 राज्यों में क्राँतिकारी संघर्ष की अगुवाई कर रही है और तीसरी फोर्स चिपको तथा नर्मदा आंदोलन चला रहे संघर्षकारियों की है जो लोकतांत्रिक तरीकों से अपनी लड़ाई लड़ रहे हैं. हमने इन्हीं तीनों फोर्सेस को मिलाकर फैग का गठन किया था.



पीपल्स वारग्रुप और एमसीसी (माओवादी को-ऑर्डिनेशन सेंटर) के बीच जो एकता बनी थी उसका क्या हाल है?



2004 में पीडब्ल्यूजी और एमसीसी में यूनिटी हुई थी वह आज 14 राज्यों में सफलतापूर्वक काम कर रही है. इनमें आंध्रप्रदेश, उड़ीसा, कर्नाटक, बिहार, झारखंड, हरियाणा, पंजाब, बंगाल, महाराष्ट्र आदि प्रमुख हैं.



क्या आप भारत में कभी नेपाल जैसी स्थिति की कल्पना करते हैं? या पीडब्ल्यू और एमसीसी जैसे संगठनों को हमेशा अंडरग्राउंड ही काम करना पड़ेगा?



भारत में नेपाल जैसी स्थिति की कल्पना कभी नहीं की जा सकती. ख़ासकर इसिलए क्योंकि दोनों देश राजनीतिक रुप से, व्यावहारिक रुप से और दर्शन की दृष्टि से भी बेहद अलग हैं. (हँसते हुए) जहाँ तक पीडब्ल्यू और एमसीसी जैसे संगठनों का अंडरग्राउंड काम करने का सवाल है तो ज़ाहिर है जब तक संपूर्ण क्राँति नहीं हो जाती तब तक तो हम अंडरग्राउंड ही काम करेंगे.



विभिन्न भारतीय भाषाओं के जनसाहित्य में जन संघर्षों को क्या उचित जगह मिल पा रही है?



बांग्ला में और तेलुगू के जन-साहित्य में जनआंदोलनों को हमेशा उचित स्थान मिला है.



क्या हिंदी पर भी यही बात लागू होती है?



इस दौर में तो हिंदी में भी मुक्तिबोध, गोरख पांडे जैसे रचनाकार हुए. उधर पंजाब में पाश हुए.



लेकिन पिछले दो-तीन दशकों में हिंदी साहित्य की क्या स्थिति आप पाते हैं?



यह सच है कि पिछले कुछ समय में हिंदी में अच्छा साहित्य नहीं लिखा जा रहा है. इसकी वजह तो यह हो सकती है कि हिंदी में वर्ग संघर्ष खत्म हो गया. एक अन्य अहम वजह यह हो सकती है कि दिल्ली सत्ता का गढ़ है और जब साहित्यकार भी सत्ता के करीब रहने की कोशिशें करेंगे तो अच्छा साहित्य कैसे लिखा जाएगा? मेरा मानना है कि साहित्यकार को हमेशा विपक्षी होना पड़ता है. साहित्य के लिए शुरू में होने वाले ढेरों पुरस्कारों ने भी साहित्याकारों की लेखनी को कमजोर किया है. क्योंकि सत्ता अंततः साहित्य की धार कुंद करती है, उसे भ्रष्ट करती है.



भारत पर उदारीकरण और वैश्वीकरण का क्या असर हुआ?



बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ अपने मूल चरित्र-सामंतवाद को कभी नहीं बदलतीं. वास्तव में साम्राज्यवाद और सामंतवाद के बीच सौहार्द का रिश्ता होता है. और साम्राज्यवाद हमेशा से सामंती मूल्यों और कार्यव्यापार को ही प्रोत्साहित करता है. आप संस्कृति के क्षेत्र में इसे बेहतर तरीके से देख सकते हैं. सेटेलाइट चैनल भारत में क्या परोस रहे हैं? एक ओर प्रतिक्रियावादी दर्शन तो दूसरी ओर भ्रष्ट पश्चिमी संस्कृति. जब तक आप लोगों को रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा और स्वास्थ्य की सुविधाएँ नहीं दे सकते तब तक विकास की बातें करना बेमानी है. दिलचस्प रूप से आज चुनावी वादों में नेता टीवी देने की बात करता है. कभी एनटी रामाराव ने दो किलो चावल देने का वादा किया था. तो हम चावल से टीवी पर आ गए हैं. मेरा मानना है कि बाज़ार की ताक़तें सूचना और टेक्नॉलॉजी का भरपूर दुरुपयोग कर रही हैं. और इन्हीं सबके विरोध में हम खड़े हैं.



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वरवर की प्रिय कविता

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कसाई का बयान



एक



मैं बेचता हूँ माँस

चाहे आप मुझे कसाई कहें

यह आपकी इच्छा

मैं मारता हूँ हर रोज़ पशुओं को

काटकर उनका माँस बेचता हूँ.

रक्त देखकर मैं नहीं चौंकता

अपने कसाई होने का अर्थ

उस दिन समझा था मैं

बस गया मेरी आँखों में उस मासूम का ख़ून

फँस गई है मेरे गले में उसकी आवाज़

रोज़ करता हूँ इन्हीं हाथों से पशुओं का वध

लेकिन गला नहीं अभी तक मेरे मन पर

ख़ून का दाग़

उस दिन सड़क, पर नहीं.

मेरे मन पर फैल गया था उस बच्चे का ख़ून...

क्या तुम इसे धो पाओगे?

तुम्हारे इंसानी हाथ.

क्या बोझा हल्का कर पाएँगे मेरे दिल का.



दो



उसके जिस्म पर

टूट गई थीं छह लाठियाँ

क़ातिल के कांधे से

बरस रहा था उसके जिस्म पर बंदूक का कुंदा

लगातार.

नली टकरा रही थी सिपाहियों के जबड़ों से

और वह सड़क पर चित पड़ा था

शव की भाँति.



एक ने कहा-‘यह चाकू मार देगा’

और सुनते ही दूसरे सिपाही ने दाग़ दी गोली

उसके मुठभेड़ में मारे जाने की

ख़बरें छपी थीं दूसरे दिन.

मैं पशुओं से हरता हूँ प्राण

क्रोध और घृणा से नहीं

मैं बेचता हूँ माँस

पर स्वयं को नहीं.



तीन



हज़ार ज़ख्मों से रिस रहा था रक्त

हज़ारों भीगे नेत्र देख रहे थे

मेरे टोहे पर पड़ी बकरी की भाँति.

वह नहीं चीखा था

उसकी आँखों में नहीं थे अश्रु भी जाने क्यों

क्या वह देख रहा था आने वाले कल को.



चार



कल का दृश्य

कल और आज के बीच स्थित वर्षों का दृश्य

15 मई के बंद का दृश्य

कैसे भूल पाऊँगा मैं जीवन भर

मिटेगा किस तरह यह सब मेरे मन पर से

बता सकता हूँ आज तुम्हें

शायद कल नहीं, आज ही यह कि वह मासूम मेरा पीछा करेगा

उम्र भर लगता है.

इस प्रकार तो हम नहीं मारते हैं साँप को भी.

प्रतिदिन बकरियों को मारने वाला मैं

उस दिन समझा कि

कैसी होती है षडयंत्र से प्राण लेने वाली क्रूरता.



मैं कसाई हूँ.

अपनी आजीविका के लिए

पशुओं को मारने वाला कसाई.



व्यक्ति को मारने पर तो

मिलते हैं पद

पुरस्कार

बैज मंत्री के हाथों.

मंत्री यानी सरकार

किंतु उस दिन जाना मैंने

कि कौन किसकी सरकार

और कैसी रक्षा

असली कसाई कौन है.



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फिल्म महोत्सव के लिए बनी ‘अरमान’

फिल्म महोत्सवों के लिए फिल्में के बनने का क्रेज लगातार बढ़ता जा रहा है। इसी कड़ी में एक और फिल्म जुड़ गई है ‘अरमान’। देश विभाजन के बाद कई फिल्में हिंदू-मुस्लिम प्रेम कथाओं पर बनी। शेष इंटरनेशनल एंटरटेनमेंट के बैनर तले निर्मित इस लघु फिल्म में भी ऐसे ही मुद्दे को उजागर किया गया है। गौरतलब है कि इस फिल्म की शूटिंग दिसंबर के अंतिम सप्ताह में उत्तर प्रदेश के जनपद बुलंद शहर में संपन्न हुई।


अरमान की कहानी आनंद ‘लहर’ की प्रसिद्ध कहानी ‘गौरी’ पर आधारित है। फिल्म में आजादी के 63 साल बाद भी दोनों मजहबों में प्रेम और शादी की रिश्ते को स्वीकार न कर पाने की मानसिकता को दर्शाया गया है।

फिल्म में नायक और नायिका दोनों बचपन के दोस्त हैं। दोस्ती जब प्यार में बदलती है तो समाज दोनों के बीच मजहब की दीवार खड़ी कर देता है। जिससे दोनों अपना धर्म बदल लेते हैं। जब इस रहस्य से परदा उठता है तो समस्या वापस वहीं आकर खड़ी हो जाती है।

फिल्म का निर्देशन राजीव गुप्ता और सुधीश शर्मा ने किया है। निर्माता राजेश्वर चौहान और रमेश वर्मा है। मुख्य भूमिका भरत और ममता दहिया ने निभाई है। मुंबई के जाने-माने कलाकार एसके बत्रा चंद्रशेखर रैना और सविता शर्मा के अलावा बाल कलाकार अदिति गौड़ और जीनीश गौड़ के अभिनय में सजी इस फिल्म की पटकथा और संवाद राजीव, सुधांशु गुप्त ने लिखें हैं। सहनिर्देशक प्रियंका शर्मा और वीपी कालरा तथा प्रोडक्शन मैनेजर राजकमल हैं। फिल्म ‘अरमान’ का एक ही लक्ष्य है ‘धर्म परिवर्तन किसी समस्या का समाधान नहीं’ का संदेश देना।



अंगना में उतरा आईपीएल

टीवी पर क्रिकेट मैच देखना महिलाओं को अमूमन बहुत ज्यादा पसंद नहीं आता, खासकर इसलिए भी, क्योंकि इन मैचों को देखने के लिए उन्हें अपने पसंदीदा धारावाहिकों की बलि देनी होती है। लेकिन इस बार आईपीएल-3 के दौरान महिला दर्शकों की बढ़ती संख्या यह साबित कर रही है कि अब महिलाओं को क्रिकेट रास आने लगा है। सुधांशु गुप्त की रिपोर्ट।



हिंदुस्तान में क्रिकेट अगर मजहब है तो अब तक यह एक मिथ ही था कि महिलाओं को टीवी पर मैच देखना रास नहीं आता। टीवी का अर्थ उनके लिए सास बहू संस्कृति के वे अंतहीन धारावाहिक रहे हैं, जो उन्हें एक कल्पनालोक में ले जाते हैं। इसलिए जब मार्च के दूसरे सप्ताह में आईपीएल-3 की शुरुआत हुई तो यह कयास लगाये गये कि आईपीएल मैचों के चलते महिलाएं अपने प्रिय धारावाहिकों को देखने से वंचित रहेंगी।



वैसे भी आईपीएल का पहला और दूसरा संस्करण इस बात के गवाह रहे हैं कि इस दौरान टीवी कार्यक्रमों की रेटिंग में जबरदस्त गिरावट आती है। तो आईपीएल शुरू होने से पहले ही दो स्तरों पर काम शुरू हो गया था। एक तो विभिन्न चैनलों ने ऐसी रणनीति बनाई, जिससे उनके दर्शक टीवी से दूर न भागें। इसके लिए उन्होंने अपने जमाने की सुपरहिट फिल्में दिखाने के साथ-साथ ऐसे प्रोग्राम भी तैयार किये, जो दर्शकों-खासकर महिला दर्शकों को आईपीएल से दूर रख सकें। उधर एक कंपनी ने इस बाबत एक सर्वे किया और उसमें कई दिलचस्प तथ्य सामने आये।



जीएफके नामक इस कंपनी ने दिल्ली, मुंबई, कोलकाता और चेन्नई में यह सर्वे किया। इस सर्वे का मकसद यह देखना था कि क्या आईपीएल के दौरान घरेलू महिलाओं की टीवी देखने की आदत में कुछ बदलाव आता है? सर्वे में पाया गया कि 67 प्रतिशत महिलाएं इस बात से चिंतित थीं कि आईपीएल के दौरान उनके पति के मैच देखने के कारण उन्हें अपने पसंदीदा धारावाहिकों को छोड़ना पड़ेगा, जबकि 33 फीसदी महिलाएं अपने पतियों के साथ क्रिकेट का आनंद उठाना पसंद करती थीं।



पूरे भारत के संदर्भ में देखें तो केवल एक तिहाई महिलाएं ही क्रिकेट टीवी पर देखना पसंद करती हैं। हर तीन में से दो महिलाएं इस बात से चिंतित दिखाई दीं कि वे अपने पसंदीदा धारावाहिक नहीं देख पायेंगी। सचिन के शहर मुंबई की पांच में से चार महिलाओं ने आईपीएल के दौरान अपने सीरियल न देख पाने की चिंता प्रकट की, जबकि दिल्ली और चेन्नई की तीन में से दो महिलाओं और कोलकाता की हर दो में से एक महिला अपने सीरियल न देख पाने के लिए चिंतित थी। इस सर्वे में एक और दिलचस्प नतीजा यह सामने आया कि 52 प्रतिशत पति-पत्नी सप्ताह में कम से कम एक बार टीवी पर अपनी पसंद के प्रोग्राम देखने को लेकर अवश्य लड़ते हैं। 27 फीसदी पति-पत्नी एक माह में कम से कम एक बार इस मुद्दे पर तर्क-वितर्क करते हैं। केवल 21 फीसदी पति-पत्नी ऐसे पाये गये, जो एक माह में एक बार भी इस मुद्दे पर नहीं झगड़ते। यानी आईपीएल शुरू होने से पहले ही इस बात की आशंकाएं थीं कि कम से कम घरेलू महिलाओं के लिए शाम आठ बजे से 11 बजे तक टीवी देखना संभव नहीं होगा, क्योंकि इस दौरान आईपीएल के मैच चल रहे होंगे।



12 मार्च से शुरू हुए आईपीएल मैचों ने घरेलू महिलाओं की दिनचर्या ही बदल दी है। पूर्वी दिल्ली में रहने वाली 35 वर्षीया दीपिका का कहना है, पहले मैं आठ बजे तक घर का सारा काम निपटा कर टीवी के सामने बैठ जाती थी, लेकिन अब मैं घर का काम ही दस बजे तक निबटाती हूं, क्योंकि मैं जानती हूं कि मैं टीवी नहीं देख सकती। यही नहीं, दीपिका आगे कहती हैं, पहले मैं ग्यारह बजे तक टीवी देख कर सोती थी और अब दस बजे तक ही सो जाती हूं।



इस पूरी तस्वीर का एक दूसरा पहलू भी है। आईपीएल के आयोजकों ने क्रिकेट मैचों में मनोरंजन का तत्व भी भरपूर मिला दिया है। चीयर लीडर्स, मैचों में प्रीति जिंटा, शिल्पा शेट्टी, कैटरीना कैफ, दीपिका पादुकोन और शाहरुख खान की उपस्थिति और मैचों के दौरान उनकी प्रतिक्रियाएं भी महिला दर्शकों को लुभाने का काम कर रही हैं और आईपीएल का पहला पखवाड़ा बीतने के बाद इस तरह की खबरें भी सामने आईं कि अब महिलाएं-खासकर कामकाजी महिलाएं भी टीवी पर क्रिकेट देखना पसंद करने लगी हैं। दिलचस्प तथ्य यह भी उभर कर आया है कि अब पत्नियां अपने पतियों पर इस बात का दबाव डालती हैं कि वे क्रिकेट मैच देखें। एमैप रेटिंग्स बताती हैं कि विभिन्न उम्र की महिलाओं का बड़ा दर्शक वर्ग आईपीएल देख रहा है। इसके अनुसार, जिन घरों में केबल और सेटेलाइट चैनल्स हैं, वहां घरेलू महिलाओं की रेटिंग 5.0 पायी गयी। 35-44, 45-54 और 55 साल से अधिक की महिलाओं की रेटिंग क्रमश: 4.9, 5.1 और 5.0 पायी गयी। इसमें भी वर्किंग एग्जीक्यूटिव महिलाओं की रेटिंग सबसे ज्यादा 5.3 थी, जबकि स्कूल और कॉलेज छात्रों की रेटिंग क्रमश: 3.2 और 4.4 थी।



