Thursday, March 8, 2012

मॉडर्न होती मॉम

शहरों में रहने वाली आज की मांओं का स्वरूप परंपरागत नहीं रहा। घरेलू और कामकाजी दोनों ही तरह की महिलाएं खुद को बच्चों के अनुरूप ढाल रही हैं-वे मॉडर्न हो रही हैं और बच्चों के साथ उनकी दोस्त बन कर उनका विकास करना चाहती हैं। मॉडर्न होती आज की न्यू मॉम के वे कौन से सूत्र हैं, जो उन्हें अपने बच्चों के करीब ला सकते हैं और ला रहे हैं। बता रहे हैं सुधांशु गुप्त।




साउथ दिल्ली में रहने वाली नीता मिश्र का चार साल का बेटा है। नीता एक अखबार में नौकरी कर रही थीं। पिछले कुछ समय से वह यह महसूस कर रही थीं कि उनके बेटे को अपनी बात कहने में थोड़ी दिक्कत होती है। नीता ने कई बार सोचा कि उसे किसी डॉक्टर को दिखाया जाए। तभी उन्हें लंदन में हुए एक सर्वे की रिपोर्ट पढ़ने को मिली। इसमें कहा गया था कि हर छह में से एक बच्चों को बोलने में दिक्कत हो रही है। यह सर्वे उन बच्चों पर किया गया था, जिनकी मांएं नौकरीपेशा हैं और बच्चों को बहुत ज्यादा समय नहीं दे पातीं। इस सर्वे का नीता पर इतना गहरा असर हुआ कि उन्होंने तत्काल नौकरी छोड़ने का फैसला कर लिया और पूरा समय अपने बच्चों को देने लगीं। दिलचस्प रूप से यह एक नया ट्रैंड है, जो बताता है कि मांएं अपने बच्चों के लिए खुद को कितना बदल रही हैं। ऐसा नहीं है कि बच्चों की बेहतर परवरिश के लिए सभी महिलाएं नौकरियां छोड़ने की पक्षधर हैं, लेकिन नौकरीपेशा महिलाएं भी खुद को न्यू मॉम की अवधारणा में ढालने के लिए छह सूत्रीय फामरूले पर चलना पसंद करती हैं और चल रही हैं :



बच्चों के साथ होना



आप नौकरी कर रही हों या नहीं, लेकिन बच्चों के साथ समय बिताना आज बेहद जरूरी हो गया है। बावजूद इसके कि बच्चों के पास कंप्यूटर, इंटरनेट, टेलीविजन और वीडियो गेम्स जैसे तमाम विकल्प मौजूद हैं। शायद इनसे बच्चों को बचाने के लिए यह और भी जरूरी हो गया है कि मांएं बच्चों के साथ अच्छा समय बिताएं और यह बात वे समझ भी रही हैं। नीलम एक स्कूल में अध्यापिका हैं। वह सुबह सात बजे घर से निकलती हैं और दोपहर तीन बजे घर लौटती हैं, लेकिन इसके बाद वह खुद को घर के कामों में बिजी नहीं रखतीं, बल्कि अपने चार साल के बेटे के साथ पूरा समय बिताती हैं।



विशेषज्ञों का मानना है कि बच्चों के साथ समय बिताने का अर्थ यह नहीं है कि आप एक बंद कमरे में उनके साथ चुपचाप बैठे रहें या टीवी देखते रहें, बल्कि उनके साथ खेलना, उनकी एक्टिविटीज में शामिल होना, उनके साथ समय बिताना है। और निस्संदेह आज की न्यू मॉम इसी रास्ते पर चल रही हैं और चलना चाहती हैं। क्लिनिकल साइक्लोजिस्ट्स भी यह मानते हैं कि अपने बच्चों के लिए रोल मॉडल बनना चाहिए। बच्चों को अच्छे आदर्श, नैतिकता और अच्छा व्यवहार सिखाने का यही एकमात्र तरीका है।



शांत रहिए



अमूमन नौकरीपेशा मांएं अपने ऑफिस का तनाव घर तक ले आती हैं और इस तनाव का असर बच्चों पर भी पड़ता है। बच्चों के साथ बात-बात पर गुस्सा करना, असहनशील होना, ऐसी उम्मीद करना कि बच्चा हर वक्त आपकी हर बात मानेगा, महानगरों में आम बात हो चुकी है। इसकी वजह शायद यह भी है कि अभिभावक भी हर समय एक अनदीखते से तनाव में रहते हैं, लेकिन बच्चों का इस सबसे कोई लेना-देना नहीं होता और इस तनाव का उनके विकास पर गहरा असर हो रहा है। अच्छी बात यह है कि इस बात को आज की न्यू मॉम समझने लगी हैं। वह अपने आप से ही यह वादा करती हैं कि वे अपने बच्चों के साथ कूल व्यवहार करेंगी। बकौल नीलम कई बार स्कूल में बहुत टैंशन होती है, लेकिन मैं कोशिश करती हूं कि वह टैंशन घर पर प्रकट न हो।



हैल्दी फूड



महानगरों में जंक फूड ने बच्चों की ईटिंग हैबिट को काफी खराब किया है। कई बार शौक में और कई बार जरूरत के चलते मांएं भी बच्चों को जंक फूड खाने के लिए कह देती हैं, लेकिन इस तरह के फूड से पैदा होने वाली समस्याओं से आज की मॉडर्न मांएं अब अनजान नहीं रहीं, इसीलिए वे बच्चों को हैल्दी फूड के लिए प्रेरित कर रही हैं। वे बच्चों की पसंद का फूड घर पर ही बना कर देती हैं। इससे बच्चों को भी यह अहसास होता है कि उनकी मां उनकी जरूरतों का ध्यान रख रही हैं और इस तरह मांएं बच्चों में हैल्दी फूड हैबिट्स डालने की सफल कोशिश कर रही हैं।



रीडिंग को फन बनाएं



नीता मिश्र अपने बेटे में रीडिंग हैबिट विकसित करने के लिए एक दिलचस्प प्रयोग करती हैं। वह नियमित रूप से अपने बेटे को कोई कहानी पढ़ कर सुनाना शुरू करती हैं। लेकिन जब कहानी दिलचस्प मोड़ पर पहुंचती हैं तो वे कहती हैं कि बाकी कहानी कल पढ़ेंगे। उनका बेटा कहानी सुनाने की जिद करता है तो वह कहती हैं कि चलो आगे की कहानी तुम पढ़ कर सुनाओ और आगे की कहानी बच्चा खुद पढ़ कर सुनाता है। इससे बच्चों में स्वाभाविक रूप से रीडिंग हैबिट विकसित हो रही है। साथ ही उनका अपनी मांओं के साथ एक भावनात्मक रिश्ता भी बन रहा है।



टीवी देखने का समय कम करें



आज के दौर में हालांकि यह बहुत मुश्किल काम है कि बच्चों को टीवी देखने से रोका जाए, लेकिन यदि बच्चों को दूसरे आउटडोर या इनडोर खेलों के लिए प्रेरित किया जाए तो टीवी देखने का समय अवश्य कम किया जा सकता है और अनेक महिलाएं न केवल बच्चों को दूसरे खेलों के लिए प्रेरित करती हैं, बल्कि उनके साथ कैरम, चैस और लूडो जैसे खेल खुद भी खेलती हैं। ऐसे समय में बच्चा खुद को आपका दोस्त महसूस करता है।



दोस्त बनती मांएं



मांओं के लिए यह जानना भी बहुत जरूरी है कि उनके बच्चों के कौन दोस्त हैं, वे आपस में किस तरह की बातें करते हैं, उनकी पसंद और नापसंद क्या है। और मांएं बाकायदा ऐसा कर रही हैं। वे अपने बच्चों के सभी दोस्तों के फोन नंबर खुद रखती हैं, उनसे समय-समय पर बातचीत करती रहती हैं, ताकि उन्हें यह पता चलता रहे कि उनके बच्चों के दोस्त क्या सोच और क्या कर रहे हैं। इससे बच्चों को भी यह लगता है कि उनकी माएं उनकी ही दोस्त हैं। दिलचस्प बात यह है कि वे यह सब कुछ बेहद सहज ढंग से कर रही हैं और करना चाहती हैं।



बॉलीवुड की सुपर मॉम



बॉलीवुड में अनेक ऐसी अभिनेत्रियां हैं, जिन्होंने अपने बच्चों की देखरेख के साथ अपने करियर को भी बराबर तवज्जो दी। काजोल ने अजय देवगन के साथ विवाह के बाद फिल्मों में काम करना बंद कर दिया था। बेटी न्यासा के जन्म के बाद तो वह पूरा समय उसे ही देती रहीं, लेकिन अब काजोल ने ‘माई नेम इज खान’ से दोबारा फिल्मों में वापसी की है। वह करियर और परिवार इन दोनों में संतुलन बनाए हुए हैं। यह स्थिति माधुरी दीक्षित की थी। वह डॉक्टर श्रीराम नेने से विवाह के बाद अमेरिका चली गयी थीं। चार साल बाद वह ‘देवदास’ में वापस लौटीं और इसके बाद उन्होंने ‘आजा नच ले’ की। मलाइका अरोड़ा, करिश्मा कपूर कुछ ऐसी ही मॉम हैं, जिन्हें सुपर मॉम की श्रेणी में रखा जा सकता है।

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