Thursday, March 8, 2012

लिव इन रिलेशनशिप ..मगर समाज को भाता नहीं सहजीवन


लिव इन रिलेशनशिप को लेकर एक बार फिर बहस शुरू हो गयी है, लेकिन ऐसे लोगों की संख्या अभी भी उंगलियों पर गिनी जा सकती है, जो बिना विवाह किये साथ रह रहे हैं या रहना चाहते हैं। जहां तक कानून का सवाल है तो कानून ने कभी भी इसे अपराध नहीं माना। क्या हैं लिव इन रिलेशनशिप के पेंच? सुधांशु गुप्त की रिपोर्ट



पिछले दिनों दक्षिण भारतीय अभिनेत्री खुशबू की ओर से दायर विशेष अनुमति याचिका पर सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी करते हुए कहा कि शादी किये बगैर एक महिला और पुरुष के एक साथ रहने को अपराध नहीं माना जा सकता। कोर्ट ने यह भी कहा कि लिविंग टुगेदर न तो अपराध है और न अपराध हो सकता है। गौरतलब है कि खुशबू ने पांच साल पहले एक इंटरव्यू में विवाह पूर्व रिश्तों का समर्थन किया था। इस बयान के बाद खुशबू पर 22 आपराधिक मामले दायर हो गये थे। ये तमाम मामले उन लोगों द्वारा दायर किये गये थे, जो खुशबू के बयान को नैतिकता के चश्मे से देख रहे थे, लेकिन कोर्ट की टिप्पणी ने लिव इन के पक्षधरों के चेहरे इस तरह खिला दिये हैं, मानो कोर्ट ने लिव इन रिलेशनशिप के पक्ष में कोई फैसला दे दिया हो।



इससे पूर्व सन् 2008 में महाराष्ट्र सरकार ने पहल करते हुए किसी पुरुष के साथ लंबे समय से रहने वाली महिला को वैध पत्नी का दर्जा देने का फैसला किया था। इसके लिए राज्य ने सीआरपीसी की धारा 125 में संशोधन किया था। तब भी लिव इन रिलेशनशिप को लेकर बहस छिड़ गयी थी। लेकिन यहां यह गौरतलब है कि यदि वयस्क महिला और पुरुष एक साथ रहने का फैसला करते हैं तो वह किसी भी भारतीय कानून के अनुसार अपराध नहीं है, बल्कि अनुच्छेद-21 के तहत हर इनसान को जीने की स्वतंत्रता का अधिकार है और लिविंग टुगेदर भी जीने का ही एक अधिकार है। यानी बिना विवाह किये साथ रहने को कानून कभी भी अपराध नहीं मानता और न ही हमारे देश में ऐसा कोई कानून है, जो इस तरह के रिश्तों पर रोक लगाता हो।



पौराणिक कथाओं में मौजूद लिव इन



भारतीय पौराणिक कथाओं में विवाह की जो तमाम पद्धतियां मौजूद हैं, उनमें से एक गंधर्व विवाह भी है। इसमें स्त्री और पुरुष ईश्वर के सामने एक दूसरे को पति-पत्नी स्वीकार कर लेते हैं। इस रिश्ते का इन दोनों के अलावा किसी और को पता नहीं होता। गंधर्व विवाह की इस पद्धति को उस समय भी जायज माना जाता था। कमोबेश इसी का आधुनिक रूप लिव इन रिलेशनशिप कहा जा सकता है। मध्यप्रदेश की कुछ जनजातियों में इसी तरह की प्रथा को घोटुल नाम से जाना जाता है।



क्या हैं दिक्कतें



अनीता (बदला हुआ नाम) 1984 से अपने दोस्त के साथ बिना विवाह किये साथ रहीं। 2002 में इन दोनों ने बाकायदा शादी कर ली। अनीता बताती हैं, बिना विवाह किये साथ रहने में सबसे ज्यादा समस्याएं माता-पिता ही पैदा करते हैं। उन्हें हमेशा यह लगता है कि उनके बच्चे (जो बड़े हो चुके हैं) कोई फैसला खुद नहीं ले सकते।



विवाह संस्था बनाम लिव इन



विवाह नामक संस्था की खामियों और नारी मुक्ति आंदोलनों ने ही युवाओं को बिना विवाह किये साथ रहने के लिए प्रेरित किया है। लिव इन के पक्षधर लोगों का तर्क है कि विवाह नामक संस्था अब पुरानी हो गयी है। इसमें इतने अधिक पाखंड घर करते जा रहे हैं कि इसका वर्तमान स्वरूप में बचे रहना संभव नहीं दिखता। खासतौर पर वैवाहिक रिश्ते में पुरुष को हर तरह के नाजायज रिश्ते बनाने की छूट होती है, जबकि महिलाएं विवाह को ही अपना सर्वस्व मानती हैं। लिहाजा लिव इन रिलेशनशिप दोनों को बराबर की आजादी देता है। हालांकि लिव इन में भी यदि महिला को यह पता चलता है कि पुरुष के किसी और स्त्री से संबंध बने हैं तो महिला को उतनी ही तकलीफ होती है, जितनी किसी पत्नी को हो सकती है। यानी लिव इन में भी वे तमाम आशंकाएं काम करती हैं, जो किसी वैवाहिक रिश्ते में करती हैं। यही वजह है कि आज भी समाज में ऐसे रिश्ते बहुत कम दिखाई पड़ते हैं।



परंपरागत ही है भारतीय समाज



भारतीय समाज तमाम प्रगतिशीलता के बावजूद आज भी परंपरावादी ही है। यही वजह है कि हम विवाह नामक संस्था में यकीन करते हैं। हमारे संस्कार और हमारे मूल्य हमें इस बात की इजाजत नहीं देते कि बिना विवाह किये कोई लड़का और लड़की साथ रहें। खासतौर पर छोटे शहरों और कस्बों में रहने वाला युवा तो आज भी लिव इन के बारे में सोच नहीं सकता।



वैचारिक बदलाव है लिव इन



क्या विवाह संस्था के विकल्प के रूप में उभर रहा है बिना विवाह किये साथ रहने का रिश्ता? अनीता कहती हैं, समाज अभी इसके लिए तैयार नहीं है। केवल उसी स्थिति में यह विवाह का विकल्प बन सकता है, जब करोड़ों युवा लिव इन में रहने लगें। अभी ऐसा नहीं है। अभी केवल उच्च वर्ग के गिने-चुने लोग या फिर ग्लैमर की दुनिया के लोग ही लिव इन के पक्षधर दिखाई पड़ते हैं, लेकिन लिव इन को वैचारिक बदलाव तो कहा ही जा सकता है।



पाप नहीं है लिव इन



यह सच है कि बिना विवाह किये स्त्री और पुरुष का एक साथ रहना कोई पाप नहीं है और ना ही कानून इसे पाप मानता है। यह दो लोगों बेहद निजी फैसला है, लेकिन इसके आधार पर विवाह नामक संस्था को अस्वीकार कर देना भी कहां तक उचित है?

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