एक और दिलचस्प बात यह सामने आई कि महिलाओं ने अपनी रुचियों के हिसाब से अपनी पसंद की टीमों को चुन लिया है। मिसाल के तौर पर यदि किसी को सचिन तेंदुलकर का खेल पसंद है तो वह सचिन की टीमों के साथ होने वाले मैचों को ही देखती है। इसी तरह दिल्ली की महिलाएं वीरेंद्र सहवाग और गौतम गंभीर की वजह से दिल्ली के मैच देखना पसंद करती हैं।



दिल्ली में रहने वाली युवा लड़कियों को युवराज सिंह पसंद हैं। 22 वर्षीया अपूर्वा कहती हैं, मुझे युवराज का खेल बहुत पसंद है, इसलिए मैं पंजाब इलेवन का कोई मैच नहीं छोड़ती। युवा लड़कियों का कहना है कि आईपीएल देखने से एक तनावरहित आनंद मिलता है। वास्तव में आईपीएल-3 के चलते युवा लड़कियों में भी क्रिकेट के प्रति दीवानगी बढ़ी है। टेलीविजन ऑडियंस मैजरमेंट (टीएएम) की रिपोर्ट्स के अनुसार, आईपीएल दर्शकों में इस बार 38 फीसदी महिलाएं शामिल हैं। इसका मतलब यह हुआ कि आईपीएल की 66.99 मिलियन महिला फैन हैं, जबकि पिछले साल 34 फीसदी महिला दर्शक आईपीएल देख रही थीं। यानी इस आईपीएल ने उस मिथ को तोड़ने का काम किया है, जिसके अनुसार महिलाएं क्रिकेट को नापसंद करती थीं।

लिव इन रिलेशनशिप ..मगर समाज को भाता नहीं सहजीवन


लिव इन रिलेशनशिप को लेकर एक बार फिर बहस शुरू हो गयी है, लेकिन ऐसे लोगों की संख्या अभी भी उंगलियों पर गिनी जा सकती है, जो बिना विवाह किये साथ रह रहे हैं या रहना चाहते हैं। जहां तक कानून का सवाल है तो कानून ने कभी भी इसे अपराध नहीं माना। क्या हैं लिव इन रिलेशनशिप के पेंच? सुधांशु गुप्त की रिपोर्ट



पिछले दिनों दक्षिण भारतीय अभिनेत्री खुशबू की ओर से दायर विशेष अनुमति याचिका पर सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी करते हुए कहा कि शादी किये बगैर एक महिला और पुरुष के एक साथ रहने को अपराध नहीं माना जा सकता। कोर्ट ने यह भी कहा कि लिविंग टुगेदर न तो अपराध है और न अपराध हो सकता है। गौरतलब है कि खुशबू ने पांच साल पहले एक इंटरव्यू में विवाह पूर्व रिश्तों का समर्थन किया था। इस बयान के बाद खुशबू पर 22 आपराधिक मामले दायर हो गये थे। ये तमाम मामले उन लोगों द्वारा दायर किये गये थे, जो खुशबू के बयान को नैतिकता के चश्मे से देख रहे थे, लेकिन कोर्ट की टिप्पणी ने लिव इन के पक्षधरों के चेहरे इस तरह खिला दिये हैं, मानो कोर्ट ने लिव इन रिलेशनशिप के पक्ष में कोई फैसला दे दिया हो।



इससे पूर्व सन् 2008 में महाराष्ट्र सरकार ने पहल करते हुए किसी पुरुष के साथ लंबे समय से रहने वाली महिला को वैध पत्नी का दर्जा देने का फैसला किया था। इसके लिए राज्य ने सीआरपीसी की धारा 125 में संशोधन किया था। तब भी लिव इन रिलेशनशिप को लेकर बहस छिड़ गयी थी। लेकिन यहां यह गौरतलब है कि यदि वयस्क महिला और पुरुष एक साथ रहने का फैसला करते हैं तो वह किसी भी भारतीय कानून के अनुसार अपराध नहीं है, बल्कि अनुच्छेद-21 के तहत हर इनसान को जीने की स्वतंत्रता का अधिकार है और लिविंग टुगेदर भी जीने का ही एक अधिकार है। यानी बिना विवाह किये साथ रहने को कानून कभी भी अपराध नहीं मानता और न ही हमारे देश में ऐसा कोई कानून है, जो इस तरह के रिश्तों पर रोक लगाता हो।



पौराणिक कथाओं में मौजूद लिव इन



भारतीय पौराणिक कथाओं में विवाह की जो तमाम पद्धतियां मौजूद हैं, उनमें से एक गंधर्व विवाह भी है। इसमें स्त्री और पुरुष ईश्वर के सामने एक दूसरे को पति-पत्नी स्वीकार कर लेते हैं। इस रिश्ते का इन दोनों के अलावा किसी और को पता नहीं होता। गंधर्व विवाह की इस पद्धति को उस समय भी जायज माना जाता था। कमोबेश इसी का आधुनिक रूप लिव इन रिलेशनशिप कहा जा सकता है। मध्यप्रदेश की कुछ जनजातियों में इसी तरह की प्रथा को घोटुल नाम से जाना जाता है।



क्या हैं दिक्कतें



अनीता (बदला हुआ नाम) 1984 से अपने दोस्त के साथ बिना विवाह किये साथ रहीं। 2002 में इन दोनों ने बाकायदा शादी कर ली। अनीता बताती हैं, बिना विवाह किये साथ रहने में सबसे ज्यादा समस्याएं माता-पिता ही पैदा करते हैं। उन्हें हमेशा यह लगता है कि उनके बच्चे (जो बड़े हो चुके हैं) कोई फैसला खुद नहीं ले सकते।



विवाह संस्था बनाम लिव इन



विवाह नामक संस्था की खामियों और नारी मुक्ति आंदोलनों ने ही युवाओं को बिना विवाह किये साथ रहने के लिए प्रेरित किया है। लिव इन के पक्षधर लोगों का तर्क है कि विवाह नामक संस्था अब पुरानी हो गयी है। इसमें इतने अधिक पाखंड घर करते जा रहे हैं कि इसका वर्तमान स्वरूप में बचे रहना संभव नहीं दिखता। खासतौर पर वैवाहिक रिश्ते में पुरुष को हर तरह के नाजायज रिश्ते बनाने की छूट होती है, जबकि महिलाएं विवाह को ही अपना सर्वस्व मानती हैं। लिहाजा लिव इन रिलेशनशिप दोनों को बराबर की आजादी देता है। हालांकि लिव इन में भी यदि महिला को यह पता चलता है कि पुरुष के किसी और स्त्री से संबंध बने हैं तो महिला को उतनी ही तकलीफ होती है, जितनी किसी पत्नी को हो सकती है। यानी लिव इन में भी वे तमाम आशंकाएं काम करती हैं, जो किसी वैवाहिक रिश्ते में करती हैं। यही वजह है कि आज भी समाज में ऐसे रिश्ते बहुत कम दिखाई पड़ते हैं।



परंपरागत ही है भारतीय समाज



भारतीय समाज तमाम प्रगतिशीलता के बावजूद आज भी परंपरावादी ही है। यही वजह है कि हम विवाह नामक संस्था में यकीन करते हैं। हमारे संस्कार और हमारे मूल्य हमें इस बात की इजाजत नहीं देते कि बिना विवाह किये कोई लड़का और लड़की साथ रहें। खासतौर पर छोटे शहरों और कस्बों में रहने वाला युवा तो आज भी लिव इन के बारे में सोच नहीं सकता।



वैचारिक बदलाव है लिव इन



क्या विवाह संस्था के विकल्प के रूप में उभर रहा है बिना विवाह किये साथ रहने का रिश्ता? अनीता कहती हैं, समाज अभी इसके लिए तैयार नहीं है। केवल उसी स्थिति में यह विवाह का विकल्प बन सकता है, जब करोड़ों युवा लिव इन में रहने लगें। अभी ऐसा नहीं है। अभी केवल उच्च वर्ग के गिने-चुने लोग या फिर ग्लैमर की दुनिया के लोग ही लिव इन के पक्षधर दिखाई पड़ते हैं, लेकिन लिव इन को वैचारिक बदलाव तो कहा ही जा सकता है।



पाप नहीं है लिव इन



यह सच है कि बिना विवाह किये स्त्री और पुरुष का एक साथ रहना कोई पाप नहीं है और ना ही कानून इसे पाप मानता है। यह दो लोगों बेहद निजी फैसला है, लेकिन इसके आधार पर विवाह नामक संस्था को अस्वीकार कर देना भी कहां तक उचित है?

बड़े परदे पर बॉलीवुड बालाओं की नयी दुनिया

लगभग दो दशक पहले की फिल्मों में अगर नायिकाओं की भूमिका को याद करें तो अधिकांश का काम नायकों के इर्दगिर्द घूम कर गाने गाना और विवाह के लिए उनका प्रेम पाना होता था, लेकिन बदलती दुनिया के हिसाब से बॉलीवुड की बालाएं भी बदल रही हैं। अब वे बड़े परदे पर महज शोपीस बन कर नहीं रहना चाहतीं। परदे पर उभर रही न्यू एज वुमन के बारे में सुधांशु गुप्त की रिपोर्ट।




बॉलीवुड में अगर पुरानी नायिकाओं को याद करने की कोशिश करें तो आपको तमाम बड़ी नायिकाएं दिखाई पड़ेंगी, लेकिन ये नायिकाएं या तो फिल्मों में नायक के पूरक की भूमिका में होंगी या फिर चुपचाप दुख-तकलीफ सहती होंगी यानी इनका अपना कोई वजूद बड़े परदे पर दिखाई नहीं पड़ता। नायकों को अपनी अदाओं से रिझाना, पेड़ों के इर्दगिर्द घूम कर उनके साथ गाने गाना, बड़े परदे पर यही नायिकाओं के काम समझे जाते थे, लेकिन अब वक्त बदल गया है। अब नायिकाएं भी रियल लाइफ की ही तरह बड़े परदे अपनी अलग पहचान बनाना चाहती हैं। वह चाहती हैं कि उनका काम महज जिस्म की नुमाइश करना ही न हो। वे न केवल प्रोफेशनली कुछ करती दिखाई पड़ें, बल्कि प्रेम के मामले में वे खुद इनिशिएट करें। हालांकि यह प्रक्रिया पिछले डेढ़ दो दशकों से शुरू हो चुकी है, लेकिन ऐसा लगता है कि दीपिका पादुकोन इस मामले में न्यू एज वुमन के रूप में उभर कर सामने आई हैं। हाल ही में रिलीज हुई फिल्म ‘कार्तिक कॉलिंग कार्तिक’ में दीपिका न केवल बेहद सुंदर लगी हैं, बल्कि उन्हें इस पर चर्चा करने में भी गुरेज नहीं है कि उनके कितने बॉयफ्रैंड हैं। एक सीन में वह फरहान अख्तर को किस करना सिखाती हैं। उनमें किसी तरह की कोई झिझक नहीं है। फिल्म के निर्देशक विजय लालवानी का कहना है कि दीपिका का चरित्र रियल लाइफ से लिया गया है और यह हमारे समाज में आए खुलेपन का प्रतीक है। वह आगे कहते हैं, आज की युवा लड़कियां अपनी सेक्सुएलिटी के प्रति पूरी तरह जागरूक हैं। यही दीपिका पादुकोन हैं, जिन्होंने ‘बचना ऐ हसीनों’ में एक टैक्सी ड्राइवर की भूमिका निभाई थी। वह रणबीर कपूर के प्रेम में पागल होकर अपने काम को नहीं छोड़ देतीं, बल्कि वह अपने प्रोफेशन को प्यार करती हैं। इसी तरह दीपिका ‘लव आजकल’ में आर्ट रेस्टोरेशन में अपना करियर बनाना चाहती हैं।

‘फैशन’ फिल्म में छोटे शहर से आई प्रियंका चोपड़ा मॉडलिंग को अपना करियर चुनती हैं। वह इस पेशे में आने वाली तमाम बाधाओं को पार करते हुए अपना मुकाम हासिल करती हैं। वास्तव में आज रियल लाइफ में तमाम ऐसी लड़कियां दिखाई देती हैं, शादी जिनका मकसद नहीं है। आज राजनीति, बिजनेस, कॉरपोरेट वर्ल्ड या किसी भी अन्य पेशे में ऐसी महिलाएं मिल जाएंगी, जो महत्वाकांक्षी हैं, करियर जिनकी प्राथमिकता है। आज की फिल्में इसी तरह के किरदारों को रिफ्लेक्ट कर रही हैं। वैसे भी मधुर भंडारकर की अधिकांश फिल्में महिलाओं को केंद्र में रख कर ही बनाई गयी हैं। पेज 3, कॉरपोरेट और बार डांसर इसी कड़ी की फिल्में थीं। इसी तरह विद्या बालन द्वारा ‘इश्किया’ में निभाई गयी भूमिका भी पुराने ट्रेडिशन को तोड़ती दिखाई पड़ती है। आज नयी अभिनेत्रियों को यह समझ में आ गया है कि अब वे बड़े परदे पर पुराने नियमों के हिसाब से नहीं चल सकतीं, इसलिए वे समाज में गढ़े जा रहे नये नियमों के तहत बड़े परदे पर भी अपने लिये नये नियम बना रही हैं।



जब पति करे पत्नी से बलात्कार!

पति द्वारा पत्नी के साथ जबरदस्ती सेक्स संबंध यानी मैरिटल रेप को लेकर काफी अरसे से बहस चल रही है। इसका ही परिणाम है कि भारत सरकार इस तरह के बलात्कार को भी अपराध की श्रेणी में लाने के लिए संसद में एक बिल पेश करने वाली है। आखिर स्त्रियों के पास पति को सेक्स संबंध के लिए ना कहने का अधिकार क्यों नहीं होना चाहिए।






शारीरिक और मनोवैज्ञानिक प्रभाव

यह एक ऐतिहासिक मिथ है कि मैरिटल रेप में महिलाओं को कम आघात पहुंचता है। इस क्षेत्र में हुए अनुसंधान इस मिथ को गलत साबित करते हैं। ये बताते हैं कि महिलाओं को मैरिटल रेप के परिणाम उम्र भर भुगतने पड़ते हैं। शारीरिक रूप से प्राइवेट पार्ट्स पर चोट आना, मसल्स फटना, उल्टी और थकान जैसी शिकायत हो सकती है। शॉर्ट टर्म असर के रूप में चिंता, सदमा, डिप्रेशन और सेक्स के प्रति डर के साथ-साथ उनके भीतर आत्महत्या की प्रवृत्ति भी पैदा हो सकती है।



भारत में स्थिति क्या है

सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले में कहा था, बलात्कार मूलभूत मानवाधिकार के खिलाफ है और यह संविधान की धारा 21 का उल्लंघन है, जिसके तहत इनसान को जीने का अधिकार मिलता है। लेकिन इसके बावजूद फिलवक्त तक हमारा कानून विवाहित महिलाओं के साथ पतियों द्वारा किये गये बलात्कार को अपराध से मुक्त मानता है। और इससे इस धारणा को बल मिलता है कि महिलाओं के पास अपने पति के साथ सेक्स संबंध से इनकार करने का कोई हक नहीं है और यह स्थिति पतियों को अपनी पत्नियों के साथ बलात्कार का लाइसेंस देती दिखाई पड़ती है। इस मामले में केवल दो तरह की महिलाएं कानून से सुरक्षा पा सकती हैं। एक वे, जिनकी उम्र पंद्रह साल से कम है और दूसरी वे, जो अपने पतियों से अलग रह रही हैं। सरकार इसी संदर्भ में एक बिल लाने पर विचार कर रही है।



बहस के मूल बिंदू

यह बहस लगातार जारी है कि मैरिटल रेप को अपराध की श्रेणी में लाया जाए या नहीं। इसे अपराध की श्रेणी में न लाने के पीछे जो तर्क दिये जा रहे हैं, वे कहते हैं-यह अनकॉमन होते हैं, इसलिए इन्हें कानूनी शक्ल नहीं दी जानी चाहिए। दूसरा तर्क है, इससे पहले से ही बोझ से दबी न्यायप्रणाली पर मुकदमों का बोझ और बढ़ेगा। एक तर्क यह भी है कि पतियों से असंतुष्ट और क्रोधित महिलाएं सीधे-सादे पतियों को फंसाने के लिए उन पर बलात्कार का आरोप लगा कर कभी भी उन्हें फंसा सकती हैं। और सबसे मजबूती के साथ यह तर्क दिया जाता है कि इससे विवाह और परिवार की अवाधारणा खतरे में पड़ सकती है। लेकिन यह तर्क कितने खोखले हैं, यह इस बात से समझा जा सकता है। पहली बात अगर यह बहुत अनकॉमन हैं तो अदालतों पर बोझ कैसे बढ़ेगा? दूसरी बात, अगर महिलाएं पतियों को फंसाने के लिए इसका इस्तेमाल करेंगी तो उसके लिए उनके पास दूसरे (दहेज, घरेलू हिंसा) जैसे तमाम कानून है, फिर वे इसका ही इस्तेमाल क्यों करेंगी? और तीसरा, विवाह और परिवार को बचाने के लिए महिलाएं ही आखिर कब तक सब कुछ सहती रहेंगी? दूसरी ओर इसे अपराध के दायरे में लाने वालों के पास ज्यादा पुख्ता तर्क हैं। हाल ही में एक गैर सरकारी संगठन द्वारा किये गये अध्ययन के नतीजे बताते हैं कि यह बहुत आम अपराध है, जिसे बहुत कम दर्ज किया जाता है। अध्ययन यह भी बताता है कि हर सात में एक महिला कभी न कभी पति द्वारा बलात्कार का शिकार होती है। एक तर्क यह भी दिया जाता है कि इस तरह के बलात्कार को अदालत में साबित करना बहुत मुश्किल होगा। सवाल यह है कि अगर किसी अपराध को साबित करना मुश्किल है तो क्या उसके लिए बने कानूनों को खत्म कर देना चाहिए?



कुछ सुझाव

प्रगतिशील सोच के लोगों द्वारा इस मामले में कुछ सुझाव आम राय से दिये जा रहे हैं। कुछ काबिले गौर हैं। संसद द्वारा मैरिटल रेप को एक अपराध के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए और इसके लिए वही सजा होनी चाहिए, जो भारतीय दंड संहिता की धारा 376 के तहत बलात्कारी को दी जाती है। इस तथ्य के बावजूद कि दोनों पार्टियां शादीशुदा हैं, सजा कम नहीं की जानी चाहिए। इस मामले में तलाक का विकल्प महिलाओं के पास होना चाहिए। आज अमेरिका, इंग्लैंड और न्यूजीलैंड जैसे कई देशों में मैरिटल रेप को अपराध माना जा चुका है, इसलिए 100वें अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के इस वर्ष में महिलाओं को बेडरूम में होने वाले बलात्कारों से मुक्ति मिलनी ही चाहिए।



निम्न मध्यवर्गीय, मध्यवर्गीय और उच्च विवाहित महिलाओं को अक्सर अपने पति द्वारा बलात्कार का शिकार होना पड़ता है। सिमोन द बोउवार ने एक जगह कहा है-स्त्री पैदा नहीं होती, बल्कि बनाई जाती है। भारतीय समाज में स्त्रियों को इसी रूप में ढाला गया कि वे पुरुष की अर्धागिनी हैं, सहनशीलता की मूर्ति हैं और उनके भीतर सब कुछ बर्दाश्त करने की ताकत है। वे अपने लिए नहीं जीतीं। पहले वे अपने पिता और भाइयों की इज्जत के लिए जीती हैं, फिर अपने पति की इज्जत के लिए और बाद में अपने बेटों की इज्जत के लिए। यानी उन्हें अपने लिए जीने का कोई हक नहीं होता! दूसरी तरफ पुरुष भी पैदा नहीं होता, बल्कि बनाया जाता है। उसे इस रूप में बनाया जाता है कि वह मर्दानगी और ताकत का पर्याय है, स्त्री उसकी संपत्ति है, वह उसे खुश करने के लिए पैदा हुई है, इसलिए वह पति द्वारा किये जा रहे बलात्कार को चुपचाप बर्दाश्त करती रहती है, महज इसलिए कि पति-पत्नी का ‘पवित्र रिश्ता’ टूट न जाए।



क्या है मैरिटल रेप

आम जुबान में कहें तो मैरिटल रेप का सीधा-सा अर्थ है, जब पति पत्नी की इच्छा के बिना उसके साथ शारीरिक संबंध बनाता है। 1970 में पहली बार मैरिटल रेप पर अमेरिका में चर्चा शुरू हुई तो आमतौर पर पति-पत्नी के बीच तीन प्रकार के बलात्कार पाये गये। पहला, बैटरिंग रेप्स। इसमें महिलाएं शारीरिक और यौन हिंसा की शिकार होती हैं। इसमें पति पत्नियों की इच्छा के खिलाफ सेक्स संबंध बनाने के लिए हिंसा का सहारा लेता है और उन्हें तरह-तरह से प्रताड़ित करता है। दूसरा, फोर्स टू रेप। इस तरह के बलात्कार में पति केवल उतनी ही ताकत का इस्तेमाल करता है, जिससे वह शारीरिक संबंध बना पाये। इसमें वह पत्नी का मारता-पीटता नहीं। और तीसरा है जुनूनी रेप। इसमें पति पत्नी को प्रताड़ना देने में खास तरह के सुख का अनुभव करता है।



यहां मैरिटल रेप है कानूनी

अफगानिस्तान में पिछले साल जब पूरी दुनिया 99वां महिला अंतरराष्ट्रीय वर्ष मनाने की तैयारियों में जुटी थी, उस समय अफगानिस्तान में महिलाओं के खिलाफ एक कानून पास करने की तैयारियां चल रही थीं। मार्च 2009 में अफगानिस्तान के राष्ट्रपति हामिद करजई ने जिस बिल पर हस्ताक्षर किये हैं, वह बिल मैरिटल रेप को कानूनी दर्जा देता है। यह कानून एक पुरुष को उस स्थिति में भी पत्नी से सहवास करने की इजाजत देता है, जब पत्नी सहवास के लिए मना कर रही हो। बिल की आलोचना करने वाले इस बात पर आश्चर्य कर रहे हैं कि राष्ट्रपति ने किस तरह इस बिल पर हस्ताक्षर कर दिये। दिलचस्प बात यह भी है कि संसद के निचले सदन के 249 सदस्यों में से 68 महिला सदस्य भी हैं और कई महिला सदस्यों ने भी इस बिल के पक्ष में मतदान किया है। इस बिल के खिलाफ मत देने वाली फौजिया कूफी का कहना है कि कुछ सदस्यों को इस बात का आभास भी नहीं था कि उन्होंने किस चीज के पक्ष में मत दिया है। अफगान संविधान का आर्टिकल 22 सभी पुरुषों और महिलाओं को समान अधिकार देने का वादा करता है और इसी आधार पर अफगानिस्तान की महिलाएं यह उम्मीद कर रही हैं कि सुप्रीम कोर्ट शायद यह रूलिंग दे कि नया कानून आर्टिकल 22 का उल्लंघन है।



आने वाला है नया विधेयक

भारत सरकार महिलाओं को पतियों की जबरदस्ती से बचाने के लिए जल्द ही एक विधेयक लाने जा रही है। प्रस्तावित कानून में सरकार ने वैवाहिक दुश्कृत्य यानी पति द्वारा पत्नी के साथ जबरदस्ती सेक्स संबंध को अलग से पेश करने की योजना बनाई है। अब तक इस तरह के मामले को घरेलू हिंसा कानून के तहत ही निपटा जाता रहा है। गौरतलब है कि महिला एवं बाल विकास मंत्रलय (डब्ल्यूसीडी) और राष्ट्रीय महिला आयोग (एनसीडब्ल्यू) की सिफारिशों के बाद कानून मंत्रलय ने प्रस्तावित कानून का एक ड्राफ्ट तैयार किया है। इसमें आईपीसी, सीआरपीसी 1973 और साक्ष्य कानून 1872 के कुछ खंडों में संशोधन कर उन्हें दुश्कृत्य की नयी परिभाषा के अनुसार बदला जा रहा है। इस प्रस्तावित बिल के बाद मैरिटल रेप को एक अपराध माना जाएगा और पत्नी की शिकायत के बाद पति को तीन साल की सजा तक हो दी जा सकेगी।



लाइसेंस टू रेप

1985 में अनुसंधानकर्ता डेविड फिन्केल्होर और यल्लो की न्यूयॉर्क, फ्री प्रेस से एक किताब प्रकाशित हुई-लाइसेंस टू रेप: सेक्सुअल अब्यूज ऑफ वाइव्स। इस किताब को लिखने से पहले उन्होंने 300 विवाहित महिलाओं को एक प्रश्नपत्र दिया। उन्होंने इन महिलाओं से पूछा था कि क्या आपके पतियों ने सेक्स संबंध बनाने के लिए आपसे कोई जोर- जबरदस्ती की। इनमें से दस फीसदी महिलाओं को जवाब ‘हां’ था। उनके द्वारा दिये गये प्रश्नपत्र में और भी कई सवाल थे। महिलाओं से पूरा डाटा एकत्रित करने के बाद इन दोनों लेखकों ने उम्र, शिक्षा, आय के आधार पर यह पुस्तक लिखी। इन दोनों लेखकों ने लगभग 50 ऐसी महिलाओं से इंटरव्यू भी किये, जो अपने पतियों के यौन उत्पीड़न का शिकार थीं। संभवत: मैरिटल रेप पर लिखी गयी यह पहली पुस्तक है, जिसने वैवाहिक रिश्तों के भीतर होने वाले बलात्कारों पर रोशनी डाली है। लेखक ने इस किताब में उन परिस्थितियों पर भी रोशनी डाली है, जिनमें बलात्कार होते हैं या हो सकते हैं। साभार: हिंदुस्तान

मॉडर्न होती मॉम

शहरों में रहने वाली आज की मांओं का स्वरूप परंपरागत नहीं रहा। घरेलू और कामकाजी दोनों ही तरह की महिलाएं खुद को बच्चों के अनुरूप ढाल रही हैं-वे मॉडर्न हो रही हैं और बच्चों के साथ उनकी दोस्त बन कर उनका विकास करना चाहती हैं। मॉडर्न होती आज की न्यू मॉम के वे कौन से सूत्र हैं, जो उन्हें अपने बच्चों के करीब ला सकते हैं और ला रहे हैं। बता रहे हैं सुधांशु गुप्त।




साउथ दिल्ली में रहने वाली नीता मिश्र का चार साल का बेटा है। नीता एक अखबार में नौकरी कर रही थीं। पिछले कुछ समय से वह यह महसूस कर रही थीं कि उनके बेटे को अपनी बात कहने में थोड़ी दिक्कत होती है। नीता ने कई बार सोचा कि उसे किसी डॉक्टर को दिखाया जाए। तभी उन्हें लंदन में हुए एक सर्वे की रिपोर्ट पढ़ने को मिली। इसमें कहा गया था कि हर छह में से एक बच्चों को बोलने में दिक्कत हो रही है। यह सर्वे उन बच्चों पर किया गया था, जिनकी मांएं नौकरीपेशा हैं और बच्चों को बहुत ज्यादा समय नहीं दे पातीं। इस सर्वे का नीता पर इतना गहरा असर हुआ कि उन्होंने तत्काल नौकरी छोड़ने का फैसला कर लिया और पूरा समय अपने बच्चों को देने लगीं। दिलचस्प रूप से यह एक नया ट्रैंड है, जो बताता है कि मांएं अपने बच्चों के लिए खुद को कितना बदल रही हैं। ऐसा नहीं है कि बच्चों की बेहतर परवरिश के लिए सभी महिलाएं नौकरियां छोड़ने की पक्षधर हैं, लेकिन नौकरीपेशा महिलाएं भी खुद को न्यू मॉम की अवधारणा में ढालने के लिए छह सूत्रीय फामरूले पर चलना पसंद करती हैं और चल रही हैं :



बच्चों के साथ होना



आप नौकरी कर रही हों या नहीं, लेकिन बच्चों के साथ समय बिताना आज बेहद जरूरी हो गया है। बावजूद इसके कि बच्चों के पास कंप्यूटर, इंटरनेट, टेलीविजन और वीडियो गेम्स जैसे तमाम विकल्प मौजूद हैं। शायद इनसे बच्चों को बचाने के लिए यह और भी जरूरी हो गया है कि मांएं बच्चों के साथ अच्छा समय बिताएं और यह बात वे समझ भी रही हैं। नीलम एक स्कूल में अध्यापिका हैं। वह सुबह सात बजे घर से निकलती हैं और दोपहर तीन बजे घर लौटती हैं, लेकिन इसके बाद वह खुद को घर के कामों में बिजी नहीं रखतीं, बल्कि अपने चार साल के बेटे के साथ पूरा समय बिताती हैं।



विशेषज्ञों का मानना है कि बच्चों के साथ समय बिताने का अर्थ यह नहीं है कि आप एक बंद कमरे में उनके साथ चुपचाप बैठे रहें या टीवी देखते रहें, बल्कि उनके साथ खेलना, उनकी एक्टिविटीज में शामिल होना, उनके साथ समय बिताना है। और निस्संदेह आज की न्यू मॉम इसी रास्ते पर चल रही हैं और चलना चाहती हैं। क्लिनिकल साइक्लोजिस्ट्स भी यह मानते हैं कि अपने बच्चों के लिए रोल मॉडल बनना चाहिए। बच्चों को अच्छे आदर्श, नैतिकता और अच्छा व्यवहार सिखाने का यही एकमात्र तरीका है।



शांत रहिए



अमूमन नौकरीपेशा मांएं अपने ऑफिस का तनाव घर तक ले आती हैं और इस तनाव का असर बच्चों पर भी पड़ता है। बच्चों के साथ बात-बात पर गुस्सा करना, असहनशील होना, ऐसी उम्मीद करना कि बच्चा हर वक्त आपकी हर बात मानेगा, महानगरों में आम बात हो चुकी है। इसकी वजह शायद यह भी है कि अभिभावक भी हर समय एक अनदीखते से तनाव में रहते हैं, लेकिन बच्चों का इस सबसे कोई लेना-देना नहीं होता और इस तनाव का उनके विकास पर गहरा असर हो रहा है। अच्छी बात यह है कि इस बात को आज की न्यू मॉम समझने लगी हैं। वह अपने आप से ही यह वादा करती हैं कि वे अपने बच्चों के साथ कूल व्यवहार करेंगी। बकौल नीलम कई बार स्कूल में बहुत टैंशन होती है, लेकिन मैं कोशिश करती हूं कि वह टैंशन घर पर प्रकट न हो।



हैल्दी फूड



महानगरों में जंक फूड ने बच्चों की ईटिंग हैबिट को काफी खराब किया है। कई बार शौक में और कई बार जरूरत के चलते मांएं भी बच्चों को जंक फूड खाने के लिए कह देती हैं, लेकिन इस तरह के फूड से पैदा होने वाली समस्याओं से आज की मॉडर्न मांएं अब अनजान नहीं रहीं, इसीलिए वे बच्चों को हैल्दी फूड के लिए प्रेरित कर रही हैं। वे बच्चों की पसंद का फूड घर पर ही बना कर देती हैं। इससे बच्चों को भी यह अहसास होता है कि उनकी मां उनकी जरूरतों का ध्यान रख रही हैं और इस तरह मांएं बच्चों में हैल्दी फूड हैबिट्स डालने की सफल कोशिश कर रही हैं।



रीडिंग को फन बनाएं



नीता मिश्र अपने बेटे में रीडिंग हैबिट विकसित करने के लिए एक दिलचस्प प्रयोग करती हैं। वह नियमित रूप से अपने बेटे को कोई कहानी पढ़ कर सुनाना शुरू करती हैं। लेकिन जब कहानी दिलचस्प मोड़ पर पहुंचती हैं तो वे कहती हैं कि बाकी कहानी कल पढ़ेंगे। उनका बेटा कहानी सुनाने की जिद करता है तो वह कहती हैं कि चलो आगे की कहानी तुम पढ़ कर सुनाओ और आगे की कहानी बच्चा खुद पढ़ कर सुनाता है। इससे बच्चों में स्वाभाविक रूप से रीडिंग हैबिट विकसित हो रही है। साथ ही उनका अपनी मांओं के साथ एक भावनात्मक रिश्ता भी बन रहा है।



टीवी देखने का समय कम करें



आज के दौर में हालांकि यह बहुत मुश्किल काम है कि बच्चों को टीवी देखने से रोका जाए, लेकिन यदि बच्चों को दूसरे आउटडोर या इनडोर खेलों के लिए प्रेरित किया जाए तो टीवी देखने का समय अवश्य कम किया जा सकता है और अनेक महिलाएं न केवल बच्चों को दूसरे खेलों के लिए प्रेरित करती हैं, बल्कि उनके साथ कैरम, चैस और लूडो जैसे खेल खुद भी खेलती हैं। ऐसे समय में बच्चा खुद को आपका दोस्त महसूस करता है।



दोस्त बनती मांएं



मांओं के लिए यह जानना भी बहुत जरूरी है कि उनके बच्चों के कौन दोस्त हैं, वे आपस में किस तरह की बातें करते हैं, उनकी पसंद और नापसंद क्या है। और मांएं बाकायदा ऐसा कर रही हैं। वे अपने बच्चों के सभी दोस्तों के फोन नंबर खुद रखती हैं, उनसे समय-समय पर बातचीत करती रहती हैं, ताकि उन्हें यह पता चलता रहे कि उनके बच्चों के दोस्त क्या सोच और क्या कर रहे हैं। इससे बच्चों को भी यह लगता है कि उनकी माएं उनकी ही दोस्त हैं। दिलचस्प बात यह है कि वे यह सब कुछ बेहद सहज ढंग से कर रही हैं और करना चाहती हैं।



बॉलीवुड की सुपर मॉम



बॉलीवुड में अनेक ऐसी अभिनेत्रियां हैं, जिन्होंने अपने बच्चों की देखरेख के साथ अपने करियर को भी बराबर तवज्जो दी। काजोल ने अजय देवगन के साथ विवाह के बाद फिल्मों में काम करना बंद कर दिया था। बेटी न्यासा के जन्म के बाद तो वह पूरा समय उसे ही देती रहीं, लेकिन अब काजोल ने ‘माई नेम इज खान’ से दोबारा फिल्मों में वापसी की है। वह करियर और परिवार इन दोनों में संतुलन बनाए हुए हैं। यह स्थिति माधुरी दीक्षित की थी। वह डॉक्टर श्रीराम नेने से विवाह के बाद अमेरिका चली गयी थीं। चार साल बाद वह ‘देवदास’ में वापस लौटीं और इसके बाद उन्होंने ‘आजा नच ले’ की। मलाइका अरोड़ा, करिश्मा कपूर कुछ ऐसी ही मॉम हैं, जिन्हें सुपर मॉम की श्रेणी में रखा जा सकता है।

बहुत कुछ पाया है मगर बहुत कुछ बाकी है अभी

आगामी आठ मार्च को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस है। संयोग से यह सौवां मौका है, जब हम इस दिवस को सेलिब्रेट करेंगे। और यही मौका हो सकता है, जब हम देखें कि महिलाओं ने पिछले कुछ वर्षों में क्या प्रगति की है और उनकी प्रगति की रफ्तार कितनी है। हमने इस मौके पर विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं की तरक्की को पहचानने की कोशिश की है। सुधांशु गुप्त की रिपोर्ट।




आने वाले 8 मार्च को हमें अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाते हुए 100 साल पूरे हो जाएंगे। इस दिवस को मनाने का मकसद यही था कि पूरी दुनिया की महिलाओं को समाज में बराबरी का दर्जा मिले, उनकी मांगों पर गौर किया जाए और समाज में उनके लिए भी विकास के बराबर मौके हों। तो क्यों ना इस अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर हम यह सोचें कि महिलाओं ने कितनी प्रगति की है। जाहिर है 100 साल की प्रगति का आकलन करना आसान नहीं है, लेकिन हम पिछले 25 सालों में भारत में महिलाओं ने क्या प्रगति की है, इसकी एक तस्वीर तो बना ही सकते हैं।



राजनीति और सामाजिक जागरूकता



पच्चीस साल पहले के राजनीतिक माहौल को याद कीजिए। महिला नेताओं के रूप में आपको उंगली पर गिनी जाने वाली महिलाओं के ही नाम याद आते थे। बेशक इंदिरा गांधी सबसे लोकप्रिय नेता रहीं, लेकिन उनके निधन के बाद ऐसी कोई महिला दिखाई नहीं देती थी, जो देश का नेतृत्व कर सके। लेकिन इन गुजरे 25 सालों में महिला नेताओं की तादाद बड़ी संख्या में बढ़ी है। यह संयोग नहीं है कि आज देश की राष्ट्रपति (प्रतिभा पाटिल), लोकसभा की स्पीकर (मीरा कुमार), विपक्ष की नेता (सुषमा स्वराज), कांग्रेस की अध्यक्ष (सोनिया गांधी), बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष (मायावती) के अलावा कई महत्त्वपूर्ण पदों पर महिलाओं की उपस्थिति देखी जा सकती है। बेशक महिलाओं को अभी संसद में 33 फीसदी आरक्षण नहीं मिला है, लेकिन जितने पुरजोर तरीके से इसकी मांग की जा रही है, वह साबित करता है कि राजनीति में महिलाओं की हिस्सेदारी और अपने हक लेने की जागरूकता इन गुजरे वर्षों में काफी बढ़ी है। आज अनेक गैर-सरकारी संगठन महिलाओं के पक्ष में खड़े हैं, जो महिलाओं के साथ होने वाले किसी भी अन्याय के खिलाफ मुहिम-सी चला देते हैं। रुचिका गिरहोत्र मामले पर जिस तरह से महिला संगठनों और मीडिया ने दबाव बनाया, वह भी महिलाओं की बढ़ती जागरूकता का ही परिणाम है। हालांकि मंजिल अभी दूर है, लेकिन इस क्षेत्र में हुई प्रगति को आप अनदेखा नहीं कर सकते।



तकनीक ने दिया आत्मविश्वास



पच्चीस साल पहले के राजाधानी दिल्ली के परिदृश्य को याद करते हैं। जरा याद कीजिये, एक निम्न मध्यवर्गीय इलाके में कितने महिलाएं ऐसी थीं, जिनके घर वॉशिंग मशीन, गैस या कुकर हुआ करते थे? ऐसी महिलाओं की संख्या नगण्य थी। लेकिन अगर आप आज उसी इलाके को देखें तो पायेंगे कि कमोबेश हर घर में ये तीनों चीजें मौजूद हैं। ऐसा नहीं है कि यह बदलाव निम्न मध्यवर्गीय इलाकों में ही हुआ है। स्लम एरिया तक में आपको ऐसे घर मिलेंगे, जहां ये तीनों चीजें तो मौजूद हैं ही, महिलाएं और युवा लड़कियां तक बेसाख्ता मोबाइल का इस्तेमाल कर रही हैं। 80 के दशक में जब मोबाइल का आगाज हुआ तो किसी ने नहीं सोचा था कि यह मोबाइल महिलाओं की भी जिंदगी बदल देगा। आज फ्लैट्स में आने वाली शायद ही कोई मेड ऐसी होगी, जो बिना मोबाइल के आती हो। शहरों में ही नहीं, ग्रामीण इलाकों में भी मोबाइल का इस्तेमाल करने वाली महिलाएं लगातार बढ़ रही हैं। ट्राई के आंकड़े कहते हैं कि वर्ष 2012 तक ग्रामीण इलाकों में 20 करोड़ टेलीफोन कनेक्शंस हो जाएंगे और इनमें महिला प्रोवाइडर्स की संख्या तीस फीसदी होगी। दिलचस्प बात है कि आज 50 साल से ऊपर की ग्रामीण महिलाएं भी मोबाइल फोन्स का इस्तेमाल कर रही हैं। इसके अलावा पच्चीस साल पहले राजधानी में भी क्या आपको युवा लड़कियां स्कूटी, स्कूटर या कार चलाते दिखाई पड़ती थीं? लेकिन आज दिल्ली की सड़कों पर इनकी संख्या लगातार बढ़ रही है। जाहिर है नयी तकनीक ने महिलाओं को आगे बढ़ने के तमाम रास्ते मुहैया कराये हैं।



साक्षरता ने बढ़ाया आत्मविश्वास



सरकारी और गैरसरकारी संगठनों ने महिला साक्षरता को लगातार बढ़ावा दिया है। इसके लिए तमाम प्रचार अभियान चलाए गये। ऐसा नहीं है कि हमने अपने लक्ष्य प्राप्त कर लिये हैं, लेकिन इसमें भी कोई शक नहीं है कि पिछले लगभग तीन दशकों में हमने महिलाओं की साक्षरता दर में काफी इजाफा किया है। आंकड़े बताते हैं कि 1981 की जनगणना के अनुसार देश में महज 29. 76 फीसदी महिलाएं ही साक्षर थीं, जबकि वर्तमान में महिला साक्षरता दर लगभग 56 फीसदी है। जाहिर है महिलाओं को भी अब यह बात समझ में आ रही है कि शिक्षा उनके लिए कितनी अहमियत रखती है और इसके बिना वे जीवन में कुछ नहीं कर सकती। मां-बाप भी अपनी बेटियों को शिक्षित कराने के लिए आगे आ रहे हैं और यह ट्रैंड शहरों में ही नहीं, बल्कि गांवों, कस्बों और छोटे शहरों में भी साफ देखा जा रहा है।



वर्किंग होने की इच्छा



इस बात से शायद ही कोई इंकार करेगा कि महिलाओं के भीतर पिछले पच्चीस सालों में आर्थिक रूप से स्वतंत्र होने यानी कामकाजी होने की प्रबल इच्छा पैदा हुई है। इसी का परिणाम है कि कम से कम शहरों में तो वर्किग होना आज महिलाओं की प्राथमिकता में है। और आंकड़े भी लगातार इस बात का दावा करते हैं कि कामकाजी महिलाओं का प्रतिशत लगातार बढ़ रहा है। दिलचस्प रूप से अगर हम छोटे शहरों और कस्बों की लड़कियों को देखें तो साफ पता चलता है कि ये लड़कियां पढ़ाई करके, छोटा-मोटा काम सीख कर नौकरी करना चाहती हैं। पिछले ढाई दशकों में महिलाओं के लिए बीपीओ, फ्रंट लाइन ऑफिस, रेडियो जॉकी, सिंगिंग, डांसिंग, बार टेंडर, चीयरलीडर्स जैसे कितने ही नये-नये करियर हैं, जिनके द्वार महिलाओं के लिए खुले हैं और महिलाएं इनमें अपना भविष्य तलाश रही हैं।



एन्टरटेनमेंट इंडस्ट्री में बढ़ता महिलाओं का रुतबा



गौर कीजिये ढाई दशक पहले आप बॉलीवुड की कितनी महिला निर्देशकों और निर्माताओं को जानती थीं? बहुत याद करने भी सई परांजपे जैसे एक दो नाम ही थे, लेकिन आज का परिदृश्य बिल्कुल बदल चुका है। आज बॉलीवुड में फराह खान, मीरा नायर, लीना यादव, गुरविंदर चड्ढा, हेमा मालिनी, जूही चावला, एकता कपूर, मेघना गुलजार जैसी कितनी ही महिलाएं हैं, जो निर्देशक और निर्माता के रूप में बेहतरीन काम कर रही हैं। मजेदार बात है कि लगातार युवा महिला निर्देशकों की संख्या बढ़ रही है। यह नहीं, शादी करने के बाद तमाम ऐसी अभिनेत्रियां हैं, जो अपने पति के साथ फिल्म निर्माण के काम में जुटी हैं। काजोल, ऐश्वर्या राय बच्चन, शिल्पा शेट्टी आज बॉलीवुड में अपनी सक्रिय उपस्थिति दर्ज करा रही हैं। यह सब समाज की सोच में आये बदलाव का ही नतीजा है और यह बदलाव ही साबित करता है कि पिछले पच्चीस सालों में हमने खासी प्रगति की है। लेकिन इस प्रगति पर मुग्ध होने की बजाय हमें उन दूसरे मुद्दों पर काम करना बाकी है, जो महिलाओं की प्रगति में बाधा बने हुए हैं। मिसाल के तौर पर कन्या भ्रूण हत्या, दहेज हत्या, सामाजिक भेदभाव आदि। साथ ही हमें महिला आरक्षण के लिए दबाव भी बढ़ाना होगा, ताकि महिलाओं को देश की संसद में उचित प्रतिनिधित्व मिल सके।



कैसे जानें कि आपने प्रगति की है?



आगामी आठ मार्च को अंतरराष्ट्रीय महिला वर्ष के 100 वर्ष पूरे हो रहे हैं। जाहिर है इन 100 वर्षों में महिलाओं ने अपने लिए नये रास्ते तलाशे हैं और प्रगति के कई सोपान तय किये हैं। सरकारी आंकड़े भी हमेशा यही कहते हैं कि पिछले कुछ वर्षों में महिलाओं ने कमोबेश हर क्षेत्र में प्रगति की है, लेकिन आम और मध्यवर्गीय महिलाएं सरकारी आंकड़ों पर अक्सर यकीन नहीं कर पातीं। तो क्या कोई ऐसा तरीका हो सकता है, जिससे महिलाएं खुद ही यह जान सकें कि उन्होंने कितनी प्रगति की है? जाहिर है 100 सालों की प्रगति की तस्वीर बनाना आसान नहीं है, लेकिन पिछले 25 वर्षों में आपने कितनी तरक्की की, यह जानने के लिए हम आपको एक कारगर तरीका बता रहे हैं। नीचे कुछ सवाल दिये गये हैं, इन सवालों का जवाब आपको हां या ना में देना है, लेकिन जवाब देने से पहले आपको पच्चीस साल पहले की स्थिति को याद रखना है। जाहिर है अपनी प्रगति को आंकने के लिए आपकी उम्र 35-40 के बीच होनी चाहिए।



1.क्या आपके पास कुकर है?

2.क्या आपके पास वॉशिंग मशीन है?

3.क्या आपके पास गैस है?

4.क्या आप मोबाइल का इस्तेमाल करती हैं?

5.क्या आपके पास स्कूटी/कार है?

6.क्या आपका अपना बैंक अकाउंट है, जिसे आप संचालित करती हों?

7.क्या आपके पास कंप्यूटर है?

8.क्या आपने अपने नाम से कोई प्रॉपर्टी खरीदी है?

9.क्या आप अपनी बेटियों का करियर बनाना चाहती हैं?

10.क्या आप बाहर निकलते समय सुरक्षित महसूस करती हैं?

11.क्या आप अपने परिवार में होने वाली डिलीवरी अस्पताल में ही होते देखती हैं?

12.क्या आप अपनी सुंदरता और स्वास्थ्य के प्रति पहले से ज्यादा जागरूक महसूस करती हैं?

13.क्या आप शॉपिंग के लिए मॉल्स जाती हैं?

14.क्या आप एन्टरटेनमेंट पर कुछ खर्च करती हैं?

15.क्या जिम जाती हैं?

16.क्या आपकी ड्रेसेज में कुछ बदलाव आया है?

