Saturday, May 7, 2011

त्रिकोण के तीनों कोण यानी देखना गुजरेाीस साल की दुनिया

- सुधांशु गुप्त



गुजरेाीस सालों में हमारे चारों की दुनियााड़ी तेजी सेादली है। नयी तकनालॉजी, वैश्विकरण, आर्थिक उदारीकरण औरााजार केाढ़ते आकार ने हमारी जीवन शैली, हमारी सोच और हमारी रचनात्मकता तक को प्रभावित किया है। इनादलावों ने हमारे नैतिक, सामाजिक मूल्यों, हमारी प्राथमिकताओं और हमारे सरोकारों पर भी अपना असर छोड़ा है। ऐसे में यदि कोईाीस साल पहले की उस दुनिया, उस दुनिया में रफ्ता-रफ्ता आ रहेादलावों को जानना चाहे तो उसके पास क्या तरीका हो सकता है? त्रिकोण के तीनों कोण हरीश पाठक के लेखों का एक ऐसा ही संकलन है, जो उंगली पकड़ कर आपकोाीस साल पहले की दुनिया में ले जाएगा। जहां आप देख सकेंगे कि इनाीस सालों में पत्रकारिता (कुछ-कुछ साहित्य की भी) दुनिया किस तरह अपनी प्राथमिकताएंादल रही है, और किस तरह वह दुनिया नयेादलावों को स्वीकार कर रही है। उस समय अहम मुद्दे क्या थे, पत्रकार होने का क्या अर्थ होता था और किस तरह संवेदनशीलताार्फ की तरह जमी नहीं थी।

हरीश पाठक की पुस्तक में इनाीस वर्षों के दौरान धर्मयुग, संझा जनसत्ता, हमारा महानगर जैसे अखाारों और पत्रिकाओं में लिखे लेख हैं। लेकिन अगराारीकी से देखें तो आप इन लेखों के जरियेादलती दुनिया की पूरी तस्वीरोशक ना सही, लेकिन उसकी एक झलक अवश्य पा सकते हैं। कुछ लेखों की काव्यात्मक और साहित्यिक भाषा कहीं-कहीं इसाात का आभास भी देती है कि आप कोई उपन्यास या कहानी को पढ़ रहे हैं।

त्रिकोण के तीनों कोण अघोषित रूप से दो खंडों मेंांटी है-सिलसिला और कुछ चेहरे। सिलसिला में कृपया, गुंडों को नायक नाानाएं, हिंदी पत्रकारिता में रचनात्मकता की कमी, पत्रकारिता के फर्जीवाड़े को रोकिये, छपे अक्षरों की सत्ता, एक लड़ते हुए अखाार की हत्या, यह प्रेस किसे डराता है जैसे कई लेख हैं, जो पत्रकारिता कीादलती प्राथमिकताओं की ओर इशारा करते हैं। ये लेख उस दौर की याद दिलाते हैं जा सचमुच गुंडों को नायकानाये जाने की प्रक्रिया शुरू हो रही थी, पत्रकारिता में आ रही रचनात्मकता की कमी पर मर्सिया पढ़े जा रहे थे और जनसत्ता जैसे वैचारिक और संवेदनशील अखाार के मुांई और चंडीगढ़ संस्करण अचानकांद कर दिये गये थे। इसी सिलसिले में फिर-फिर याद आओगे काका, संवेदनाओं के गिरते सूचकांक, मशहूर औरत की गुमनाम मौत, मरे नहीं जिंदा है दानसिंह, गुमनामी के अंधेरे जैसे लेख क्रमश: काका हाथरसी, केदारनाथ अग्रवाल, फिल्म अभिनेत्री वनमाला, संगीतकार दानसिंह और मशहूर शायर और गीतकार सुदर्शन फाकिर जैसी शख्सियतों पर लेख हैं। ये वेाड़े लोग हैं, जिनकी मौत अखाारों में एक कॉलम से ज्यादा जगह नहीं पा सकी। क्योंकिााजार केाढ़ते दाावों में इनकी टीआरपी कम पाई गयी थी। महानगरों मेंाढ़ती संवेदनहीनता पर लिखे उनके लेख विद्या प्रभुदेसाई तुम कहां मरी हो?, कलाााई की चीखें और सोता अस्पताल लगातार गिर रहे संवेदना के सूचकांक पर रोशनी डालते हैं। लेकिन सिलसिले की इसी कड़ी में हरीश पाठक के लिखे कुछ लेखों से आप वैचारिक रूप से असहमत भी हो सकते हैं। राजाार केाहाने एक ऐसा ही लेख है जिसमें उन्होंने राजनीति में प्रवेश करने वालेाॉलीवुड सितारों की होती दुर्दशा पर सवाल उठाये हैं। लेकिन उन्हीं सवालों से ही एक सवाल यह भी पैदा होता है कि आखिर वे कौन से निजी कारण हैं, जो उन्हें सत्ता और राजनीति की ओर ले जाते हैं? और क्या फिल्मी सितारे यह नहीं जानते कि उन्हें राजनीति में उनकी भीड़ खेंचू लोकप्रियता के लिए ही इस्तेमाल किया जाता है?

पुस्तक के दूसरे हिस्से-और कुछ चेहरे में राजनीति, फिल्म, खेल और समाज के कुछ चेहरों पर त्वरित टिप्पणियां हैं, जो समय-समय पर की गयीं थी और वक्त की करवटों ने जिनके महत्व को कुछ कम अवश्य कर दिया है। लेकिन इनमें भी भाषायी खूासूरती के साथ उस दौर के माहौल को पढ़ा तो जा ही जा सकता है।


No comments: