Saturday, June 5, 2010

रक्षाबंधन: यूं भी तो हो सकता है..

रक्षाबंधन..एक परंपरावादी हिंदू त्योहार! लगभग छह हजार साल पहले सिंधु घाटी सभ्यता के दौरान रक्षाबंधन के कुछ प्रमाण मिले हैं। इसके बाद अलग-अलग सभ्यता और संस्कृतियों ने रक्षा के इस बंधन को अपनी सुविधा और सहूलियत से अपनाया। किसी व्यक्ति की कलाई पर रक्षा का बंधन (डोरी) बांधने वाला उससे यह वचन लेता है कि वह ‘रक्षा’ बांधने वाले की रक्षा करेगा। प्राचीन समय में रक्षा का यह बंधन पत्नियां अपने पतियों की कलाई पर बांधा करती थीं। आशय यही था कि उनके पति उनकी तमाम तरह की बुराइयों से रक्षा करेंगे। बाद में सभ्यता और समाज के विकास के साथ-साथ यह त्योहार भाई-बहनों का त्योहार बनता चला गया। इस दिन बहनें भाइयों की कलाई पर राखी बांध कर जहां एक ओर भाइयों की लंबी उम्र की दुआ मांगती हैं, वहीं वह उनसे अपनी रक्षा करने का वचन भी लेती हैं। आधुनिक समाज में यह त्योहार भाई-बहनों के त्योहार के रूप में ही देखा जाता है। इसके पीछे जो सबसे प्रामाणिक ऐतिहासिक प्रमाण मिले हैं, वे बताते हैं कि मध्यकाल में राजपूत मुस्लिम आक्रमणकारियों से लड़ रहे थे। उस समय चित्ताैड़ के महाराजा की विधवा रानी कर्णवती को जब यह महसूस हुआ कि वह गुजरात के सुल्तान बहादुर शाह से अपने राज्य की हिफाजत नहीं कर सकतीं तो उन्होंने हुमायूं को एक राखी भेजी। और हुमायूं को उस राखी में बहन का स्नेह दिखाई दिया। उसने तुरंत अपनी सेनाएं वापस बुला लीं। इस ऐतिहासिक घटना ने भाई-बहन के प्यार को मजबूती प्रदान की। रक्षाबंधन से जुड़ा एक और दिलचस्प पौराणिक प्रमाण भगवान श्रीकृष्ण का है। श्रीकृष्ण ने जब शिशुपाल की हत्या की तो उनकी एक उंगली में से काफी खून निकलने लगा। उस वक्त द्रौपदी ने अपनी साड़ी का एक टुकड़ा फाड़ कर श्रीकृष्ण की कलाई पर बांध दिया, ताकि खून रुक सके। तब श्रीकृष्ण ने द्रौपदी की हिफाजत करने का वचन दिया और यह वचन उस वक्त पूरा हुआ, जब कौरव भरी सभा में द्रौपदी का चीरहरण कर रहे थे। इन ऐतिहासिक प्रसंगों ने भी रक्षाबंधन को भाई-बहन के स्नेह के त्योहार के रूप में ही स्थापित करने में खासी मदद की। और यह त्योहार पूरी तरह से भाई-बहन के स्नेह के प्रतीक के रूप में मान्यता प्राप्त करता चला गया। ऐसे में कई बार यह भी देखने में आया कि जिन बहनों के सगे भाई नहीं होते थे, वे अक्सर रक्षाबंधन पर उदास हो जाया करती थीं। गुजरी सदी के सातवें दशक में ऐसे कई परिवार मौजूद थे, जिनके घर में तीन या चार बेटियां थीं और बेटा कोई नहीं। और रक्षाबंधन के दिन इनकी मायूसी देखते ही बनती थी। आज जबकि परिवारों में एक या दो ही बच्चे होते हैं तो यह जरूरी नहीं होता कि घर में भाई हो ही। घरों में सिंगल डॉटर या दो बहनों की मौजूदगी भी आमतौर पर देखी जा सकती है।
अब ये लड़कियां क्या करें? हमने कुछ ऐसी ही लड़कियों से बातचीत की। अमूमन सभी लड़कियों का यह मानना था कि भाई न होने का उन्हें या उनके अभिभावकों को कोई अफसोस नहीं है। वे इस दिन या तो अपने पिता, चाचा को राखी बांधती हैं या फिर छोटी बहन से राखी बंधवा कर वे उसे उसकी सुरक्षा का वचन देती हैं। 18 वर्षीया गार्गी शर्मा पत्रकारिता की छात्र हैं। वह कहती हैं, मेरी 12 वर्षीय छोटी बहन है मैत्रेयी। मुङो कभी इस बात का अफसोस नहीं हुआ कि मेरा भाई नहीं है। मेरे लिए रक्षाबंधन का अर्थ है सेलिब्रेशन और मैं हर रक्षाबंधन पर अपनी छोटी बहन से राखी बंधवाती हूं और एक तरह से उसकी सुरक्षा का वचन देती हूं। बकौल गार्गी, लेकिन अगर मैं उससे राखी न भी बंधवाऊं तो मुङो कोई फर्क नहीं पड़ता। उसकी सुरक्षा को मैं अपनी जिम्मेदारी मानती हूं।
बेशक लड़कियों की सोच को उदारीकरण और बढ़ते बाजार के प्रभाव ने बदला है। 9 वर्षीया मान्या गुप्ता अपने पिता और चाचा को राखी बांधती है। उसकी इकलौती 3 वर्षीया बहन आर्या अभी यह सब समझने लायक नहीं है। लेकिन मान्या कहती है, मुङो अपनी बहन से राखी बंधवाने में कोई ऐतराज नहीं। 12वीं कक्षा में पढ़ने वाली कृति की एक छोटी बहन है प्रगति। कृति रक्षा बंधन को भाई-बहन का ही पर्व मानती है, लिहाजा अपने चचेरे भाइयों से राखी बंधवाती है। उसका कहना है, यह भाई बहन का त्योहार है और हमें इसे इसी रूप में रहने देना चाहिए। 13 वर्षीया सौम्या और 21 वर्षीया शैव्या भी इसी सोच की हैं। सौम्या कहती हैं, मेरे लिए रक्षाबंधन का अर्थ है सेलिब्रेशन और मैं अपनी बड़ी बहन को राखी बांध कर ही रक्षा बंधन मनाती हूं। द्वितीय वर्ष की छात्र प्रीति की भी एक बहन है भावना। बकौल प्रीति, वक्त के हिसाब से त्योहारों के स्वरूप में भी बदलाव आना चाहिए। आखिर हम क्यों भाइयों का इंतजार करते रहें? क्या हम किसी से कम हैं। मैं अपनी छोटी बहन के लिए भाई भी हूं और उससे ही राखी बंधवाती हूं।
किसी भी त्योहार का मतलब होता है सेलिब्रेशन और रक्षाबंधन भी सेलिब्रेशन के लिए ही है। ऐसे में जिन घरों में बेटियां ही हैं, वे क्यों इस त्योहार के दिन भाइयों के न होने का मलाल करें? क्या ये बेहतर नहीं कि वक्त और बदलती दुनिया के मद्देनजर ये बेटियां अपनी ही बहनों से राखी बंधवा कर इस उत्सव को नये अर्थ देने की कोशिश करें।
सुधांशु गुप्त

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