17.क्या आप मॉर्निग वॉक पर जाती हैं?

18.क्या बाहर की दुनिया में आपके आत्मविश्वास में इजाफा हुआ है?

19.क्या अपने पति के बिजनेस में कोई भूमिका निभाती हैं?

20.क्या आप हवाई जहाज पर यात्रा करती हैं?

इन सवालों के जवाब देने के बाद आप देखिये कि आपने कितने सवालों के जवाब हां में दिये। हां में दिये गये हर सवाल के लिए आपको पांच अंक मिलेंगे। यानी यदि आपके दस सवालों का जवाब हां में है, तो आपके कुल अंक हुए 50 यानी आपने पचास फीसदी प्रगति की। और यदि आपके सभी 20 सवालों का जवाब हां है तब आप यकीनन कह सकती हैं कि आपने 100 फीसदी प्रगति की है।

कंप्यूटर बदल रहा है हमारे सपने, हमारी सोच .




सुधांशु गुप्त .

मुंबई में एक छोटा-सा गांव है कल्याण। लगभग एक दशक पहले तक इस गांव में एक भी टेलीफोन नहीं था। साथ ही केवल एक ही सेकेंडरी स्कूल था। सन् 2001 में एक गैर सरकारी संगठन की मदद से इस स्कूल को एक कंप्यूटर गिफ्ट के रूप में मिला।



इस स्कूल के छात्रों ने इससे पहले कभी कंप्यूटर का नाम तक नहीं सुना था। जब स्कूल की ही एक लड़की श्रद्धा डिंबले को की बोर्ड का इस्तेमाल करते हुए अपना नाम लिखने के लिए कहा गया तो लड़की को पसीना आ गया। वह बुरी तरह नर्वस हो गयी।



लेकिन स्कूल में कंप्यूटर की एंट्री के कुछ ही महीने बाद एक अमेरिकन न्यूज चैनल की टीम उस गांव में पहुंची। उन लोगों को यह देख कर बेहद आश्चर्य हुआ कि श्रद्धा बेहद सहजता से कंप्यूटर को ऑपरेट कर रही है। उन लोगों को तब और भी आश्चर्य हुआ, जब श्रद्धा ने उन्हें बताया कि उसने कम्प्यूटर पहली बार कुछ माह पहले ही देखा था।



इस कंप्यूटर ने दिलचस्प रूप से श्रद्धा के सपने भी बदल दिये। श्रद्धा ने इस अमेरिकन टीम को बताया कि वह कंप्यूटर टीचर बनना चाहती हैं।



यह श्रद्धा और महाराष्ट्र के गांव कल्याण की ही कहानी नहीं है। भारत में कम्प्यूटर क्रांति ने सचमुच दूरदराज के गांवों का चेहरा और वहां रहने वाले लोगों के सपनों तक को बदल दिया है। आज गांवों के किसानों से लेकर देहात के स्कूलों तक में बच्चों कंप्यूटर का इस्तेमाल कर रहे हैं। यह अकारण नहीं है कि आज भारत में करोड़ों लोग कम्प्यूटर का इस्तेमाल कर रहे हैं।



मजेदार बात यह है कि भारत जैसे कृषि प्रधान देश में, कई इलाकों में बिजली की दिक्कत को देखते हुए ग्रामीण लोग कम्प्यूटर चलाने के लिए कार और ट्रकों की बैटरी तक इस्तेमाल कर रहे हैं। गांवों के विकास और उन्हें कंप्यूटर एजुकेशन देने के लिए अनेक सरकारी और गैर सरकारी संगठन सक्रिय हैं। कंप्यूटर ने शहरों के युवाओं को जहां उड़ने के लिए आकाश दिया है, वहीं ग्रामीणों में एक नये आत्मविश्वास का संचार किया है।



ग्रामीण क्षेत्रों में लोग कंप्यूटर पर खेती की नयी तकनीकों, नये किस्म के बीजों और फसलों की सुरक्षा संबंधी फिल्में देखते हैं। इन्हीं क्षेत्रों के बच्चों ज्योमेट्री का होमवर्क कम्प्यूटर पर करना पसंद करते हैं और साथ गानों तथा फिल्मों के लिए भी कंप्यूटर स्क्रीन का ही प्रयोग उन्हें भा रहा है। यही नहीं, कंप्यूटर ने ग्रामीण और शहरी दोनों ही सेक्टर्स में रोजगार की भी अपार संभावनाएं पैदा की हैं। ग्रामीण क्षेत्रों से निकलने वाले कम्प्यूटर टीचर अपने ही गांवों में कंप्यूटर एजुकेशन के लिए काम कर रहे हैं।



हालांकि इंटरनेट यूजर्स की संख्या भारत में अभी कम है। भारत में महज आठ करोड़ लोग ही इंटरनेट का इस्तेमाल कर रहे हैं। ये लोग इंटरनेट पर ईमेल्स, सोशल नेटवर्किग, ऑनलाइन बैंकिंग, स्टॉक ट्रेडिंग, मेट्रीमोनियल साइट्स, नौकरियों से जुड़ी वेबसाइट्स और म्यूजिक व फिल्मों का लाभ उठा रहे हैं।



बेशक इस बात का कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं है कि गांवों में इंटरनेट यूजर्स कितने हैं, लेकिन जाहिर है गांवों में भी इंटरनेट यूजर्स काफी हैं। तमाम छोटे शहरों और कस्बों तक में फैले साइबर कैफे गवाह हैं कि आज कंप्यूटर और इंटरनेट इन लोगों के लिए भी एक जरूरत बनता जा रहा है। ये लोग दूर- दराज में कमाई करने गये अपने परिवारों के सदस्यों से नेट पर ही बातचीत करते हैं और ये नेट ही है, जो विदेशों में रह रहे इनके परिजनों से इन्हें जोड़े रखता है।



ऐसा भी नहीं है कि ये लोग इंटरनेट का इस्तेमाल केवल पारिवारिक जरूरतों के लिए ही करते हैं, शहरी लोगों की तरह ही ये भी सोशल साइट्स का इस्तेमाल करने लगे हैं। और सबसे ज्यादा दिलचस्प तो यह है कि ई कंसल्टेंसी की भी मदद ले रहे हैं। ऐसे कई उदाहरण हैं, जिनमें किसानों ने ई कंसल्टेंसी की मदद से अपनी फसलों को खराब होने से बचाया।



इसी तरह बहुत से कारीगर अपने माल को बेचने के लिए सीधे ग्राहक तक भी नेट के जरिये ही पहुंच रहे हैं। और बेहद परंपरागत सोच वालों को भी यह बात समझ में आ रही है कि कंप्यूटर और नेट आपको पूरी दुनिया से जोड़ता है और आपको सीधे ग्राहकों तक पहुंचाने में भी बड़ा मददगार साबित हो सकता है। यही वजह है कि कंप्यूटर आज लोगों की जीवनशैली बदल रहा है, गांवों की तस्वीर बदल रहा है और बदल रहा है इन्सान की पुरातन सोच।

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लोकतंत्र पर चोट

काले धन पर सरकार की मुखालफत करने वाले योग गुरु बाबा रामदेव पर एक कार्यक्रम के दौरान एक व्यक्ति ने स्याही फेंककर हमला किया, तो देश की राजनीति में एक बार फिर उबाल आ गया और कांग्रेस तथा भाजपा एक-दूसरे पर दोषारोपण करने लगी। हिंसक तरीके से विरोध या आलोचना करना क्या उचित है? क्या लोकतंत्र का अर्थ यही होता जा रहा है? समाज के लगभग हर वर्ग की प्रतिक्रिया क्या है? बता रहे हैं सुनील वर्मा, संदीप ठाकुर और सुधांशु गुप्त...




सरकार का विरोध करने वालों से अभद्र व्यवहार क्यों?



-राजीव प्रताप रूड़ी (भाजपा प्रवक्ता)



ऐसी घटनाएं बार-बार हो रही हैं, पहले टीम अन्ना के सदस्य प्रशांत भूषण के साथ मारपीट की गई। बाद में यूपीए सरकार के सहयोगी और केंद्रीय मंत्री शरद पवार के साथ दुर्व्यवहार किया गया। इन सभी लोगों का कहीं-न-कहीं किसी-न-किसी मुद्दे पर सरकार और कांग्रेस के साथ विरोध था और इन सभी के साथ अभद्रता हुई। इसलिए हमें आशंका हैै कि बाबा रामदेव के साथ जो घटना हुई, उसके पीछे यूपीए और कांग्रेस भी हो सकती है। क्योंकि कांग्रेस बाबा रामदेव के साथ विद्वेष के साथ व्यवहार कर रही है।



लोकतंत्र में हमले का हक नहीं



-अरुण जेटली (राज्य सभा में भाजपा के नेता)



इस तरह की हरकत के लिए लोकतंत्र में कोई जगह नहीं है। लोकतंत्र में आलोचना करने का तो सभी को हक है, लेकिन इस तरह का हमला नहीं होना चाहिए। बाबा पर हमला करने वाले के खिलाफ सख्त कार्रवाई होनी चाहिए। ऐसा लगता है कि लोगों में विरोध करने की इस बढ़ रही प्रवृत्ति को कुछ राजनीतिक दलों से जुडेÞ लोग बढ़ावा दे रहे हैं।



सुर्खियों में आने के हथकंडे



-लालू प्रसाद यादव (राजद अध्यक्ष)



नेताओं से जूतम-पैजार करना, जूता-चप्पल चलाना, मारपीट करना, कालिख पोतना जैसे कृत्य कुछ लोगों के लिए प्रचार पाने का हथियार बन गए हैं। सुर्खियों में आने के लिए लोग जिस तरह डेमोक्रेसी की हत्या कर रहे हैं, वह ठीक नहीं है। किसी भी पार्टी के नेता या संस्था से विरोध जताने का सबको अधिकार है, लेकिन इस तरह नहीं।



बाबा रामदेव जैसा बोलेंगे, वैसा पाएंगे



-दिग्विजय सिंह (कांग्रेस के महासचिव)



बाबा रामदेव जैसा बोलेंगे, वैसा ही पाएंगे। वे योग छोड़ कर राजनीति कर रहे हैं। उनका असली चेहरा देश रामलीला मैदान में देख चुका है, जब वे समर्थकों को असहाय छोड़ औरतों की ड्रेस में वहां से खिसक लिए थे। वैसे भी चुनाव यूपी में हो रहे हैं, उन्हें दिल्ली जाकर प्रेस कांफ्रेंस करने की क्या जरूरत थी? इसी से उनकी मंशा का पता चलता है। जिस व्यक्ति ने उन पर स्याही फेंकी है, मुझे संदेह है कि उसका एनजीओ भाजपा पोषित है। दोनों की जांच होनी चाहिए।



विरोध का तरीका गलत



-राशिद अल्वी (कांग्रेस प्रवक्ता)



प्रजातंत्र में ऐसा नहीं होना चाहिए। यदि सबको अपनी बात-विचार रखने की स्वतंत्रता है, तो विरोध का भी अधिकार है। बाबा रामदेव के संवाददाता सम्मेलन में युवक ने विरोध किया, लेकिन उसके विरोध का तरीका गलत था।



विरोध भी सहना पड़ेगा



-मनीष तिवारी (कांग्रेस प्रवक्ता)



घटना दुर्भाग्यपूर्ण है। परंतु हर किसी को किसी भी राजनीतिक व्यक्ति व दल का विरोध करने का अधिकार है। बाबा यदि राजनीति करने के लिए हैं, तो उन्हें विरोधों का सामना तो करना ही पड़ेगा। जहां तक देश में काला धन वापस लाए जाने की बात है, तो इसे लेकर बाबा से अधिक कांग्रेस सरकार चिंतित है। सिर्फ शोर मचाने से काला धन तो वापस आ नहीं जाएगा। वैसे भी अभी चुनावी माहौल है। हर किसी को नाप-तोल कर बोलना चाहिए।



तिल का ताड़ न बनाए मीडिया



-राजीव शुक्ला (कांग्रेसी सांसद)



विरोध तो लोकतंत्र का हिस्सा है। लेकिन उस युवक ने विरोध जताने के लिए बाबा रामदेव पर स्याही क्यों फेंकी, यह जांच का विषय है। हो सकता है, उस युवक का कोई इस्तेमाल कर रहा हो या युवक प्रचार पाना चाहता हो। अधिकांश छोटी-मोटी घटनाओं को तो मीडिया ही मुद्दा बना देता है।



गुस्से का इजहार



आज जो भी हुआ, उसके पीछे कोई ठोस कारण दिखाई नहीं देता। हालांकि लोग अपनी बात कहना चाहते हैं, तो उसके लिए और कोई जरिया भी अपनाया जा सकता है। हां, ऐसे कामों पर रोक लगाना तो मुश्किल है, लेकिन यह भी सच है कि इस तरह की घटनाएं आम लोगों के गुस्से का रिएक्शन हैं। इन सबके पीछे पॉलिटिकल कारण भी जिम्मेदार हैं और यदि लगातार ऐसी घटनाएं हो रही हैं, तो उन कारणों को जानने की कोशिश करनी चाहिए। यदि बाबा रामदेव पर स्याही फेंकी गई है, तो उस व्यक्ति को पिटवाने के बजाय उससे कारण पूछना चाहिए था कि उसने ऐसा क्यों किया। वैसे भी आपको कानून अपने हाथ में लेने का कोई हक नहीं है।



--अरविंद गौड़, अन्ना के साथी और रंगकर्मी



लोकतंत्र का मजाक



मैं ऐसी चीजों को बिल्कुल सपोर्ट नहीं करूंगी। चूंकी आम आदमी में गुस्सा है और उसकी बात सुनने वाला कोई नहीं है। इसीलिए आम आदमी ऐसा कर रहा है और करता है। हालांकि लोग फेमस होने के लिए भी इस तरह की हरकतें करने लगे हैं। वैसे भी आम आदमी में इतनी हिम्मत नहंीं कि वह ऐसे काम करे। एक आशंका यह भी हो सकती है कि इस तरह के काम विपक्षी पार्टी के लोग करवाते हैं। मुझे लगता है कि इससे हमारा लोकतंत्र एक नई ही दिशा में बढ़ रहा है।



--बेला नेगी, निर्देशक



कारण जानना जरूरी



हाल ही में बिग बॉस जीत कर लोकप्रियता पाने वाली टीवी अभिनेत्री जूही परमार बहुत डिप्लोमेटिक होकर इस घटना पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करती हैं। वह कहती हैं, पहली बात तो कोई भी कमेंट करने से पहले चीजों के बारे में पूरी जानकारी होनी चाहिए, लेकिन फिर भी यदि लगातार ऐसी हरकतें हो रही हैं, तो यह जानना जरूरी है कि इसके पीछे कारण क्या है। किसी ने ये काम किया है, तो क्यों किया है। किसी भी घटना के पीछे के कारण को जानकर ही आगे की कोई कार्रवाई करनी चाहिए और आगे ऐसा ना हो, इसके लिए कारगार कदम उठाने चाहिए। आंख बंद करके स्याही फेंकने वाले को दोषी नहीं ठहराया जाना चाहिए। -- जूही परमार, अभिनेत्री



शर्मनाक हरकत



यदि समाज में ऐसी कोई भी घटना होती है, तो ये अशोभनीय है। लोकतंत्र का मजाक उड़ाने वाली बात है। आपको स्वतंत्रता मिली है, तो उसके साथ खिलवाड़ ना करें। जूता और स्याही फेंकने, जैसी ओछी हरकतें वाकई निंदनीय हैं। ऐसी आचार-संहिता बनानी चाहिए, जिसमें ऐसे काम करने वालों को दंड का प्रावधान दिया जाए। यदि ऐसी कोई आचार संहिता है, तो उसे और सख्त कर देना चाहिए। पुतला जलाना, लोगों पर कीचड़ फेंकने के बजाय आप कैंडिल मार्च निकालें, काली पट्टी बांधें ये भारतीय संस्कृति के खिलाफ नहीं होगा और न ही असभ्य और अशोभनीय होगा। ऐसी घिनौनी हरकतें वाकई शर्मनाक हैं। ऐसी हरकतें भारतीय लोकतंत्र को शर्मिंदा ही करेंगी।



--हरीश नवल, व्यंग्यकार-कहानीकार

हाथी तो ‘साहब’ बन गया!

सुधांशु गुप्त



चुनाव आयोग ने जब से उत्तर प्रदेश में बसपा के चुनाव चिह्न ‘हाथी’ को पर्दे में रखने की बात कही, तब से लगभग सभी चुुनाव चिह्न परेशान से हैं। वे सभी हाथी के प्रति सहानुभूति प्रकट करना चाहते थे। वे इसे हाथी के अपमान के तौर पर ले रहे थे। लिहाजा, सभी चुनाव चिह्नों ने इसके लिए एक आपात बैठक बुलाई। बैठक में हाथ, कमल, साइकिल, लालटेन, हंसिया-हथौड़ा, हैंडपंप जैसे काफी चुनाव चिह्न शामिल हुए। हाथी को सभापति बनाया गया। ऐसे करने के पीछे सभी चुनाव चिह्नों की मंशा थी कि उसके दर्द को कुछ कम किया जाए। हाथी खुद पर पॉलिथिन डालकर आया।



साइकिल ने बैठक की घोषणा करते हुए कहा, जिस तरह आचार संहिता का बहाना बनाकर हाथी कोे ढकने के लिए कहा गया है, उससे हम सब आहत महसूस कर रहे हैं। दुख की इस घड़ी में हम सब ‘हाथी’ के साथ हैं। हाथी को ढकना उसके अस्तित्व के साथ खिलवाड़ करना है। कमल के विचार थोड़े अलग थे। कमल ने कहा, आचार संहिता का पालन करना जरूरी है और ऐेसे में हाथियों को परिधान पहनाना मुझे गलत नहीं लगता। इस सबके बावजूद हाथी के अस्तित्व पर आए संकट में हम सब उसके साथ हैं। हाथ हमेशा की तरह ही देश और धर्मनिरपेक्षता के पक्ष में बोलता दिखाई दिया। हाथ ने कहा, ‘यूं तो यह सारा मामला चुनाव आयोग से जुड़ा है, इसलिए इस पर कोई टिप्पणी करना गलत होगा। हम सब ही इस आचार संहिता से बंधे हैं। इसलिए हमें इसका पालन करना ही होगा।



लालटेन के बोलने की बारी आई, तो उसने मजाकिया लहजे में कहा, ‘तुम सब लोग आज जो हुआ है, उसे देख रहे हो। हम तो इससे आगे की देखता हूं़.़.मान लीजिए कल को यहां के गांवों और दूर दराज के इलाकों में लोग रात ललटेनवा जलाकर अपने घर में रोशनी कर रहे हैं, तो इ का आचार संहिता का उल्लंघन होगा? चुनाव आयोग का सबको ललटेनवा पर कपड़ा डालने के लिए कहेगा? ऐसे में हम सबको हाथी के साथ खड़े होना चाहिए, और इसी वास्ते हम यहां इकट्ठे हुए हैं।’



हंसिया-हथौड़े ने मानवीयता की बातें करते हुए हाथी के साथ पूरी सिम्पैथी दिखाई। अंत में हाथी को बोलना था। हाथी ने कहा, ‘आप सबका शुक्रिया, जो आप सब लोग यहां आए। लेकिन सबसे पहले मैं यह कहना चाहता हूं कि मुझे अपने ढके जाने की बेहद खुशी है। यह चुनाव आयोग ही था, जिसने मुझ जैसे विशालकाय चुनाव चिह्न के बारे में सोचा। घोर सर्दी के इस मौसम में खुले में खड़े रहना भला किसे अच्छा लगता है? तो सबसे पहले मैं चुनाव आयोग का शुक्रगुजार हूं कि उसने मुझे कपड़े पहनने का मौका दिया। जहां तक इस बात का सवाल है कि इससे मेरे आकाओं को नुकसान होगा, तो यह भी एकदम गलत बात है। मेरा आकार इतना बड़ा है कि मुझे चाहे जिस तरह से भी ढका जाए, मैं दिखाई देता रहूंगा। मुझे ढकने से, अब मुझे ज्यादा आसानी से पहचाना जा सकता है। इसका फायदा मेरे आकाओं को ही होगा। लेकिन मेरी चिंता यह है कि चुनावों के बाद फिर से मुझे नंगा कर दिया जाएगा। वह स्थिति मेरे लिए ज्यादा खराब होगी। मैं आप लोगों से सिर्फ इतना ही कहना चाहता हूं कि हम चुनाव चिह्नों की स्थिति आम जनता की तरह है। जैसे ही चुनाव आते हैं, हमारी पूछ शुरू हो जाती है और चुनाव जीतने के बाद हमें उसी तरह हाशिए पर डाल दिया जाता है, जैसे राजनीतिक पार्टियां वोटरों को ‘खुड्डे लाइन’ कर देती हैं। इसलिए हमें अपनी एकता को बनाकर रखना चाहिए। हम सब पोस्टरों पर एक साथ चिपके दिखाई पड़ते हैं, हमारे ही नाम पर पार्टियां वोट प्राप्त करती हैं, हमारे ही नाम पर चुनाव हारे और जीते जाते हैं, लेकिन हमें क्या मिलता है? इसलिए मैं आप सबसे इतनी ही दरख्वास्त करूंगा कि हम सबको एक साथ रहना चाहिए और मुझे ढके जाने पर राजनीति नहीं करनी चाहिए। इसके साथ ही सभा खत्म हो गई और सारे चुनाव चिह्न वापस लौट गए। (लेखक वरिष्ठ कहानीकार हैं)

YE DOORIAN...

किसी शायर ने कहा है - इब्तदा-ए-इश्क का निराला है चलन, उसको फुर्सत ना मिली, जिसको सबक याद हुआ। लेकिन ये गुजरे जमाने की बातें हैं। 21वीं सदी के दूसरे दशक में एक ही मोहब्बत के लिए सब कुछ लुटा देना पुरानी परंपरा हो गई। नई परंपरा है कि मौका मिलते ही किसी दूसरे से इश्क कर डालो और पहले इश्क का परदा गिरा दो। यही वजह है कि हमारे समाज में ‘ब्रेकअप’ की नई अवधारणा उभरी है। हमारा यह कॉलम ब्रेकअप की कुछ रियल घटनाओं पर आधारित है, जिसमें हम उन सामाजिक, आर्थिक, निजी और तकनीकी कारणों को तलाश करने की कोशिश करेंगे, जो ब्रेकअप के सबब बनते हैं। किसी भी विवाद से बचने के लिए हम सिर्फ पात्रों के नाम बदल देंगे, लेकिन हमारा मकसद आपसी रिश्तों में पैदा होने वाली दरार को भरने की कोशिश करना होगा। प्रस्तुत है ‘ब्रेकअप’ की पहली किश्त...




मध्यमवर्गीय परिवार की पिंकी के घरवाले अक्सर उससे विवाह के लिए कहते, तो वह टाल जाती। उसे लगता कि बिना किसी से प्रेम किए वह विवाह कैसे कर सकती है! जिंदगी इसी तरह गुजर रही थी। एक दिन पिंकी को अपनी किसी फ्रेंड की बर्थडे पार्टी में जाना था। इसी पार्टी में उसने पाया कि एक जोड़ी आंखें लगातार उसका पीछा कर रही हैं। उसकी नजरों से नजरें बचा कर पिंकी ने भी उस नवयुवक को जीभर कर देखा, तो पिंकी को लगा कि यही वह शख्स हो सकता है, जो उसका हमसफर बने। इसी पार्टी में दोनों की पहली मुलाकात हुई, जो पिंकी के लिए पहले प्यार में बदल गई। लड़का दक्षिण दिल्ली में रहता था और एक आईटी कंपनी में इंजीनियर था। धीर गंभीर-सा दीखने वाला यह युवक बहुत कम बोलता था, लेकिन मुस्कुराहट उसके चेहरे पर हमेशा तैरती रहती थी। शायद उसकी यह मुस्कुराहट ही थी, जिस पर पिंकी फिदा हो गई थी...



सुधांशु गुप्त



यूर विहार में रहने वाली पिंकी वाडौला 24 वसंत पार कर चुकी थीं, लेकिन अभी तक उन्हें कोई ऐसा शख्स नहीं मिला था, जिसे देखते ही उनके दिल की घंटियां बजने लगें। हां, एक-दो क्रश जरूर हुए थे, लेकिन वह प्यार में तब्दील नहीं हो पाए थे। पिंकी एक निजी फर्म में एचआर डिपार्टमेंट में काम करती थीं। मस्ती करना और करियर में आगे बढ़ना, उनकी जिंदगी के अहम लक्ष्य थे और इन्हीं पर वह आगे बढ़ रही थी। मध्यमवर्गीय परिवार की पिंकी के घरवाले अक्सर उससे विवाह के लिए कहते, तो वह टाल जाती। उसे लगता कि बिना किसी से प्रेम किए वह विवाह कैसे कर सकती है। जिंदगी इसी तरह गुजर रही थी। एक दिन पिंकी को अपनी किसी फ्रेंड की बर्थडे पार्टी में जाना था। इसी पार्टी में उसने पाया कि एक जोड़ी आंखें लगातार उसका पीछा कर रही हैं। उसकी नजरों से नजरें बचा कर पिंकी ने भी उस नवयुवक को जीभर कर देखा, तो पिंकी को लगा कि यही वह शख्स हो सकता है, जो उसका हमसफर बने। इसी पार्टी में दोनों की पहली मुलाकात हुई, जो पिंकी के लिए पहले प्यार में बदल गई।



लड़का दक्षिण दिल्ली में रहता था और एक आईटी कंपनी में इंजीनियर था। धीर गंभीर-सा दिखने वाला यह युवक बहुत कम बोलता था, लेकिन मुस्कुराहट उसके चेहरे पर हमेशा तैरती रहती थी। शायद उसकी यह मुस्कुराहट ही थी, जिस पर पिंकी फिदा हो गई थी। युवक का नाम था-रोहित। प्यार ने अपने लिए स्पेस तलाश लिया था। पिंकी और रोहित रोज ही मिलने लगे। मोबाइल और फेसबुक ने दोनों को इतना करीब ला दिया कि लगभग हर समय वे एक-दूसरे के संपर्क में रहते। इंडिया गेट, पुराना किला और ना जाने कितने रेस्तरां और मॉल उनकी मोहब्बत के गवाह बन गए। दोनों पार्कों में घंटों एक-दूसरे की आंखों में झांकते हुए भविष्य के सपने तलाश करने लगे। वक्त बीतता रहा और उनकी मोहब्बत परवान चढ़ती गई। मोहब्बत की कशिश जब हदों को पार करने लगी, तो दोनों ने अपने परिवारों से भी मोहब्बत का इकरार कर लिया। दोनों परिवार पढ़े-लिखे थे और बच्चों की जरूरतों को भी समझते थे। लिहाजा दो साल की मोहब्बत के बाद दोनों वैवाहिक बंधन में बंध गए। पिंकी मयूर विहार से साउथ दिल्ली अपनी ससुराल आ गई। ससुराल में उसके सास-ससुर के अलावा एक जेठ और एक छोटी ननद थी। मोहब्बत की इस दूसरी सीढ़ी पर सब कुछ ठीक चल रहा था। ससुराल वाले पिंकी जैसी बहू पाकर खुश थे और रोहित एक अच्छी पत्नी पाकर खुद को धन्य मान रहा था।



लेकिन पिंकी और रोहित की मोहब्बत का एक इम्तिहान अभी बाकी था। एक दिन सूचना मिली कि रोहित का ट्रांसफर पुणे हो गया है। पिंकी को बहुत बुरा लगा। रोहित ने उसे समझाया कि रिश्तों में भौगोलिक दूरियों का कोई अर्थ नहीं होता। वह कोशिश करेगा कि जल्दी ही वापस दिल्ली आ जाए या उसकी नौकरी ही पुणे में कहीं लगवा दे। इस तरह रोहित पुणे चला गया। कुछ दिन तो पिंकी को बहुत अकेलापन महसूस हुआ, लेकिन जल्द ही उसने खुद को नए माहौल में ढाल लिया। इस बीच आॅफिस का ही एक व्यक्ति-दिनेश पिंकी को बाइक पर घर छोड़ने आने लगा। ससुराल वालों ने आपत्ति की, तो पिंकी को बुरा लग गया। उसने अपने सास-ससुर से साफ कह दिया कि उसने रोहित से शादी की थी। अब रोहित ही यहां नहीं है, तो उसका यहां रहने का कोई फायदा नहीं है। उसके बाद पिंकी अपने मायके लौट आई। दिनेश से उसकी करीबियां बढ़ने लगीं। रोहित को ये सारी जानकारियां पुणे में भी मिलती रहीं।



वह कुछ दिन की छुट्टी लेकर दिल्ली आया, तो उसने पिंकी को समझाने की कोशिश की, लेकिन पिंकी ने साफ कह दिया कि दिनेश उसका कुलीग है और यदि वह उसे कभी-कभार छोड़ने आ जाता है, तो इसमें बुराई क्या है? बात बढ़ती गई। पिंकी ने पति पर यहां तक आरोप लगा दिए कि उसकी भी तो पुणे में कोई-ना-कोई दोस्त बन ही गई होगी। कुछ दिन इसी तरह तनाव में गुजरे। रोहित वापस पुणे चला गया। पिंकी ने पुणे में अपनी एक दोस्त से रोहित के बारे में पता कराया, तो पता चला रोहित का भी वहां किसी लड़की से अफेयर चल रहा है। लगभग छह महीने की जद्दोजहद के बाद आखिर में रोहित और पिंकी दोनों ने ही एक-दूसरे से अलग होने का फैसला कर लिया। दोनों कोर्ट में तलाक के लिए मामला दायर कर दिया। एक समझदारी उन्होंने यह दिखाई कि दोनों ने एक-दूसरे पर घटिया किस्म के आरोप नहीं लगाए। दोनों सहमति से तलाक लेने के लिए राजी हो गए यानी मोहब्बत की एक कहानी, जिसने पूरी संजीदगी से आकार लिया था, असमय ही खत्म हो गई।



अब सवाल यह उठता है कि क्या रोहित के पुणे ट्रांसफर हो जाने ने दोनों के बीच दूरियां पैदा कर दीं? क्या रोहित और पिंकी दोनों ही औपचारिक रूप से विवाह बंधन में बधे थे? क्या दो साल का वह प्रेम, जो उन्होंने विवाह से पहले किया, वह महज तफरीह के लिए था? या समाज में प्रेमियों और प्रेमिकाओं की उपलब्धता ने उन्हें एक-दूसरे से दूर कर दिया? बहुत सारे सवाल हैं, जो पिंकी और रोहित की मोहब्बत का हिसाब मांगना चाहते हैं, लेकिन दिलचस्प बात यह है कि जब इस पूरी प्रेम कहानी और ब्रेकअप की छानबीन की गई, तो पाया गया कि रोहित का पहले से पुणे में किसी लड़की से अफेयर चल रहा था, क्योंकि उस लड़की से शादी नहीं हो सकती थी, इसलिए दिल्ली में उसने एक शादी के लिए प्रेम किया। घरवालों की खुशी के लिए जब यहां का प्रेम शादी में बदल गया, तो उसने अपना ट्रांसफर पुणे करवा लिया। उसे लगता था कि एक पत्नी दिल्ली में रहेगी और प्रेमिका पुणे में उसके पास, जीवन इसी तरह चलता रहेगा।



उधर, रोहित के जाने के बाद पिंकी को अकेलापन महसूस होने लगा था। आॅफिस का एक दोस्त उसकी तरफ आकर्षित हुआ, तो वह उसे रोक नहीं पाई। घर तक आसानी से पहुंच जाने का लालच उसे दिनेश के और करीब ले आया। दोनों ने अपने रिश्ते के टूटने की वजह भौगोलिक दूरियों को मान लिया, लेकिन अंदर से दोनों ही जानते थे कि उनकी यह मोहब्बत महज दिखावटी मोहब्बत थी या फिर समय इन दोनों को एक-दूसरे के करीब ले आया। हकीकत में यह कभी दिल से एक-दूसरे के नहीं हो पाए थे। ऐसे में यदि दोनों एक साथ भी रहते, तो भी एक ना एक दिन इनके बीच ब्रेकअप होना ही था।

क्या होता है जब ऊबने लगते हैं दो दिल

वक्त के साथ प्यार की परिभाषा भी बदलने लगी है। नए दौर की नई तहजीब ने इस बात को भी गलत साबित कर दिया है कि जिन रिश्तों की बुनियाद मजबूत होती है, वे ज्यादा समय तक जीवित रहते हैं। अब सवाल यह उठता है कि क्या नए दौर के प्रेमियों के लिए प्यार कोई वस्त्र है, जिसे पहनते-पहनते आप ऊब सकते हैं और फिर नए वस्त्र की तलाश में लग जाते हैं? या आज के दौर का युवा इतना वाचाल हो गया है कि पलक झपकते ही वह अपना पार्टनर बदलना चाहता है? इन्हीं सवालों का जवाब लेकर पेश है ब्रेकअप की दूसरी किश्त...




सुधांशु गुप्त



व्यक्ति अपना पहला प्यार कभी नहीं भूलता। पहला प्यार उम्र भर इंसान का पीछा करता है, लेकिन वक्त ने पहले प्यार की इस परिभाषा को भी बदल दिया है। अब इन्सान अपने अंतिम प्यार को ही याद रखता है और उसी के साथ जीना मरना चाहता है। नए दौर ने प्यार के लिए अनंत संभावनाएं पैदा कर दी हैं। यह कभी भी, कहीं भी और किसी भी उम्र में हो जाता है। और, हर नया प्यार पहले प्यार की यादों को धुंधला कर देता है। नए दौर की नई तहजीब ने इस बात को भी गलत साबित कर दिया है कि जिन रिश्तों की बुनियाद मजबूत होती है, वे ज्यादा समय तक जीवित रहते हैं।



अरण्या मयूर विहार में रहती हैं। समरविले पब्लिक स्कूल में उनकी स्कूली शिक्षा वर्ष 2005 में पूरी हुई। स्कूल में ही और तमाम दोस्तों के साथ अरण्या का एक दोस्त था-अंश। छठी क्लास से दोनों साथ थे। दोनों साथ स्कूल आते और साथ ही वापस जाते। दोनों एक-दूसरे को बड़ा होते देख रहे थे। प्यार क्या होता है, तब तक ये दोनों शायद नहीं जानते थे, लेकिन बालपन से ही दोनों एक-दूसरे की कमी महसूस करने लगे थे और दोनों में हर चीज को लेकर शेयरिंग होने लगी थी। जैसे-जैसे दोनों बड़े होते गए, एक-दूसरे को पसंद करने लगे। बारहवीं में अंश ने अपने दिल की बात अरण्या को बता दी। अरण्या अंश को बचपन से ही पसंद करती थी, लेकिन यही प्यार है, इसका अहसास उसे अंश के प्रपोज करने के बाद हुई। दोनों ने साथ ही बारहवीं पास की। स्कूल की बंदिशों से बाहर आते ही दोनों एक-दूसरे के और करीब आने लगे। अरण्या ने आईपी कॉलेज में एडमिशन लिया और अंश कॉरेस्पोंडेंस से ग्रेजुएशन करने लगा। अरण्या पढ़ाई-लिखाई में काफी होशियार थी, जबकि अंश का पढ़ने-लिखने में मन नहीं लगता था। फिर भी कॉलेज लाइफ दोनों के लिए प्रेम की पींगें बढ़ाने का मंच साबित हुआ।



दोनों साथ-साथ घूमते, रेस्तरा-मॉल जाते और जीवन और भविष्य को लेकर हजारों सपने देखते। कॉलेज के दिनों में ही दोनों ने प्यार के पहले चुंबन को भी महसूस किया था। प्यार उन्हें जितना ऊंचा उड़ा सकता था, उतना ऊंचा उड़ा रहा था। दोनों ने अपनी-अपनी ग्रेजुएशन भी पूरी कर ली। इसके बाद भी दोनोें के प्रेम में कोई कमी नहीं आई। ग्रेजुएशन के बाद अंश एक बीपीओ में नौकरी करने लगा और अरण्या डीयू से ही जर्मन भाषा का कोर्स करने लगी। अंश के नौकरी करने की वजह से दोनों की मुलाकातें जरूर कम हो गई थीं, लेकिन प्यार की कशिश अब भी बरकरार थी। दोनों के घरवाले भी इस रिश्ते के बारे में जानते थे। जब अरण्या के घरवाले शादी के लिए दबाव डालने लगे, तो उसने अंश से इस बारे में बात की। अंश ने कोई साफ जवाब नहीं दिया। उसने कहा, ‘मैं शादी के लिए अपने पैरेंट्स को मनाने की कोशिश करूंगा।’ इसका सीधा-सा अर्थ था कि अंश के माता-पिता इस शादी के लिए राजी नहीं थे। अरण्या को भी लगा कि चलो ठीक है, अंश के घरवाले भी देर-सवेर राजी हो ही जाएंगे। अरण्या अंश को अपना हमसफर मान ही चुकी थी, बस इस पर घरवालों की मुहर लगनी बाकी थी। दोनों के रिश्ते को लगभग नौ साल का समय हो चुका था, लेकिन दोनों की अंतरंगता बढ़ती ही जा रही थी। दोनों के बीच वह रिश्ता भी बन चुका था, जिसे सभ्य समाज शादी के बाद ही स्वीकार करता है।



अरण्या ने अचानक पाया कि अंश का व्यवहार कुछ बदल रहा है। अब वह मुलाकात के लिए पहले की तरह बेचैन दिखाई नहीं पड़ता। किसी-ना-किसी काम के बहाने वह मुलाकात को टाल देता है। अब तक अरण्या भी एक अच्छी नौकरी प्राप्त कर चुकी थी। उसकी योग्यता और सुंदरता में किसी तरह की कोई कमी नहीं थी। वह अंग्रेजी, हिंदी, कुमाऊंनी के अलावा जर्मन भाषा भी सीख चुकी थी। हैसियत के मामले में भी वह अंश से किसी तरह कम नहीं थी। एक दिन बहुत जिद करने पर जब अरण्या ने अंश को मिलने के लिए बुलाया, तो अंश अनमना-सा आ गया। दोनों एक रेस्तरां में बैठे। यहीं पहली बार अरण्या ने शराब का स्वाद चखा। अरण्या ने अंश से अपनी शादी के बारे में बात करते हुए कहा, अंश हमें लगता है कि अब हमें शादी कर लेनी चाहिए। अंश पहले, तो कुछ देर खामोश बैठा रहा फिर उसने कहा, अरण्या मेरे घरवाले इस शादी के लिए राजी नहीं हो रहे। मुझे समझ नहीं आ रहा मैं क्या करूं?



अरण्या के चेहरे पर पल भर में ही हजारों भाव आकर चले गए। फिर भी उसने सोचा कि हो सकता है, अंश सही कह रहा हो। उसने अंश को काफी समझाने की कोशिश की। अंत में खीझ कर अंश ने कहा, ‘अरण्या, मैं तुमसे बोर हो चुका हूं और अब मैं तुमसे मुक्त होना चाहता हूं।’ अरण्या को लगा मानो, उसके पैरों तले की जमीन किसी ने अचानक निकाल ली हो। फिर भी उसे अंश की बात पर यकीन नहीं हुआ। उसे ऐसा लगा मानो, अंश उसके प्यार की कोई परीक्षा ले रहा हो। अरण्या ने फिर कहा, ‘पर अंश मैं तुमसे प्यार करती हूं...नौ साल से हम एक-दूसरे के कितने करीब आ चुके हैं, यह तुम भी जानते हो? और, अब अचानक तुम कह रहे हो, तुम मुझसे बोर हो गए हो?’



बहुत तलाशने के बाद भी अरण्या को अंश की आंखों में वह प्यार कहीं दिखाई नहीं दिया, जिसे वे दोनों पिछले नौ सालों से पाल-पोस रहे थे। इस तरह दोनों के बीच ब्रेकअप हो गया। कुछ दिन तो अरण्या बहुत ज्यादा अपसेट रही। प्रेम की छाया से बचने के लिए उसने दिल्ली शहर तक छोड़ दिया। फिर उसे लगा कि जिस लड़के ने उसके प्यार की कद्र नहीं की, उसके लिए क्या रोना? वह अपनी दुनिया में मसरूफ हो गई। अपने काम और करियर को उसने पहली प्राथमिकता बना लिया। कई बार जब अतीत उसे बहुत ज्यादा परेशान करने लगा, तो उसने कई बार अंश को फोन किया और मिलने की इच्छा जताई। अंश ने यह कहकर मिलने से मना कर दिया कि पुरानी चीजों को कुरेदने से क्या फायदा। बाद में अरण्या को यह भी पता चल गया कि अंश के किसी और लड़की से संबंध बन गए थे, इसीलिए उसने अपने पहले प्यार को छोड़ दिया।



सवाल फिर वही उठता है कि आखिर अरण्या और अंश के बीच का यह प्यार कैसा था, जो नौ साल में भी इतना घनिष्ठ नहीं हो पाया? क्या सचमुच ये दोनों एक-दूसरे से प्यार करते भी थे या यह महज दोस्ती थी, जिसे दोनों ने एक साथ जिया? क्या जिंदगी के किसी भी मोड़ पर कोई प्रेमी अपनी प्रेमिका से ऊब सकता है, जिस तरह अचानक अंश अरण्या से ऊब गया था? क्या नए दौर के प्रेमियों के लिए प्यार कोई वस्त्र है, जिसे पहनते-पहनते आप ऊब सकते हैं और फिर नए वस्त्र की तलाश में लग जाते हैं? या आज के दौर का युवा इतना वाचाल हो गया है कि पलक झपकते ही वह अपना पार्टनर बदलना चाहता है? क्या जिंदगी की हर चीज में शामिल अस्थायित्व अब प्यार में भी शामिल हो चुका है? क्या बाजार के दर्शन ने प्यार को भी बाजारू बना दिया है?



कुछ दिन अंश से बिछड़ने का मातम मनाने के बाद अरण्या का भी एक-दूसरे लड़के से अफेयर हो गया। अब वह अंश का नाम भी नहीं लेती। उसे शायद यह याद भी नहीं है कि अंश नाम के किसी लड़के से वह बेपनाह मोहब्बत करती थी। अब अरण्या का प्रेमी फ्रांस में रहता है। दोनों एक-दूसरे से इंटरनेट के जरिए दिन-रात बातें करते हैं और जब वह दिल्ली आता है, तो अरण्या को लगता है कि सारी कायनात दिल्ली में आ गई है।

ये मेरी अधूरी कहानी...

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अनुपमा को न जाने क्यों प्यार के नाम से डर लगने लगा था, इसलिए वह लड़कों से दूर रहने लगी थी। लेकिन एक दिन उनकी क्लास में गेस्ट लेक्चरर के रूप में अमन नाम का एक व्यक्ति पढ़ाने आया। अमन बेहद स्मार्ट और इंटेलिजेंट था। अनुपमा जैसे उसे देखती उसका दिल तेजी से धड़कने लगता। अब लड़कों से नफरत करने वाली अनुपना को अमन से प्यार हो गया था। लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था, उसकी यह प्रेम कहानी परवान नहीं चढ़ पाई। क्या हुआ अनुपमा के साथ? पढ़िए, बे्रकअप की तीसरी किश्त में ...
सुधांशु गुप्त
व्यक्ति को जीवन में कभी-ना-कभी प्यार जरूर होता है। अनुपमा की उम्र उस समय 23 साल थी। उसने डीयू के ही एक कॉलेज से पत्रकारिता में ग्रेजुएशन पूरी की थी, लेकिन उम्र के इस पड़ाव तक भी उसके जीवन में कोई ऐसा शख्स नहीं आया था, जिससे उसके भीतर प्यार का अहसास जन्म लेने लगे। फिर भी वह उस दिन का बेताबी से इंतजार करती थी, जब उसे उसका चाहने वाला मिलेगा। उसके साथ पढ़ने वाली लड़कियां अक्सर उसे अपनी प्रेम कहानियां सुनाया करती थीं। अनुपमा के मन में पता नहीं क्यों एक डर-सा बैठ गया था। इसकी एक बड़ी वजह शायद ये थी कि दोस्तों द्वारा सुनाई गई प्रेम कहानियों में अक्सर वह पाती थी कि अधिकांश लड़के-लड़कियों से सेक्स संबंधों के लिए ही प्रेम करते हैं। पता नहीं क्यों, अनुपमा को सेक्स के नाम से ही चिढ़-सी होती गई और वह लड़कों से दूर रहने लगी। अगर कोई लड़का उसके करीब भी आता, तो उसे यही लगता कि वह प्रेम का प्रदर्शन सिर्फ उसके साथ सेक्स संबंध बनाने के लिए ही कर रहा है। इसी तरह वक्त गुजरता जा रहा था।
ग्रेजुएशन के बाद अनुपमा के सामने यह समस्या थी कि अब क्या किया जाए। नौकरी मिलना इतना आसान नहीं था। कुछ भी न करने का अर्थ था घरवालों की शादी करने की मांग को मान लेना। लिहाजा, अनुपमा ने आईपी यूनिवर्सिटी में एडमिशन ले लिया। आईपी यूनिवर्सिटी तीन माह का सीवीपी (सर्टिफिकेट वीडियो प्रोडक्शन) का कोर्स करा रही थी। अनुपमा चाहती थी कि पत्रकारिता के साथ-साथ वह वीडियो प्रोडक्शन का भी काम सीख जाए। यह वर्ष 2008 की बात है। इस कोर्स में पढ़ने वाले अधिकांश लड़के ही थे। लड़कियों की संख्या मुश्किल से तीन थी। उनमें से भी एक लड़की शादीशुदा थी। उस समय आईपी यूनिवर्सिटी कश्मीरी गेट पर हुआ करती थी। क्लास का समय शाम पांच बजे से आठ बजे तक होता था। इस तरह क्लासेस शुरू हो गई। वीडियो प्रोडक्शन का काम अनुपमा को बहुत अच्छा लगा। एक दिन उनकी क्लास में गेस्ट लेक्चरर के रूप में अमन नाम का एक व्यक्ति पढ़ाने आया। अमन बेहद स्मार्ट और इंटेलिजेंट था। अनुपमा जैसे उसे देखती, उसका दिल तेजी से धड़कने लगता, लेकिन अमन से बात करने की उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी। अमन की उम्र भी लगभग 27-28 साल रही होगी, लेकिन उसकी कुछ ही क्लासेस अटेंड करने के बाद अनुपमा को अहसास हो गया कि कहीं कुछ गड़बड़ हो गई। वह दिन-रात अमन के ही बारे में सोचती रहती। क्लास में ही उसने यह भी नोट किया कि अमन भी चोरी-चोरी उसे देखता है।
प्यार की इस नई इबारत को लिखने के लिए अनुपमा सही समय का इंतजार करने लगी। एक रोज क्लास के सभी स्टूडेंट जा चुके थे। उसने देखा कि अमन अब भी वहां मौजूद है। बड़ी हिम्मत करके अनुपमा उसके पास गई और एक किताब दिखाकर अंग्रेजी के वाक्य का अर्थ पूछने लगी। पहली बार दोनों की नजरें मिलीं। यहीं अनुपमा को यह अहसास भी हुआ कि अमन के दिल में शायद प्यार की घंटियां बज रही हैं। अमन ने अर्थ बताने से पहले कहा, लेकिन तुम्हें मेरी एक बात माननी होगी?
अनुपमा ने डरते हुए कहा- जी सर, बताइए?
अमन ने बेखौफ कहा- मंै तुम्हें बहुत पसंद करता हूं और किस करना चाहता हूं। अनुपमा का चेहरा लाल हो गया और उसकी जुबान को तो मानो ताला लग गया। उसे समझ नहीं आया कि क्या जवाब दे।
अमन ने फिर बात संभालते हुए कहा, ‘डरो नहीं, मैं मजाक कर रहा था।’ पर तुम्हें मेरी एक दूसरी शर्त माननी होगी। तुम मुझे अमन कहकर पुकारोगी और मैं तुम्हें अनुपमा की जगह अन्नू कहा करूंगा।’ अनुपमा ने उसकी शर्त मान ली। प्यार की यह पहली क्लास खत्म हो गई, लेकिन पूरी रात अनुपमा अमन के ही ख्वाब देखती रही। उसने अपने दिल से पूछा कि क्या वह उसे पसंद करती है? जवाब मिला, बेहद पसंद करती है, बल्कि प्यार करती है।
इसके बाद अमन और अनुपमा की रोज मुलाकातें होने लगीं। देर तक दोनों आईपी यूनिवर्सिटी में रहने लगे। अमन की ही गाड़ी में वह वापस लौटती। जब दोनों के रिश्ते में थोड़ी गहराई आ गई, तो एक दिन अनुपमा ने पूछा, क्या आप मुझसे प्यार करते हो? अमन का जवाब था- प्यार क्या होता है, मैं नहीं जानता, लेकिन तुम मुझे अच्छी लगती हो। मैं तुम्हारे साथ रहना चाहता हूं। तुम्हें छूना और किस करने की मेरी इच्छा है। ऐसे ही किसी एक दिन आईपी यूनिवर्सिटी के प्रांगण में, जब शाम ढल चुकी थी और रात रफ्ता-रफ्ता कदम बढ़ा रही थी, अमन ने पहली बार अनुपमा के होंठों पर किस किया। यह प्यार का पहला चुंबन था।
अनुपमा ने उस पूरी रात इस चुंबन को महसूस किया। बस, एक ही बात अनुपमा को परेशान कर रही थी, वह यह कि अमन कभी अपने मुंह से यह स्वीकार नहीं करता था कि वह उसे प्यार करता है, लेकिन अमन ने इस बात को भी बहुत गंभीरता   से नहीं लिया, क्योंकि वह अमन से प्यार करने लगी थी। दोनों के बीच की दूरियां लगातार कम हो रही थीं। अब दोनों के बीच किस का आदान-प्रदान अक्सर हो जाया करता था। अब दोनों देह की जुबान भी समझने लगे थे।
एक दिन जब अमन और अनुपमा लॉन्ग ड्राइव पर थे, तो अमन ने साफ शब्दों में कहा, यार हम लोगों को सेक्स कर लेना चाहिए? अनुपमा को कोई आश्चर्य नहीं हुआ, क्योंकि उसे भी लगता था कि अब दोनों के देह की काफी दूरियां तय हो चुकी हैं। फिर भी उसने अमन से पूछा, क्या अब तुम मुझसे प्यार करते हो?
अमन ने फिर वही जवाब दिया- मैं कुछ समझ नहीं पाता। मैं तुम्हें इस सवाल का क्या जवाब दूं। लेकिन अनुपमा को जवाब मिल गया था। फिर भी वह इस खूबसूरत से रिश्ते को इस तरह खत्म नहीं करना चाहती थी। यह तो वह जान चुकी थी कि अमन भी और लड़कों की तरह महज सेक्स संबंध बनाने के लिए ही उसकी तरफ बढ़ा था। सेक्स संबंध बनाने में अनुपमा को भी कोई परहेज नहीं था, लेकिन वह ऐसे व्यक्ति से संबंध नहीं बनाना चाहती थी, जो उससे प्यार नहीं करता या यह बात जानता ही नहीं कि वह प्यार करता है या नहीं। लिहाजा, अनुपमा उस खूबसूरत मोड़ का इंतजार करने लगी, जहां इस रिश्ते को हमेशा के लिए खत्म किया जा सके। सितंबर में अमन का बर्थ-डे था। अनुपमा ने उसके बर्थ-डे की खूब तैयारी की। उसके लिए खूब सारे उपहार खरीदे- कोट, बुके, पेन और भी न जाने क्या-क्या। दोनों गाड़ी में लॉन्ग ड्राइव पर गए। यहां भी अनुपमा ने अमन को इस बात की इजाजत दे दी कि वह उसे किस कर सके। दोनों ने पूरे दिन खूब मस्ती की। रात को जब दोनों विदा होने लगे, तो अनुपमा ने कहा- अमन, अब मैं तुम्हारे साथ और आगे नहीं जा सकती। यहीं हमारे रिश्ते का अंत है।
अमन को अचानक कुछ समझ नहीं आया। अनुपमा ने कहा- ‘हमें साथ रहते हुए बहुत दिन नहीं हुए, लेकिन फिर भी अब तक तुम्हें समझ जाना चाहिए था कि तुम मुझसे प्यार करते हो या नहीं, क्योंकि मैं तुमसे बहुत प्यार करती हूं, लेकिन अब मैं तुम्हारे साथ और समय बर्बाद नहीं कर सकती।
अनुपमा घर आकर बहुत रोई। उसे अमन के चले जाने का बहुत अफसोस हुआ। उसने यह भी सोचा कि एक अर्थ में अमन ईमानदार था, जो उसने झूठ नहीं बोला और साफ-साफ कह दिया कि वह नहीं जानता कि वह उसे प्यार करता है या नहीं। अन्यथा वह यदि कह देता कि वह मुझे प्यार करता है, तो मुझे भी सेक्स संबंध बनाने में कोई दिक्कत नहीं थी। अनुपमा को लगता है कि लगातार फिजिकल होने की चाह ने इस रिश्ते को ब्रेकअप तक पहुंचाया।

Wednesday, December 7, 2011

भ्रष्टाचार कोई शर्ट नहीं, जिसे जब चाहें उतार कर रख दें

सुधांशु गुप्त

क्या हम भारत को सचमुच भ्रष्टाचार मुक्त मुल्क बनाना चाहते हैं? क्या हम वाकई चाहते हैं कि देश में फैली भ्रष्टाचार की जड़ों में तेजाब डाल दिया जाए? भ्रष्टाचार से हमारा क्या अभिप्राय है? क्या हमारे लिए भ्रष्टाचार का अर्थ केवल सरकारी काम करवाने के लिए दी जाने वाली रिश्वत है? क्या हमारा मकसद केवल दूसरों को भ्रष्टाचार से रोकना है? और क्या हमने सोचा है कि भ्रष्टाचार खत्म होने के बाद जो फेवर हमें अभी मिल रहे हैं, हम उनके बिना रहने के लिए तैयार हैं? अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन ने एकबारगी देशवासियों के भीतर भ्रष्टाचार खत्म करने का जज्बा सा पैदा कर दिया है। खासतौर से युवावर्ग अन्ना हजारे के तार्किक विरोध को भी बर्दाश्त नहीं कर पाता। उसे लगता है कि अन्ना का विरोध करने वाले भ्रष्टाचार के समर्थक हैं जबकि ऐसा नहीं है।



अधिकांश भारतीय चाहते हैं कि भ्रष्टाचार को खत्म किया जाए। लेकिन वे यह नहीं जानते कि भ्रष्टाचार किसे माना जाए और किसे नहीं। शब्दकोश में दी गई करप्शन की परिभाषा के अनुसार रिश्वत, अनैतिकता, बेईमानी, भ्रष्ट आचार और व्यवहार, किसी से फेवर लेना या देना, अपने काम के प्रति ईमानदार ना होना जैसी तमाम चीजें भ्रष्टाचार के दायरे में आती हैं। और हम सब जानते हैं कि निजी स्तर पर हम कितने गैर भ्रष्ट हैं। मुलाहिजा फरमाइए! हम किसी सरकारी या प्राइवेट कंपनी में आठ घंटे की नौकरी करते हैं, तो उसी समय में हम घर के सभी जरूरी काम निपटाना चाहते हैं। अपने बच्चे के एडमिशन में हम चाहते हैं कि हमारे बच्चे को प्राथमिकता मिले, इसके लिए हम पैसे से लेकर अपने सारे सोर्सेज इस्तेमाल करते हैं। कॉलेज में एडमिशन के लिए भी हमने तमाम दूसरे रास्ते तलाश रखे हैं। अस्पतालों में लाइन में लगने की हमारी आदत अब नहीं रही है। वहां भी हमें फेवर चाहिए।



ऑफिसों में हम बॉसेज को खुश करके प्रमोशन और इंक्रीमेंट्स चाहते हैं। बड़ी निजी कंपनियों में भी देर से आना और काम ना करना विशेषाधिकार माना जाने लगा है। और सरकारी नौकरियों का हाल तो यह है कि वहां दो-दो घंटे ताश खेलना भी नौकरी का ही हिस्सा माना जाने लगा है। यह सब करते हुए हमें कभी यह महसूस नहीं होता कि हम कोई बेईमानी कर रहे हैं। हमने हर चीज के शॉर्टकट्स तलाश रखे हैं। हमारा आचार और व्यवहार भी भ्रष्टाचार से मुक्त नहीं है। यानी भ्रष्टाचार आज हमारी लाइफ स्टाइल में शामिल हो चुका है। हमारी वैल्यूज में शामिल है भ्रष्टाचार। और हमने यह लाइफस्टाइल अचानक नहीं अपनाया है। इसे विकसित होने में सालों का समय लगा है। इसलिए जब हम भ्रष्टाचार विरोध की बात करते हैं तो भूल जाते हैं कि हमारे अपने व्यवहार और आचरण में कितना भ्रष्टाचार है। हमने नैतिकताओं की जो नई परिभाषाएं गढ़ी हैं, वे भी काफी दिलचस्प हैं। एक मिसाल से इस बात को बेहतर तरीके से समझा जा सकता है। एक व्यक्ति दस प्रतिशत की कमिशन पर कोई डील कराने की बात करता है। यदि दस प्रतिशत की कमिशन लेकर वह काम करा देता है तो वह ईमानदारी है और यदि दस प्रतिशत कमिशन लेकर वह काम नहीं कराता तो यह बेईमानी है। यानी कमिशनखोरी से हमारा कोई विरोध नहीं है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी एक उदाहरण से इसी बात को आगे बढ़ाया जा सकता है। स्विस बैंक में दुनिया की सबसे ज्यादा ब्लैक मनी जमा है। जाहिर है ये ब्लैक मनी भ्रष्टाचार से कमाया गया पैसा है। ऐसा नहीं है कि स्विस बैंक इस बात को नहीं जानता। विडंबना यह है कि जहां दुनिया का सबसे ज्यादा काला धन जमा है, उसी देश की गिनती दुनिया के सबसे कम भ्रष्ट मुल्कों में होती है।



अब जरा इस बात की कल्पना कीजिए कि एक दिन अचानक आपको पता चलता है कि भारत पूरी तरह भ्रष्टाचार मुक्त हो गया है! तब क्या आप अपने आचरण, व्यवहार, अपनी वैल्यूज और अपने लाइफ स्टाइल को बदल पाएंगे? अगर नहीं तो भ्रष्टाचार विरोध का सीधा सा अर्थ केवल सरकारी भ्रष्टाचार को खत्म करना होगा। अन्यथा भ्रष्टाचार कोई शर्ट नहीं है, जिसे आप जब चाहें उतार कर रख दें।

Saturday, May 21, 2011

बहुत हार्ड था हार्ड कौर का जीवन

सुधांशु गुप्त



कानपुर के निम्न मध्यवर्गीय परिवार में जन्मीं तरण कौर ढिल्लन की जिंदगी का सफर आसान नहीं था। सिख विरोधी दंगों में उन्होंने अपने पिता को खोया और घर का ब्यूटी पार्लर भी जला दिया। इसके बाद कानपुर से लुधियाना और फिर लंदन तक का सफर किसी के लिए भी प्रेरणास्रोत का काम कर सकता है।

सपने उन्हीं के पूरे होते हैं जिनके सपनों में जान होती है, पंखों से कुछ नहीं होता हौसलों में उड़ान होती है।
यकीनन देश की पहली रैपर और हिप हॉप सिंगर हार्ड कौर की सफलता की अब तक की दास्तान हौसलों की ही दास्तान है। आज जब लोग उनके गाये गीत- ‘मूव योर बॉडी बेबी’ या फिर ‘मैं नशे में टल्ली हो गयी...’ जैसे गीत सुनते हैं तो उन्हें इस बात का जरा भी अंदाजा नहीं होता कि हार्ड कौर की इस मदमस्त कर देने वाली आवाज के पीछे कितना दर्द और कितना संघर्ष छिपा है। हार्ड कौर का जन्म कानपुर में 1979 में हुआ। उनका बचपन आम निम्न मध्यवर्गीय परिवारों की लड़कियों की तरह ही बीत रहा था। उनका नाम था तरण कौर ढिल्लन। उनकी मां घर के आर्थिक हालात को बेहतर बनाने के लिए कानपुर में ही एक ब्यूटी पार्लर चलाया करती थीं। तभी नवंबर 1984 के वे शुरुआती दिन
आये, जिन्होंने एकबारगी इस घर की खुशियों को डस लिया। सिख विरोधी दंगों ने तरण के पिता की बलि ले ली। यही नहीं, उनका ब्यूटी पार्लर भी आग के हवाले कर दिया गया। तरण की मां अपनी बेटी और बेटे को लेकर लुधियाना आ गयीं, अपने मायके। समय फिर रफ्ता-रफ्ता बीतने लगा। 1991 में तरण की मां ने एक अप्रवासी भारतीय से शादी कर ली और बर्मिंघम, लंदन चली गयीं। तरण की मां ने वहां भी ब्यूटी पार्लर खोल लिया, ताकि बेटी की पढ़ाई-लिखाई ठीक ढंग से हो सके। इस बीच तरण के मन में सिंगर बनने का कोई साफ-साफ सपना नहीं था। बस उसके मन में अपनी एक आंटी की वह तस्वीर समाई हुई थी, जिसमें वे परंपरागत साड़ी पहने हारमोनियम बजा रही हैं। उनके इसी सपने ने शायद एक सिंगर का रूप लिया। लेकिन तरण ने पाया कि लंदन में भी उनके लिए रास्ते आसान नहीं हैं। लोग उन पर फब्तियां कसते।

किशोरावस्था तक पहुंचते-पहुंचते तरण ने सिंगर बनने का निश्चय कर लिया। वह कड़ी मेहनत करतीं। उन्होंने लंदन स्कूल ऑफ म्यूजिक में दाखिला ले लिया। 1995 में तरण कौर ने स्टेज परफॉर्मेंस देनी शुरू कर दी। उन्होंने रूस, इस्रायल, फ्रांस और कोपनहेगन की यात्राएं कीं। उन्हें दर्शक और सम्मान दोनों मिले। उनका ‘ग्लॉसी’ एलबम आया, जिसे दर्शकों ने काफी पसंद किया। इसके बाद लंदन से बॉलीवुड तक का उनका सफर बहुत मुश्किल नहीं रहा। वह अहसान लॉय से मिलीं। अहसान के जरिये उनकी मुलाकात ‘जॉनी गद्दार’ के निर्देशक श्रीराम से हुई। इसी फिल्म में उन्होंने पहला गीत गया - मूव योर बॉडी बेबी। इस गीत ने उन्हें भारत में भी लोकप्रिय कर दिया। इसके बाद उन्होंने हाल-ए-दिल, किस्मत कनेक्शन, अगली और पगली, बचना ऐ हसीनों और ‘सिंह इज किंग’ के लिए गीत गाये। लेकिन उनका नाम तरण से हार्ड कौर कैसे हो गया, यह अभी भी रहस्य ही है। संभवत: जीवन के ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर चलते हुए और जीवन की कड़वी सच्चाइयों को झेलते-झेलते वह इतनी हार्ड हो गयीं कि उन्होंने अपना नाम ही हार्ड कौर कर लिया। हार्ड कौर का मानना है कि जब तक आपमें प्रतिभा और जुनून है, तब तक आपको अपने सपनों का पीछा करना चाहिए। और अपने सपने का पीछा करते-करते ही हार्ड कौर यहां तक पहुंची हैं।